तुर्की और नाटो साथी होकर भी रखते हैं अलग विचार
नाटो के सदस्य देश के रूप में तुर्की का सशंकित इतिहास रहा है। गठबंधन की ओर से दी जाने वाली सुरक्षा गारंटी और अपनी पश्चिमी पहचान को मजबूत करने के तरीके के खिलाफ रणनीतिक स्वायत्तता का खींचतान लगातार बढ़ रहा है। शीत युद्ध के कारण पश्चिम तुर्की को चाहता था।
ये समस्या अभी भी जारी है: क्या 1951 में तुर्की की तटस्थता से गठबंधन की तरफ रूख करना एक वास्तविक आवश्यकता थी? क्या स्टालिन ने वास्तव में तुर्की भूमि पर बुरी नजर डाली थी? क्या एक सरल यूरो-अटलांटिसिस्ट इस्मेट इनौनू के अलावा कोई अन्य केमालिस्ट नेता, जिसकी आधुनिकीकरण की अवधारणा में पश्चिम के साथ सहयोग निहित है, ने एंग्लो-अमेरिकन फरियाद के आगे घुटने टेक दिए हैं?
नाटो में तुर्की के प्रवेश की अवधि के दौरान तुर्की और सोवियत संघ के बीच संबंध अपेक्षाकृत शांत रहे। नवंबर 1951 में मॉस्को ने वास्तव में तुर्की सरकार को नाटो में भाग लेने के बाद के फैसले का विरोध करने के लिए एक विवरण जारी किया, जिसमें कहा गया था कि "यह बिल्कुल स्पष्ट है कि एक ऐसा देश जिसका अटलांटिक के साथ कोई संबंध नहीं है, अटलांटिक ब्लॉक में शामिल होने के लिए तुर्की की शुरूआत की प्रक्रिया साम्राज्यवादी राज्यों की ओर से यूएसएसआर की सीमाओं पर आक्रामक उद्देश्यों के लिए सैन्य ठिकानों की स्थापना के लिए तुर्की क्षेत्र का उपयोग करने की आकांक्षा के अलावा और कुछ नहीं हो सकता है।”
पश्चिमी दुनिया के एक अभिन्न अंग बनने की वैचारिक आकांक्षाओं - कम से कम एक सैन्य गठबंधन के ढांचे के भीतर - ने 1951 में तुर्की के फैसले में निर्णायक भूमिका निभाई, जबकि वास्तव में, तुर्की के लिए कोई सोवियत से कोई स्पष्ट खतरा नहीं था। दूसरी ओर, पश्चिम और सोवियत संघ दोनों के लिए तुर्की के भौगोलिक महत्व ने उसे पूर्व-पश्चिम संदर्भ में एक विशेष अहमियत दिया जो कि उसके श्रेय के लिए बाद के दशकों में अंकारा अपने अनुकूल स्थिति का सफलतापूर्वक लाभ उठाएगा।
दिलचस्प बात यह है कि यह जटिल इंटर-लॉकिंग कुछ मायनों में स्वीडन और फ़िनलैंड के नाटो में मौजूदा प्रवेश का डरावना प्रतिरूप है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अश्गाबात में कैस्पियन शिखर सम्मेलन से इतर गुरुवार को जब मीडिया से बात की होगी तो उन्होंने इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख किया होगा:
"नाटो शीत युद्ध का एक अवशेष है और इसका उपयोग केवल अमेरिकी विदेश नीति के एक उपकरण के रूप में किया जा रहा है जिसे अपने अधीनस्थ राज्यों को लगाम रखने के लिए डिज़ाइन किया गया है। यह इसका एकमात्र मिशन है। हमने उन्हें वह मौका दिया है, मैं इसे समझता हूं। वे अपने तथाकथित सहयोगियों को एकजुट करने के लिए इन तर्कों का ऊर्जावान और काफी प्रभावी ढंग से उपयोग कर रहे हैं।"
"दूसरी ओर, स्वीडन और फ़िनलैंड के संबंध में, हमें स्वीडन और फ़िनलैंड के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है, जैसा कि हमें दुर्भाग्यपूर्ण ढ़ंग से यूक्रेन के साथ है। हमारा उनके साथ क्षेत्रीय मुद्दे या विवाद नहीं हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है जो फिनलैंड और स्वीडन के नाटो में शामिल होने के संबंध में हमारी चिंता को बढ़ा सके। अगर वे चाहते हैं, तो वे कर सकते हैं,... उन्हें करने दें। आप जानते हैं कि निरस चीजों में हाथ डालने को लेकर भद्दे चुटकुले हैं। यही उनका काम है। वे जो चाहते हैं वो करें।"
नाटो के मैड्रिड शिखर सम्मेलन से लौटते समय तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप एर्दोगन ने कहा कि स्वीडन और फ़िनलैंड की सदस्यता के बारे में अंकारा के शर्त को हटाकर, उन्होंने तुर्की के हितों को आगे बढ़ाया और उन्होंने चेतावनी दी कि उनका परिग्रहण अभी तक किए गए सौदे से बहुत दूर है और भविष्य की प्रगति उनके द्वारा मैड्रिड में तुर्की के साथ हस्ताक्षर किए गए समझौता ज्ञापन के तहत उनके प्रतिबद्धताओं की पूर्ति पर निर्भर करेगा।
वास्तव में, स्वीडन और फिनलैंड दोनों तुर्की को व्यापक आतंकवाद विरोधी प्रमाण देने के लिए एक दूसरे पर निर्भर हैं। इस प्रमाण को औपचारिक वार्ता के खिलाफ अंकारा के वीटो वापस लेने के बदले घरेलू कानून में बदलाव की आवश्यकता है। एर्दोगन जोर देकर कहते हैं कि जो मायने रखता है वह उनकी प्रतिज्ञा नहीं है बल्कि उन प्रतिज्ञाओं को पूरा करना है।
