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पुनर्वास की जद्दोजहद: “DDA का बुलडोज़र सिर्फ़ उजाड़ना जानता है बसाना नहीं”

16 जून को दिल्ली के वसंत विहार में प्रियंका गांधी कैंप पर अतिक्रमण हटाने के नाम पर 97 झुग्गियों पर बुलडोज़र चला। बेघर हुए लोग पुनर्वास के लिए भटक रहे हैं, इन लोगों ने 28 जून को DDA ऑफिस के बाहर विरोध प्रदर्शन किया।
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कहते हैं वक़्त हर घाव भर देता है लेकिन अजीब विडंबना है कि दिल्ली के पॉश इलाक़े वसंत विहार में प्रियंका गांधी कैंप में 16 जून को जिन 97 घरों (झुग्गियों) को ज़मीदोज़ कर क़रीब 500 लोगों को बेघर किया गया, उनके आंसू आज तक थमने का नाम नहीं ले रहे, जिन्हें 16 जून को हमने बिलखते देखा था, उन्हें आज भी उसी तरह ज़ार-ज़ार रोते-सिसकते पाया। ऐसा लग रहा था जैसे इनकी आंखे वक़्त के साथ समंदर बन गई हों।

"दिन दिल्ली के पार्क में और रात फ्लाईओवर के नीचे गुज़ारनी पड़ रही है"

बिलखती हुई क़रीब 75 साल की बुजुर्ग सीता अपना दर्द बयां करते हुए रोते-रोते कांपने लगीं। कांपते लहजे में जैसे ही वह किसी से बात करना शुरू करती, उनकी जुबान से पहले उनके आंसू बढ़कर अपनी कहानी बयां करने लगे। बिलखते हुए सीता बताने लगीं, "पूरा दिन प्रिया पार्क में बैठी रहती हूं, रात को जाकर किसी सड़क पर सो जाती हूं, खाने का इंतज़ाम बहुत मुश्किल से कर पा रही हूं।" ये कहते-कहते उन्होंने अपनी साड़ी के एक कोने से आंसू पोंछने की कोशिश की लेकिन साड़ी का वो कोना पहले ही भीग चुका था, इस मौसम में एक बेघर बेसहारा बुर्जुग को अगर दिन दिल्ली के पार्क में और रात फ्लाईओवर के नीचे गुज़ारनी पड़ रही हो तो फाइव ट्रिलियन इकॉनमी (5 Trillion Economy) बनने जा रहे देश के हुक्मरानों को विकास के शीशे में ज़रूर झांक कर देखना चाहिए क्योंकि उसमें कहीं पीछे बेघर बुजुर्ग सीता की रोती तस्वीर का अक्स ज़रूर होगा।

बेघर बुजुर्ग के पास रहने की जगह नहीं

बुजुर्ग सीता को ढाई हज़ार रूपये पेंशन मिलती है और वह अपने नवासे के साथ रहती हैं जिसने हाल ही में 12 वीं की पढ़ाई पूरी की है, जिस युवा को आगे की पढ़ाई करनी थी वे फिलहाल काम की तलाश कर रहा है।

'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' महज़ एक नारा?

17 साल की सुगंधी से लेकर 75 साल की बुजुर्ग सीता का एक ही सवाल है 'अब हम कहां जाएं?’ दोनों ही सड़क पर सोने और सार्वजनिक शौचालय इस्तेमाल करने पर मजबूर हैं। इन दोनों की हालत देखकर सवाल उठता है कि 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' क्या सिर्फ़ एक कोरा एक नारा है?

DDA ऑफिस के बाहर बेघर लोगों का प्रदर्शन

प्रिंयका गांधी कैंप टूटा तो कोर्ट ने बेघर लोगों के पुनर्वास का निर्देश दिया लेकिन बावजूद इसके लोग सड़कों पर रात गुज़ारने पर मजबूर हैं और इसी मजबूरी को बयां करने के लिए इन लोगों ने 28 जून को दिल्ली के विकास सदन DDA (Delhi Development Authority) के हेड ऑफिस के बाहर प्रदर्शन किया। लेकिन एक बार घर टूट जाने के बाद दिल्ली में लगातार बेघर हो रहे इन लोगों की कोई सुध लेने वाला नज़र नहीं आ रहा। ऐसे में बेघर हुए ये लोग सवाल उठा रहे हैं कि आख़िर कहां है DUSIB (Delhi Urban Shelter Improvement Board), कहां है NDRF (National Disaster Response Force) और कहां है केंद्र और दिल्ली के वे नेता जिन्होंने नारा दिया था 'जहां झुग्गी वहां मकान'?

