बिलक़ीस के गुनहगारों को छोड़ने का सबब और सबक़
महिला का शरीर कई तरह के युद्ध की रणभूमि है। हवस का शिकार तो उसे बनाया ही जाता है लेकिन उस पर हर हमला हवस के कारण नहीं होता है। महिला का शरीर उसकी, उसके परिवार की, उसके समुदाय की, उसके राष्ट्र की, गो की उसकी पहचान से जुड़े तमाम पहलुओं की इज़्ज़त और सम्मान का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए, महिलाओं को नियंत्रण में रखा जाता है, उन्हें डरा कर रखा जाता है, उन्हें परम्पराओं की बंदिश में बांधकर रखा जाता है ताकि वह अपने शरीर को हर तरह के हमले से बचा सके।
ऐसा कर पाना हमेशा संभव नहीं होता। जब उसके शरीर के साथ उसकी अपनी इज़्ज़त के अलावा उसके साथ जुड़े तमाम समूहों की इज़्ज़त जुड़ी हुई है तो फिर सुरक्षित रहना भी उसके लिए मुश्किल है।
जब दो देश आपस में लड़ते हैं तो एक देश के सैनिक दूसरे देश की महिलाओं के साथ बलात्कार कर अपने दुश्मन देश की इज़्ज़त को मिट्टी में मिलाने का काम करते हैं, एक अजीब तरह का बदला लेने का कम करते हैं। इसी तरह से ताकतवर जाति के लोग कमज़ोर जातियों को अपने अधीन रखने के लिए लगातार उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार करने का काम करते हैं। साम्प्रदायिक घृणा को भी दूसरे धर्म को मानने वाली महिलाओं के साथ बलात्कार द्वारा व्यक्त किया जाता है।
2002 के गुजरात दंगे के दौरान गोधरा के रहने वाली बिलक़ीस बानो अपने परिवार के लोगों के साथ दंगाईयों से अपनी जान बचाने के लिए भाग रही थी। दंगाइयों ने उन सबको रोक लिया। महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया और सबके साथ ज़बरदस्त हिंसा की। बिलक़ीस की 4 साल की बच्ची को सर पटक कर मार डाला गया। बिलक़ीस गर्भवती थी। उसके साथ भी सामूहिक बलात्कार किया गया और वह बेहोश हो गयी। दंगाइयों ने उसे मरा हुआ समझा लेकिन वह बच गयी।
उसे अस्पताल पहुंचाया गया, उसकी डाक्टरी जांच हुई, बलात्कार की बात साबित हुई और उसका बयान लिया गया। वह बलात्कारियों को पहचानती थी। उसके गाँव के ही थे। उन्हें काका, ताऊ और भाई पुकारती थी, सबके नाम जानती थी। मुकद्दमा सालों तक चला और बिलक़ीस अपनी बात पर डटी रही। आखिर, 11 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी।
राज्य सरकारों के पास उन उम्र कैदियों को 14 साल के बाद छोड़ने का अधिकार है जिन्हें मरने तक जेल में रहने की सज़ा नहीं सुनाई गई है। लेकिन यह भी नियम बनाया गया है कि इसका फायदा बलात्कार के दोषी पाए गए अपराधी को नही मिलेगा।
इसके बावजूद, गुजरात की सरकार ने इन 11 कैदियों को 15 अगस्त के दिन, छोड़ दिया। जब वह जेल से निकले तो हिन्दुत्वादी संगठनों से जुड़े लोगों ने उन्हें मिठाई खिलाई, फूलों की मालाएं पहनाई और खूब बधाई दी।
ऐसा क्यों किया गया? शायद इसलिए की इन अपराधियों को योद्धा के रूप में देखा जा रहा था, ऐसे योद्धा जो बड़े युद्ध के विजेता थे, एक ऐसा युद्ध जो दुश्मन समुदाय की महिला के शरीर पर लड़ा गया था।
यह बातें बहुत ही डरावनी हैं। जिस देश में महिला, बच्ची और बूढ़ी के साथ बर्बर हिंसा का होना एक आम बात है, उसमें तो और भी डरावनी हैं।
डर पैदा करने वाली बातें अभी समाप्त नहीं हुई हैं।
