लॉकडाउन-2020: यही तो दिन थे, जब राजा ने अचानक कह दिया था— स्टैचू!
लॉकडाउन-2020
जैसे खेल-खेल में बच्चे अचानक कह देते हैं- स्टैचू
वैसे ही एक रोज़ राजा ने कह दिया- लॉकडाउन
और सबकुछ थम गया
सूनी हो गईं सड़कें, मंडी-बाज़ार
बंद हो गईं दुकानें
बंद हो गए दफ़्तर, कारख़ाने
होटल-ढाबे, जिम-सिनेमाघर
स्कूल-कॉलेज, लाइब्रेरी
मंदिर-मस्जिद-गिरजा-गुरुद्वारे
सब
ख़ाली कर दिए गए खेल के मैदान
बाग़ बग़ीचे
खेत खलियान
बर्बाद हो गईं पान की गुमटियां
चाय के अड्डे
रेहड़ी ठेला
और इन्हें चलाने वाले
वास्तव में थम गया जीवन का पहिया
बसे बसअड्डे में बंद हो गईं
ट्रेनें यार्ड में
पानी के जहाज़
बंदरगाहों पर ठहरा दिए गए
और हवा के जहाज़
ज़मीन पर उतार लिए गए
ऑटो रिक्शा, हाथ रिक्शा
सड़कों पर बांध दिए गए
मोटी चेन से
बच्चों की साइकिलों में भी
लगा दिए गए ताले
निकाल दी गई हवा
कि धोखे से भी
बाहर न निकल जाए बचपन
और बूढ़े...
बूढ़ों के लिए तो सख़्त प्रतिबंध
हर तरफ़ सन्नाटा
हर मकान के
दरवाज़े बंद
लोग हो गए अपने ही घरों में क़ैद
रुक गए व्यवहार-त्योहार, मेले-ठेले, शादी-ब्याह
थम गई ज़िंदगी की सारी रौनकें
बच्चों का स्टैचू...मिनट-दो मिनट का रहता है
लेकिन राजा का लॉकडाउन... 21 दिन.... 19 दिन..... 14 दिन
फिर, फिर...
हालांकि कुछ ने किया प्रतिरोध (क्षीण)
कुछ ने समझाना चाहा कि मनमानी है ‘लक्ष्मणरेखा’
अनियोजित...अलोकतांत्रिक
...ये हेल्थ इमरजेंसी है
आपका राजनीतिक आपातकाल नहीं
लोगों को पुलिस की नहीं डॉक्टरों की ज़रूरत है
मरीज़ों को जेलों की नहीं अस्पतालों की ज़रूरत है
अस्पताल और डॉक्टरों को फूलों की नहीं मास्क, पीपीई किट और वेंटिलेंटर की ज़रूरत है
लेकिन ताली और थाली के शोर में दबा दी गईं असहमति की आवाज़ें
बुझवा दी गईं सारी बत्तियां
मगर फिर भी नहीं बुझ सकी पेट की आग
बहुत थे मजबूर/ बहुत थे मज़दूर
फ़ैसला करना था कोरोना और भूख के बीच
निकल पड़े अपने ही पांवों के भरोसे
अपनी गृहस्थी अपने कांधे पर लादे
दूर अपने ‘देस’
बाल-बच्चों को लिए
बाल-बच्चों के लिए
चलते-चलते
कई के पैरों ने जवाब दे दिया
कई को भूख खा गई
किसी को ‘घटना’,
तो किसी को ‘दुर्घटना' ने मार डाला
फिर भी बहुत डटे रहे, चलते रहे बिना रुके
पीठ पर पुलिस की लाठियों के निशान लिए
क्वारंटीन-दर-क्वारंटीन
कीटनाशक में नहाते हुए
पहुंचे अपने गांव-घर
पूछते हुए एक सवाल
कि क्या ग़रीबों का कोई देस नहीं होता?
हम क्यों हो गए अपने ही मुल्क में प्रवासी/परदेसी
...