DDA ऑफिस के बाहर पुनर्वास की मांग लेकर पहुंचे बेघर लोग

16 जून को चला था बुलडोज़र

16 जून को दिल्ली के पॉश इलाक़े वसंत विहार में प्रियंका गांधी कैंप पर अतिक्रमण हटाने के लिए बुलडोज़र चला और 97 घरों (झुग्गियों) को ज़मींदोज़ कर दिया। इस कार्रवाई में क़रीब 500 लोग बेघर हो गए। कोर्ट ने इन लोगों के पुनर्वास के निर्देश दिए थे और जब तक पुनर्वास नहीं हो जाता तब तक दिल्ली के रैन बसेरों का इंतज़ाम करने के लिए कहा गया था लेकिन एक बड़ा सवाल ये भी है कि क्या रैन बसेरे रहने लायक हैं? क्या रैन बसेरों में जगह है? क्या वहां इतनी बड़ी संख्या में बेघर हो रहे परिवारों के रहने की व्यवस्था की जा सकती है?

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सिर पर छत या दो जून की रोटी में से एक को चुनने की दुविधा

बेघर हुए लोगों के सामने सिर पर छत या फिर रोटी में से एक को चुनने की समस्या आ गई है। बेघर हुए लोगों में ज़्यादातर निर्माण मज़दूर और घरेलू कामकाजी महिलाएं हैं जो आस-पास के इलाक़ों में काम कर पास के स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ा रही थीं लेकिन कई महिलाओं के काम छूट चुके हैं ऐसे में अगर वे बच्चों की पढ़ाई को जारी रखने के लिए किसी तरह किराए का घर लेने के बारे में सोचती हैं तो दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ करना उनके लिए किसी पहाड़ की चढ़ाई करने के समान हो गया है।

इन लोगों की ज़िंदगी कोई बहुत शानदार तरीके से नहीं चल रही थी लेकिन हर दिन कमाने-खाने वाले लोगों को तसल्ली थी कि सिर पर छत है लेकिन ज़िंदगी की वो गाड़ी उसी दिन से पटरी से उतर गई जिस दिन उनके घर टूटे और उनके लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी चीजों को पाने की जंग शुरू हो गई।

AICCTU (All India Central Council of Trade Unions) की तरफ़ से DDA हेड ऑफिस के बाहर विरोध-प्रदर्शन किया गया जिसमें प्रियंका गांधी कैंप के साथ ही दिल्ली के अलग-अलग जगहों पर चले DDA के बुलडोज़र की वजह से बेघर हुए लोगों ने हिस्सा लिया और पुनर्वास की मांग की। INA मेट्रो स्टेशन से शुरू हुए इस मार्च में नारेबाज़ी करते हुए लोग DDA हेड ऑफिस तक पहुंचे जहां AICCTU की तरफ़ से एक ज्ञापन सौंपा गया। इन लोगों को समर्थन देने के लिए कुछ छात्र, सामाजिक कार्यकर्ता और दिल्ली के कुछ बाशिंदे भी पहुंचे।

"घर टूटा और काम भी छूट गया"

मार्च में शामिल कुछ बेघर हुई महिलाओं ने हमें बताया कि उनका काम छूट चुका है और उनकी ज़िंदगी पूरी तरह से सड़क पर आ चुकी है। इन महिलाओं में कोई घरों में काम करने वाली थीं तो कोई दिहाड़ी मज़दूरी का काम करने वाली। महिलाएं बताती हैं कि "सामान तो हमने किसी के यहां रख दिया है लेकिन सोते मेट्रो स्टेशन पर हैं" जब हमने उनसे पूछा कि वे रैन बसेरे क्यों नहीं गए तो उनका जवाब था " रैन बसेरे में बड़ी-बड़ी लड़कियों को लेकर कैसे जाएं, सामान लेकर नहीं आने देते? वहां का माहौल ठीक नहीं है, पहले हम काम पर जाते थे तो बच्चियां स्कूल चली जाती थीं और जब तक वे स्कूल से लौटती थीं हम भी अपने काम से लौट आती थीं लेकिन अब हमें पूरा दिन उन्हीं का ख़्याल रखना पड़ता है।"

