विशेष : भारत में विकास के तीन मॉडल और कोरोना संकट
भारत में विकास के तीन मॉडल हैं। एक महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली का मॉडल तो दूसरा केरल का और तीसरा बिहार, उड़ीसा आदि का। मोटे तौर पर इस विभाजन को समझिए। वैसे तो सब जगह देश का एक ही कानून चलता है वह है नवउदारवादी कानून। परंतु उसी के अंदर अलग-अलग राज्यों की सरकारों ने अपनी अपनी परिस्थितियों में प्राथमिकताओं के आधार पर जो विकास का मॉडल पेश किया है - यहाँ उसी के आधार पर तीन कोटियों में बाँटकर देखने की कोशिश कर रहा था कि भविष्य का मॉडल कौन सा हो सकता है !
याद कीजिए उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के नेतृत्व में हाइवे पर प्लेन उतारने का जो विकास मॉडल था वह फेल हो गया, उड़ीसा के बीजू पटनायक एवं जयललिता के मुफ्त चावल वाले मॉडल के आगे। जीत और हार की ही बात नहीं है, लोकप्रियता का मसला भी है। आखिर उस हाइवे से जुड़ा जो सीधा लाभार्थी है - वह किसका बैंक है? इसे समझने के लिए रॉकेट साइंस नहीं मार्क्स और अम्बेडकर का वर्ग एवं जाति के आधार पर भारत के यथार्थ का बोध चाहिए। यहीं से वैकल्पिक मॉडल मिलेगा।
आज कोरोना संकट की मार इन तीनों मॉडल के सामने तीन तरह की चुनौती दे रही है। दुर्भाग्य यह है कि तीनों के लिए एक ही विकल्प मोदी सरकार द्वारा थोपा जा रहा है - वह है आइसोलेशन। जबकि तीनों तरह के राज्यों की चुनौतियां बिल्कुल अलग चरित्र की हैं।
बड़े-बड़े फाइव स्टार अस्पताल और बीमा कंपनी पर निर्भर स्वास्थ्य सेवा, सबके लिए राशन वितरण प्रणाली की जगह 'टार्गेटेड राशन प्रणाली' और शिक्षा का करीब करीब निजीकरण - यही विकास का गुजरात, महाराष्ट्र और दिल्ली मॉडल रहा। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार आने के बाद इसमें थोड़ा अंतर आया, खासकर स्कूल शिक्षा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य में। बाकी मॉडल वही रहा। परिणाम आज सामने है। इन तीनों राज्य सरकारों की हालत खराब दिखायी दे रही है।
आप कहेंगे शिक्षा का क्या मतलब ? तो आपको इसके लिए केरल का मॉडल समझना होगा। जिस तरह से संक्रमित लोगों के साथ सामाजिक व्यवहार दिखाई दे रहा है चाहे जमात के हों या डॉक्टर तथा नर्स या फिर फलों और सब्जियों के विक्रेता - इसका सीधा संबंध उस सामाजिक चेतना से है जिसका निर्माण सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को गुणवत्तापूर्ण बनाकर ही किया जा सकता है।
टापू का निर्माण छोटे से वर्ग के लिए - बाकी डूबी जनता का मॉडल किसी भी महामारी या आर्थिक राजनीतिक संकट को नहीं झेल सकता। ऐसी स्थिति में अराजकता का होना स्वाभाविक है। जो इस मॉडल को बना रहे हैं वे भी इस अराजकता के माहौल में लाभ नहीं उठा सकते। व्यापक मृत्यु-बोध स्वस्थ मानसिकता को जन्म नहीं दे सकता।
नवउदारवादी नीति उसी चमचमाते टापू के निर्माण का मॉडल है। आज देश में उस नवउदारवादी नीति को एक नए रूप में आगे बढ़ाने की कोशिश चल रही है जिसे अडानी-अम्बानी का दलाल पूंजीवादी मॉडल कहते हैं। यही तथाकथित गुजरात मॉडल भी है। यही महाराष्ट्र का भी मॉडल रहा। जिसमें किसानों की आत्महत्या एवं मजदूरों का भीषण शोषण निहित है। जिस मॉडल में एक सप्ताह से ज्यादा का राशन 60% लोगों के पास नहीं है। जिसमें टारगेटेड राशन वितरण प्रणाली का टारगेट तय किया जा सकना संभव ही नहीं। आज यहाँ तो कल वहाँ। जहाँ पानी की आस वहीं कुआँ खोदने का प्रयास। यही प्रवासी मजदूरों की कहानी है। क्या ऐसे में किसी भी महामारी का मुकाबला किया जा सकता है ? किस इम्युन सिस्टम (प्रतिरक्षा प्रणाली) की बात कर रहे हैं हम ?
यहीं से बिहार और उड़ीसा के मॉडल को भी देखने की ज़रूरत है। उड़ीसा आपात स्थिति का मुकाबला करने का अभ्यस्त है। लगातार प्राकृतिक आपदा वहाँ की जीवन पद्धति में है। न तो स्वास्थ्य सेवा और न ही शिक्षा और न ही कोई अन्य मेगा प्रोजेक्ट। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन उस नवउदारवादी नीति के तहत जारी है। उसका कुछ हिस्सा गरीबों के पेट की आग को शांत करने के लिए निर्धारित है। सीमित इच्छाओं और प्राकृतिक आपदा से निपटने की जीवन पद्धति के साथ पलायन उनका विकल्प है।
बिहार के पास तो वह भी नहीं है। उसके पास न तो आपदाओं के प्रबंधन है और न ही स्वास्थ्य एवं न ही शिक्षा। राशन वितरण प्रणाली तो तबाह है ही। न ही कॉपरेटिव सिस्टम है। किसानों से लेकर मजदूरों के लिए एक ही विकल्प है पलायन। स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा तक का एक मात्र विकल्प पलायन। वह केरल नहीं है जहाँ के लोगों का दुनिया के हर कोने में पलायन तो है पर स्थानीय समाज एवं संस्कृति से लेकर व्यवस्था तक से सीधा जुड़ाव है। जहाँ सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, राशन वितरण प्रणाली का यूनिवर्सल रूप किसी भी आपदा को झेलने और उससे उबरने की योग्यता देता है। यही कारण है कि बिहार अपने पलायन किये हुए विद्यार्थियों को भी वापस लाना नहीं चाहता। मजदूरों को तो केरल छोड़कर और कोई नहीं लाना चाहता। बिहार कोटा के बच्चों के आँसू से भी नहीं पिघल रहा तो उसका कारण उसका विकास मॉडल है। जिसमें पलायन ही विकल्प है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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