15 अगस्त के अपने भाषण में, प्रधानमंत्री ने सुभाष चन्द्र बोस जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के नाम के साथ, सावरकर का नाम भी लिया। संघ परिवार के विभिन्न घटक के सदस्य लगातार सावरकर का महिमामंडन करते रहे हैं। कर्नाटक में हिन्दुत्वादी संगठनों ने सावरकर और सुभाष चन्द्र बोस की तस्वीर एक ही पोस्टर में छापकर चिपका दी है। पोस्टर पर ‘हिन्दू राष्ट्र’ छाप कर चिपकाया गया है जिस पर ‘जय हिन्दू राष्ट्र’ का नारा लिखा गया है। यह सब कुछ अपने नायक सावरकर को स्वतंत्रता सेनानियों की अगली कतारों में जगह देने के लिए किया जा रहा है।
लेकिन संघ परिवार के लिए सावरकर इस लिए नायक नहीं हैं कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का काम किया था। वे उनके नायक इसलिए हैं कि माफ़ी मांगकर, काला पानी से छूटने के बाद, उन्होंने हिंदुत्व की विचारधारा को जन्म देने और परिभाषित करने का काम किया था।
इन्हीं हिन्दुत्वादी सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय इतिहास के छह वैभवशाली युग’ के आठवें अध्याय में लिखा है:
"हम अभी भी शिवाजी और चिम्माजी के उन नेक कार्यों को गर्व से याद करते हैं जब उन्होंने कल्याण के मुसलमान सूबेदार की पुत्रवधू और बसीन के पुर्तगाल सूबेदार की पत्नी को ससम्मान वापस कर दिया था। पर क्या ये आश्चर्यजनक नहीं है कि ऐसा करते हुए न शिवाजी को न चिम्माजी अप्पा को उन हजारों हिन्दू स्त्रियों की याद नहीं आयी जिन पर मोहम्मद गौरी, महमूद ग़ज़नवी और अलाउद्दीन खिलजी और कईयों ने अनेक जुल्म सितम ढाये, उनका अपमान किया और उनका बलात्कार किया...। क्यों देश के कोने कोने तक गूंजती लाखों पीड़ित हिन्दू औरतों की चीख और करूण पुकार शिवाजी और चिम्माजी अप्पा के कानों तक नहीं पहुँची? नारी संबंधी विकृत धार्मिक विचारों के प्रचलन के चलते न तो शिवाजी, न ही चिम्मा जी मुस्लिम औरतों के साथ ऐसा कर पाए। अंततः हिन्दू समुदाय के लिए यह बहुत घाटे का सौदा साबित हुआ।" यानी सावरकर स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं की शिवाजी और चिम्माजी का धार्मिक कर्तव्य था मुस्लिम औरतों के साथ बलात्कार करना।
महिलाओं के लिए इससे ज्यादा खतरनाक क्या हो सकता है कि प्रधानमंत्री और संघ परिवार के नायक दूसरे धर्म की महिलाओं के साथ बलात्कार को केवल उचित ही नहीं बल्कि धार्मिक कर्तव्य की श्रेणी में डाल रहे हैं। इसका मतलब तो यह हुआ की अब बलात्कार पीडिताओं को न्याय की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए।
दुश्मन केवल अपने से अलग धर्म मानने वालों में ही नहीं पाए जाते। अपने से अलग जातियों में, अपने से अलग क्षेत्रों में, मतलब अपने से अलग हर तरह के समूहों में दुश्मन पाए जा रहे हैं। अब इनको नीचा दिखाने के लिए बलात्कार केवल एक हथियार ही नहीं रहेगा बल्कि एक उचित हथियार जिसका इस्तेमाल वीरता का प्रमाण है के रूप में देखा जाएगा। बिलक़ीस बानो के साथ बलात्कार करने वालों के पक्ष में उनको छुड़ाने वाली समिति के सदस्य, भाजपा विधायक, ने बड़े ही सहज ढंग से कहा ‘वे तो ब्राह्मण हैं; संस्कारी हैं।’
(सुभाषिनी अली पूर्व सांसद और अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (AIDWA) की उपाध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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