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"जैसे घर छीना था वैसे ही वापस करना होगा"

मार्च में शामिल रौशनी से जब हमने पूछा कि क्या उन्हें घर मिल गया है तो उनका कहना था कि "नहीं, घर नहीं मिला, बेटी है इसलिए रैन बसेरा नहीं जाना चाहती, लाल बत्ती पर झुग्गियां हैं वहीं पर किसी तरह रहने का जुगाड़ किया है, बारिश हुई तो नाले का पानी (सीवर) हम जहां रह रहे हैं वहां घुस गया" जब हमने रौशनी से पूछा कि वे रैन बसेरे में क्यों नहीं गईं तो उनका कहना था कि "पहले तो रैन बसेरे सब फुल हैं, दूसरा रैन बसेरे में नशेड़ी-गंजेड़ी रहते हैं वहां जवान लड़की को लेकर कैसे जाएं?" रोती हुई रौशनी ने कहा कि हमें बस यही कहना है कि "जैसे हमारे घरों को छीना गया वैसे ही वापस किया जाए, झूठा वादा कर हमें बेघर कर दिया गया। रात-दिन हम परेशान हैं, घर चलाने के लिए दो तीन जगह काम कर रही थी जिसमें से एक जगह काम छूट गया है, बेटी की कॉलेज की फीस भरनी है दिमाग काम नहीं कर रहा, कैसे करेंगे सब।"

"बेघर लोगों को कोई पूछने वाला नहीं"

प्रियंका गांधी कैंप के लोगों की ज़िंदगी में सुधार लाने की कोशिश में लगीं और इस कैंप में लंबे समय से काम कर रहीं 'घरेलू कामकाजी महिला यूनियन' की जनरल सेक्रेटरी रेखा सिंह से भी हमने बात की। उनका कहना है कि "एक महिला हैं सुनिता, उन्हें अभी तक घर नहीं मिला, वे लगातार घर तलाश कर रही हैं। एक जगह मिली भी तो रात में सीवर का पानी घुस गया वे बहुत बुरे हालात में हैं।"

रेखा आगे कहती हैं कि "बिना पुनर्वास के लोगों के घरों को तोड़ दिया गया और उन्हें यूं ही बेसहारा छोड़ दिया गया कि जाओ आप जैसे हालात हैं वैसे रहो, सरकार को कोई मतलब नहीं है फिर चाहे केंद्र की सरकार हो या फिर दिल्ली सरकार। 16 जून को घर टूटे आज 28 तारीख़ हो गई लेकिन किसी को कोई मतलब नहीं कि वहां जो 100 परिवार थे वे कहां गए, उनके बच्चों की शिक्षा का क्या हुआ, कितने लोगों का काम छूट गया, ये लोग रोते हैं तो हमारा दिल भी टूट जाता है क्योंकि हम भी इनके लिए जो करना चाहते हैं वे नहीं कर पा रहे हैं। हमारी कोशिश है कि इन्हें इनका अधिकार मिले लेकिन ऐसा लगता है वो संघर्ष अभी बहुत लंबा है।"

वहीं AICCTU की सुचेता डे ने कहा कि "हम DDA के पास इसलिए जा रहे हैं क्योंकि हाईकोर्ट ने आपको कहा कि पुनर्वास की व्यवस्था करें तो आप करें, साथ ही हम उनको कहना चाहते हैं कि दिल्ली में मनमाने तरीके से बुलडोज़र चलाना बंद करें"