जब तक राजा ने कहा- ओवर
तब तक बहुत कुछ तहस-नहस हो चुका था
तबाह हो चुके थे कारोबार
तबाह हो चुके थे कामगार
बंद हो चुके थे
छोटे बड़े काम धंधे, कंपनियां
चली गईं थी नौकरियां
‘कोरोना वॉरियर्स’ भी सड़क पर आ गए थे
मांग रहे थे इंसाफ़
मांग रहे थे अपनी और अपनों के स्वास्थ्य की सुरक्षा,
अपनी नौकरी, अपना वेतन
बिना कटौती के
नोटबंदी से भी बड़ा अज़ाब था ये
हर कोई था हैरान परेशान
(सिवाय राजा जी के 'नवरत्नों' के)
मचा था हाहाकार
शहर-दर-शहर
गांव-दर-गांव
लोग इस हालत में नहीं थे कि ख़ुद अपने पांव पर फिर खड़े हो सकें
लेकिन राजी जी और उनकी सरकार के पास उन्हें देने के लिए
एक नया टास्क,
एक नया नारा
और कुछ क़र्ज़ के सिवा कुछ नहीं था
...
जब कहा गया था स्टैचू यानी लॉकडाउन
तब बताया गया था कि आफ़त बड़ी है
बड़ी है महामारी
कोरोनावायरस का है क़हर
कोविड-19 है बीमारी
जो छूने से फैलती है
खांसने, छींकने से फैलती है
इसलिए रखना है सोशल डिस्टेंस
रखनी है अपनों से भी दो गज़ की दूरी
ढंकना है मुंह
धोने हैं हाथ बार बार
तोड़नी है वायरस की चेन
सावधानी हटी दुर्घटना घटी
यह तब की बात है जब 500 से भी कम थे बीमार
उंगली पर थी मरने वालों की संख्या
लेकिन
जब कहा गया- ओवर यानी अनलॉक 1...2...3
तब तक ये महामारी हर गली-मोहल्ले में पहुंच चुकी थी
हर चौथा आदमी बीमार था
हर दूसरा आदमी डरा हुआ
लेकिन
उनके पास अब नहीं बचे थे जमाती
जिनपर लादा जा सके कोरोना का सारा दोष
सड़कों पर अब नहीं चल रहे थे मज़दूर-कामगार
जिन्हें कहा जा सके कोरोना कैरियर
नहीं था कोई जवाब
सवाल पूछने वालों को जेल में क्वारंटीन/आइसोलेट करने के सिवा
नहीं थी कोई योजना
विधायक बेचने और ख़रीदने के सिवा
नहीं थी कोई दवा, वैक्सीन
सरकारें बनाने और गिराने के सिवा
नहीं था कोई उपाय
सारी संवैधानिक संस्थाएं और मर्यादाएं ताक पर रखने के सिवा
वो सबकुछ छीनकर
वो सबका छीनकर
बन रहे थे ‘आत्मनिर्भर’
बदल रहे थे
आपदा को अवसर में
जिसे कहते हैं दरअसल- मौक़ापरस्ती
नहीं बची थी कोई शर्म
नहीं बचा था बदन पर कोई कपड़ा
मुंह पर मास्क/मुखौटों के सिवा
सच यही था
कि पूरे सिस्टम को कोरोना हो गया था
और दुर्भाग्य से हमारे पास
असली वेंटिलेटर भी नहीं था
सबकुछ झूठ था
गुजरात मॉडल की तरह
और इस समय ओवर कहना
गेमओवर नहीं था
बल्कि ‘एंडगेम’ जैसा था..
जिसके पहले भाग में
‘थानोस’ चुटकी बजा गया था
बस यही है उम्मीद कि
पृथ्वी के रक्षक
पृथ्वी के एवेंजर्स
डॉक्टर, विज्ञानी
आशा कर्मी, सफ़ाई कर्मी
समाजसेवी
किसान, मज़दूर
छात्र-युवा
सारे आम जन
जो मैं भी हूं
जो तुम भी हो
वही थानोस से ‘जीवन मणियां’ छीनकर
बचाएंगे इस धरती को
भले ही आधुनिक कहानियों में भी
बुराई से हारकर जीतने की संभावना
14000605
(एक करोड़ 40 लाख 605)
बार में केवल
एक बार है
लेकिन एक बार तो है
संभावना
उम्मीद
आशा
उमंग
मुकुल सरल
(29 जुलाई, 2020)
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