गौरी लंकेश : आँखें बंद कर जीने से तो अच्छा है आँखें खोलकर मर जाना
आज पत्रकार गौरी लंकेश की शहादत का दिन है। वे एक बेहद बहादुर पत्रकार थीं और जन की आवाज़। वे कन्नड़ में 'लंकेश पत्रिका' निकाल रहीं थीं जो उनके पिता पी लंकेश ने शुरू की थी। शायद यही वजह थी कि वे लगातार दक्षिणपंथी ताकतों के निशाने पर रहीं।
आज ही के दिन 5 सितंबर, 2017 को बेंगलुरु में उन्हें उनके घर के बाहर गोली मार दी गई थी। इससे पहले बिल्कुल इसी तरह 30 अगस्त 2015 को कन्नड़ विद्वान डॉ. एमएम कलबुर्गी की हत्या कर दी गई थी। और उनसे पहले तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्या की गई। सबका पैटर्न लगभग एक था और शायद मकसद भी- सच की आवाज़ को ख़त्म करना। लेकिन आवाज़ कभी नहीं मरती। विचार हमेशा ज़िंदा रहते हैं।
5 सितंबर, 2015 को लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले संघर्षशील अमनपसंद लोगों ने कलबुर्गी, दाभोलकर और पानसरे के इंसाफ़ के लिए दिल्ली समेत देशभर में आवाज़ बुलंद की और 2017 के बाद इसमें गौरी लंकेश का नाम और जुड़ गया। गौरी लंकेश की इच्छा के अनुसार मृत्यु के बाद उनकी आंखें दान कर दी गईं। इसी बात को प्रतीक बनाते हुए मैंने अगले दिन 6 सितंबर, 2017 को एक कविता लिखी।
आइए श्रद्धांजलि स्वरूप पढ़ते हैं गौरी लंकेश को समर्पित यह कविता-
गौरी लंकेश
ख़बर : गौरी लंकेश ने आँखें दान कीं
क्या ख़ूब !
अब क्या होगा
हत्यारे पहचाने जाएंगे ?
नहीं, कभी नहीं
क्योंकि वे कभी छिपे ही नहीं थे
वे तो थे हमेशा से हमारे सामने
हमारे अपने
हम में से ही एक
‘हिन्दू राष्ट्र’ का जयघोष करते हुए
बस हमारे पास आँखें नहीं थीं
गौरी जैसी आँखें
...
सुना है किसी ‘नर इंद्र ’ को लगाई जाएंगी गौरी की आँखें
सुना है कोई ‘निखिल दधीच ’ भी है लाइन में
उसने ट्विटर पर किया है आवेदन
कोई ‘जागृति ’ भी है आँखों की तलबगार
चाहता हूं इन सबको मिल जाएं आँखें
नहीं...नहीं...इसलिए नहीं कि ये ख़ुद पर शर्मिंदा हों
बल्कि इसलिए कि उनकी दुनिया में कुछ उजाला हो सके
इसलिए कि हमारी दुनिया कुछ बेहतर हो सके
...
एक गौरी की आँखें किस-किस को मिलेंगी ?
किस-किसको लगेंगी ?
कई चाहे तो मेरी आँखें ले सकता है
क्या कहा ?- इसके लिए मुझे मरना पड़ेगा !
हाँ, आँखें बंद कर जीने से तो अच्छा है
आँखें खोलकर मर जाना
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