उन्होंने दिल्ली सरकार पर निशाना साधते हुए कहा, "डेमोलिशन से पहले सौरभ भारद्वाज इन लोगों से मिले थे और वादा किया था कि कोर्ट में दिल्ली सरकार ये मांग करेगी कि इनका घर ना तोड़ा जाए और अगर टूटा तो पुनर्वास की गारंटी देनी होगी लेकिन जब से प्रियंका गांधी कैंप टूटा है, सौरभ भारद्वाज का कोई अता-पता नहीं है, हम मांग करते हैं कि तुंरत पुनर्वास हो, शहर में इतने बड़े तबके को बेघर और अमानवीय हालात में रहने को मजबूर न करें।"

मलबे में दब गए सपने

अतिक्रमण हटाने के लिए बुलडोज़र चल रहा है, झुग्गियों को हटा दिया जा रहा है, घरों को मलबे में तब्दील कर दिया जा रहा है लेकिन इस मलबे में बहुत कुछ दब गया है जैसे बहुत से सपने। हमने बेघर हुई बहुत सी बच्चियों से बात की कोई 12 वीं पास कर कॉलेज जाने की तैयारी कर रही थी तो कोई 12 वीं बोर्ड की तैयारी कर भविष्य के बारे में प्लान तैयार कर रही थी लेकिन वे सब घर के मलबे में तब्दील होने पर उसी में दफन हो गए।

वहां मौजूद एक लड़की ने हमसे कहा कि "पढ़ाई तो पूरी तरह से ठप पड़ गई है। मैं टीचर बनना चाहती थी लेकिन अब कैसे आगे बढूंगी पता नहीं। मेरी मम्मी कमरे का किराया देंगी या फिर खाने का इंतज़ाम करेंगी या फिर मेरी पढ़ाई का खर्च उठाएंगी? पढ़ाई में पैसा लगता है, मम्मी पापा का काम भी छूट गया है।  बस घर के लिए इधर-उधर भाग रहे हैं।" वहीं एक और लड़की ने कहा कि "अब मैं स्कूल नहीं जाऊंगी। हमारे घर तोड़ दिए गए हैं, हमारे घर के पास स्कूल था लेकिन आस-पास घर मिल ही नहीं पा रहा, दूर जाएंगे तो स्कूल छोड़ना पड़ेगा भविष्य ख़राब कर दिया हमारा।"

बेघर हुई लड़कियों के सामने पढ़ाई जारी रखने की चुनौती

इन नौजवान लड़कियों से हमने पूछा कि वे कहां रह रही हैं तो उनका कहना था "हम पूरा दिन इधर-उधर भटक रहे हैं। वॉशरूम के लिए सार्वजनिक शौचालय जाते हैं वहां भी पैसे देने पड़ते हैं, रात को अकेले जाने में डर लगता है इसलिए मम्मी या फिर किसी को लेकर साथ जाना पड़ता है, डर-डर कर जाते हैं। इन शौचालयों के आस-पास शराबी बैठे रहते हैं जो आने-जाने पर फब्तियां कसते हैं।"

हो सकता है इनमें से कुछ 2024 में फर्स्ट टाइम वोटर बनेंगी उस वक़्त नेता इन लड़कियों के पास किस वादे के साथ जाएंगे ?

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मार्च में एक मां अपने सात-आठ साल के बच्चे का हाथ थामे चल रही थी। वहीं एक मां गोद में बच्चे को लेकर पहुंची थी, बच्चों के मुरझाए हुए चेहरे मां-बाप की मजबूरी बयां कर रहे थे, ना ठीक से खाना मिल पा रहा है ना ठीक से सो पा रहे हैं। बचपन में बनने वाली यादें ताउम्र साथ रहती हैं। इन बेघर हुए बच्चों की यादों में क्या होगा? यही कि जिन बच्चों को मां को स्कूल के दरवाजे पर छोड़ कर आना था उनका हाथ थामे वे DDA ऑफिस के बाहर सिर पर छत की फरियाद लगा रही है?

मार्च में हिस्सा लेने पहुंची बेघर महिलाएं 

शहर में निर्माण मज़दूरों के लिए कहां है जगह?

