टेलीविज़न समाचार का संकट और रवीश कुमार
इक्कीसवीं सदी में टेलीविजन भारतीय जनमानस और संस्कृति का एक अहम हिस्सा बनकर उभरा है। टेलीविजन की वजह से खबरों की पहुँच गाँव-कस्बों, झुग्गी-झोपड़ियों तक हुई। पब्लिक स्फीयर का विस्तार हुआ, साथ ही एक नेटवर्क का निर्माण भी। जो केंद्र से दूर थे वे नजदीक आए। इसने भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया है। टेलीविजन के संदेशों को ग्रहण करने के लिए साक्षर या पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं है। भारत जैसे देश में जहाँ आज भी करोड़ों लोग निरक्षर हैं, जाहिर है टेलीविजन अखबारों का पूरक बन कर उभरा है।
देश में करीब चार सौ समाचार चैनल हैं। बावजूद इसके जब खबरों की विश्वसनीयता और सटीकता की बात आती है लोग अखबारों पर अधिक भरोसा करते हैं। ऐसा क्यों है? क्यों टीवी समाचार उद्योग पिछले दो दशकों मे दर्शकों के बीच अपनी साख नहीं बना पाया है? सवाल यह भी है कि लोकहित से जुड़े गंभीर-मुद्दों को देखने में दर्शकों की कितनी रुचि है? जब सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी सिंह) ने पिछली सदी के 90 के दशक में हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता को एक पेशेवर अंदाज दिया, तब टीवी समाचार के प्रति लोगों में आकर्षण बढ़ा था, पर बाद में बाजार, सत्ता और टीआरपी के दबाव में टेलीविजन ने खबरों की नयी परिभाषा गढ़ी, जहां तथ्य से सत्य की प्राप्ति पर जोर नहीं रहा।
ऑनलाइन समाचार वेबसाइट आने के बाद टीवी समाचार चैनलों पर संकट और बढ़ा है। अपवाद छोड़ दिए जाए तो आर्थिक रूप से इनकी स्थिति बेहद कमजोर है। संसाधनों के लिए इन्हें विज्ञापन पर निर्भर रहना पड़ता है। बाजार और राजनीतिक सत्ता के दबाव के बीच इन्हें काम करना पड़ता है। कर्ज से डूबे एनडीटीवी समाचार चैनल के कर्ता-धर्ता प्रणय रॉय को अपना चैनल पिछले साल अडानी समूह को बेचना पड़ा था। रवीश कुमार सहित कई नामी-गिरामी पत्रकारों ने अपना त्यागपत्र दे दिया।
पिछले दिनों विनय शुक्ला की डॉक्यूमेंट्री ‘नमस्कार, मैं रवीश कुमार’ देखी। औपचारिक रूप से देश में इसका प्रदर्शन अभी नहीं हुआ है। हाल में भारत में बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की चर्चा भले देश-विदेश के फिल्म समारोहों में हुई हो, दर्शक वर्ग और वितरकों की तलाश में डॉक्यूमेंट्री निर्माताओं-निर्देशकों को हमेशा रहना पड़ता है।
बहरहाल, जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस वृत्तचित्र के केंद्र में एनडीटीवी इंडिया से लगभग 25 साल जुड़े रहे टेलीविजन के पत्रकार और स्टार-एंकर रवीश कुमार हैं। नरेंद्र मोदी सरकार के दौर में उग्र-राष्ट्रवाद की अनुगूँज के बीच उनकी पत्रकारिता और जीवन-संघर्ष को यह वृत्तचित्र अपना विषय बनाती है। इसमें समकालीन समय और हमारा समाज भी लिपटा चला आता है। साथ ही टीवी समाचार उद्योग की कार्यशैली पर भी यह डॉक्यूमेंट्री एक तीखी टिप्पणी है। जैसे-जैसे टीवी चैनलों का मुनाफा सिमटा, रिपोर्टर की भूमिका भी सिमटती चली गई। बहस-मुबाहिसा एक तयशुदा पैटर्न के तहत स्टूडियो में होने लगी। जहाँ जोर खबरों के प्रसारण और विश्लेषण पर कम और चीख-चिल्लाहट पर ज्यादा है। यहाँ पर यह नोट करना उचित होगा कि इस काम के लिए एंकरों को मोटी तनख्वाह मिलती है!
सत्ता चाहे राजनीतिक हो या धर्म की कभी सवालों को पसंद नहीं करती। लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडियाकर्मी जनता के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता से सवाल करते हैं। रवीश कुमार जमीनी और लोक से जुड़े मुद्दों को सहज ढंग से चुटीले अंदाज में पेश करते रहे हैं। उनकी पत्रकारिता में भी सत्ता से सवाल पूछना शामिल रहा है, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा है। जहाँ आम दर्शकों के बीच उनकी विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा बढ़ी, वहीँ वे अकेले होते गए। तनाव के बीच छोटी बेटी के साथ खूबसूरत क्षणों को यह वृत्तचित्र जिस तरह सामने लाती है, वह मार्मिक है।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्हें अपने पेशेवर काम के लिए तरह-तरह की धमकियां मिलती रही है। वैसे रवीश कुमार अपवाद नहीं हैं। पिछले वर्षों में सत्ता के सहयोग से एक ऐसा तंत्र विकसित हुआ है, जिसका कारोबार झूठ के प्रचार-प्रसार और प्रोपगैंडा पर टिका है। वे राजनीतिक फायदे के लिए अफवाह फैलाते हैं। पिछले दिनों रिलीज हुई सुधीर मिश्रा की फिल्म ‘अफवाह’ इस मुद्दों को ही अपने घेरे में लेती है। इनके निशाने पर वे मीडियाकर्मी आसानी से आ जाते हैं जिन्होंने इनके समाने घुटने नहीं टेके हैं।
हाल में देश-विदेश के मंच से भारत को ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ कहा जाने लगा है। विश्व के सबसे बड़े और पुराने लोकतंत्र में यदि मीडिया स्वतंत्र नहीं है, यह लोकतंत्र पर संकट की तरफ इशारा करता है। पत्रकारिता लोक सेवा है, लेकिन आज पत्रकारिता के पेशे को निभाना आसान नहीं है। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 देशों में भारत का स्थान 161 नंबर पर है। फिर भी संकट के बावजूद हमारे बीच कई ऐसे पेशेवर पत्रकार हैं जो ग्लैमर से दूर रह कर, जान पर खेल कर सत्य को समाज के सामने लाने की कोशिश में रहते हैं। वर्ष 2019 में रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड फाउंडेशन ने पुरस्कार देते हुए रवीश कुमार की पत्रकारिता को ‘सत्य के प्रति निष्ठा रखते हुए बेजुबानों की आवाज’ बताया था। हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता में जहां मनोरंजन और सनसनी पर जोर है, वहां सत्य के प्रति निष्ठा बहुत पीछे छूट गई लगती है।
पूरी दुनिया में पिछले दो दशकों में भूमंडलीकरण के आने से दक्षिणपंथी ताकतों और उग्र-राष्ट्रवाद का उभार हुआ है। सवाल यह भी है कि इन बीस वर्षों में हिंदी के टेलीविजन समाचार चैनल की प्रमुख प्रवृत्ति क्या रही? जनसंचार के प्रमुख माध्यम होने के नाते क्या इनके सरोकार जन से जुड़े? क्या सूचनाओं, विमर्शों के मार्फत इन्होंने जन को सशक्त किया ताकि लोकतंत्र में एक सजग नागरिक की भूमिका निभाने में इन्हें सहूलियत हो? उदारीकरण (1991), निजीकरण, भूमंडलीकरण के बाद खुली अर्थव्यवस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है। उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर वह शुरू से ही कारपोरेट जगत का हिस्सा रहा है। साथ ही भूमंडलीकरण के बाद भारतीय समाज और राजनीति में जो परिवर्तन आए, वे मीडिया और खास तौर पर भाषाई मीडिया में भी आए।
यह वृत्तचित्र अपने प्रभाव में अधूरा और बिखरा हुआ लगता है। बहुत सारे सवाल, मसलन एनडीटीवी कैसे कर्ज के बोझ से घिरता चला गया इस पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं मिलती। एक मुकम्मल तस्वीर के लिए पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों को भी सवालों के घेरे में लिया जाना आवश्यक है। जब भी हम मीडिया की कार्यशैली की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी। पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही टीवी समाचार उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है, ऐसे में लोकतंत्र का ‘लोक’ और लोकहित के मुद्दे कहीं पीछे छूट गए हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधार्थी हैं। पत्रकारिता पर जेएनयू से पीएचडी किया है। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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