बेघर हुए लोगों की परेशानी के बारे में AICCTU से जुड़ी नेहा कहती हैं, "एक ग़रीब जिसका अधिकार है घर, जिसने अपनी मेहनत से घर बनाया था लेकिन आज उनके सिर पर छत नहीं है। आज वे DDA ऑफिस के सामने सड़क पर बैठे हुए हैं लेकिन अंदर अधिकारी कान बंद किए बैठे हैं। जो शहर में काम करने वाले मज़दूर हैं, जो शहर बना रहे हैं, शहर चलाने में योगदान दे रहे हैं उनके लिए हमारे शहरों में कहां है जगह? दिल्ली के मास्टर प्लान में इन मज़दूरों के लिए कहां है जगह? यही लोग एक-एक ईट जोड़कर बिल्डिंग खड़ी करेंगे, फ्लाईओवर बनाएंगे लेकिन उनकी छत कहां है?"

अपनी बात जारी रखते हुए नेहा कहती हैं कि "जिन घरों को तोड़ा जा रहा है, जहां घरों को तोड़ने के नोटिस लगे हैं, उसी के बगल में बड़े-बड़े पोस्टर लगे हुए हैं जिसपर लिखा है 'जहां झुग्गी वहां मकान', तो आख़िर कहां है वे मकान? कहां है वो सरकार जो कहती है कि हम तुमको घर देंगे? सरकार ने घर तो नहीं दिया लेकिन जब लोगों ने घर बना लिया, अपनी दुनिया बसा ली तो उनके घरों को तोड़ दिया गया। जिनके दम पर आस-पास की कॉलोनी चलती हैं, चाहे वह माली हो, घर में खाना बनाने वाली हो या सफाई कर्मचारी, वे आख़िर कहां रहते हैं क्या कभी सोचा है उनके बारे में, दिल्ली की कॉलोनी में रहने वालों को अंदाज़ा भी है कि उनके घरों में काम करने वालों का क्या हाल है?

"DDA सिर्फ़ बुलडोज़र चलाना जानता है लोगों को बसाना नहीं"

इन्हीं मुद्दों पर JNU के छात्र धनंजय का कहना है कि "दिल्ली में जहां भी झुग्गियां टूट रही हैं वहां पुनर्वास नहीं हो पा रहा है और केंद्र व दिल्ली सरकार के वादे थे 'जहां झुग्गी वहां मकान' ये वादा पूरी तरह से झूठा साबित हुआ है, लोगों की पुनर्वास की मांग को लेकर हम DDA ऑफिस पहुंचे हैं क्योंकि DDA वो विभाग है जो दिल्ली में ज़मीनों का आवंटन, लोगों की रहने की व्यवस्था जैसी तमाम चीजों को देखता है इसलिए हम यहां आए हैं। DDA ने बहुत जगह लोगों के घर तोड़े हैं, DDA का बुलडोज़र कई जगह चला है, बिना दया के DDA का बुलडोज़र चलता है लेकिन पुनर्वास के नाम पर ये कुछ नहीं कर रहे हैं। DDA का बुलडोज़र सिर्फ़ उजाड़ना जानता है बसाना नहीं। ऐसा लग रहा है कि सरकार की मंशा यही है कि लोग चैन से न रहें, लोग वहां 30-30 साल से रह रहे थे और ऐसा नहीं है कि सरकार को उनके बारे में पता नहीं था। वहां के विधायक उनके बारे में ना जानते हों ऐसा नहीं हो सकता। इनके वोटर आईडी हैं, आधार हैं, बिजली बिल हैं इसके बावजूद आप इनके घर तोड़ रहे हैं तो ये बताता है कि आपके मन में ग़रीबों के लिए जगह नहीं है।"


गौरतलब है कि वसंत विहार के प्रियंका गांधी कैंप की ज़मीन NDRF को दे दी गई थी जिसके बाद अतिक्रमण हटाने के नाम पर वहां 16 जून को बुलडोज़र चला कर 97 घरों (झुग्गियों) को तोड़ दिया गया था जिसकी वजह से क़रीब 500 लोगों के सामने घर की समस्या पैदा हो गई थी हालांकि NDRF की तरफ़ से नोटिस लगा दिया गया था कि बेघर लोग DUSIB के रैन बसेरे में जा सकते हैं।

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