स्वीडन और फिनलैंड दोनों के लिए घरेलू स्तर पर यह एक कठिन काम है, क्योंकि प्रतिज्ञाओं में से एक 76 कुर्दों का प्रत्यर्पण है जिन्हें तुर्की द्वारा आतंकवादी माना जाता है। यह कहा जाना आसान है, क्योंकि स्टॉकहोम और हेलसिंकी की अदालतों की "आतंकवादी" की अपनी परिभाषा हो सकती है।
नाटो स्तर पर औपचारिक रूप से नॉर्डिक देशों के प्रवेश के लिए तुर्की नेशनल असेंबली की मंजूरी आवश्यक है। कुछ अटकलें हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एर्दोगन को समझौता करने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन कोई गलती न करें, स्वीडन और फ़िनलैंड द्वारा अनुपालन के बारे में बाद की चेतावनी - साथ ही स्वीडन में पहले से ही बहस छिड़ी है- जो कि याद दिलाने वाला है कि मुद्दा अभी भी है पूरा तरह से खुला है।
आखिरकार, उत्तरी मैसेडोनिया 1995 से नाटो का भागीदार देश था और मार्च 2020 में नाटो का सदस्य बना। और ग्रीस का शर्त यह था कि नव स्वतंत्र पूर्व यूगोस्लाव गणराज्य मैसेडोनिया के रूप में पहचान बनाना चाहता था, जबकि एथेंस ने मैसेडोनिया के अपने क्षेत्र के लिए इस नाम को अपने लिए एक खतरे के रूप में देखा और अंत में ग्रीस की जीत हुई। इसकी तुलना में, तुर्की की चिंताएं स्पष्ट हैं और सीधे तौर पर उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करती हैं।
तुर्की कभी भी नाटो का "स्वाभाविक सहयोगी" नहीं था। तुर्की नाटो की रूस की नवीनतम रणनीतिक अवधारणा को "सबसे महत्वपूर्ण और प्रत्यक्ष खतरा" कितना मानता है, यह बहस का विषय है। यकीनन, तुर्की इस गठबंधन के 2010 के सिद्धांत के साथ घरेलू स्तर पर अधिक महसूस करेगा, जिसने रूस को "रणनीतिक भागीदार" कहा था। इसके लिए कुछ स्पष्टीकरण की आवश्यकता होगी।
हाल के वर्षों में एक संरचनात्मक यथार्थवादी दृष्टिकोण से तुर्की की विदेश नीतियों की बदलती गतिशीलता के एक प्रमुख व्याख्यता प्रोफेसर तारिक ओगुज़लु ने पिछले सप्ताह 'मैड्रिड एग्रीमेंट एंड द बैलेंस पॉलिसी इन टर्किश फॉरेन पॉलिसी' शीर्षक से एक विश्लेषण लिखा था, जिसे तुर्की की सरकारी समाचार एजेंसी अनादोलु द्वारा दिलचस्प तरीके से बयान किया गया था। ओगुज़लू ने दो नॉर्डिक देशों के प्रवेश को वीटो नहीं करने के तुर्की के फैसले के पीछे के तर्क को समझाया:
"तुर्की ने अपनी रणनीतिक स्वायत्तता और बहुपक्षीय विदेश नीति की समझ के कारण काफी समय पहले नाटो पर अपना दृष्टिकोण बदलना शुरू कर दिया था ... पिछले तीन वर्षों में तुर्की की विदेश नीति में यथार्थवादी बदलाव को देखते हुए, यह काफी सार्थक है कि तुर्की ने नाटो के विस्तार को वीटो नहीं किया।"
"एक ओर, पश्चिम और रूस के बीच दूसरा शीत युद्ध तुर्की की विदेश नीति में तिकड़म के लिए जगह को संकुचित करता है, जबकि दूसरी ओर, यह तुर्की के रणनीतिक महत्व को बढ़ाता है। आने वाले दिनों में तुर्की की विदेश नीति के लिए सबसे महत्वपूर्ण चुनौती अंतरराष्ट्रीय ध्रुवीकरण को गहरा करने की परिस्थिति में तुर्की की रणनीतिक स्वायत्तता-उन्मुख बहुआयामी विदेश नीति परंपराओं की सफल निरंतरता होगी।
"पश्चिम और रूस के बीच अपनाई गई संतुलन नीति ओटोमन साम्राज्य से तुर्की गणराज्य के लिए छोड़ी गई सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक विरासतों में से एक है। राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने के लिए संतुलन की नीति का पालन करना मध्यम आकार की शक्ति क्षमता वाले तुर्की के लिए यह एक रणनीतिक आवश्यकता है। यूक्रेन पर रूस के हमले की शुरुआत से लेकर अब तक तुर्की द्वारा अपनाई गई नीतियां और मैड्रिड में पिछले नाटो शिखर सम्मेलन में सामने आए रुख से पता चलता है कि इस ऐतिहासिक विरासत को अपनाया गया है और सफलतापूर्वक निष्पादित किया गया है।”
मामलों को ऐतिहासिक संदर्भ में रखने के लिए, 1920 में, मुस्तफा कमाल ने औपचारिक रूप से व्लादिमीर लेनिन से आपसी मान्यता के प्रस्ताव और सैन्य सहायता के अनुरोध के साथ संपर्क किया। बोल्शेविकों ने न केवल सकारात्मक प्रतिक्रिया दी बल्कि तुर्की राष्ट्रवादियों के बढ़ते आंदोलन के साथ अपना बहुत कुछ दे कर, उन्होंने नए तुर्की राज्य की दक्षिणी सीमाओं को मजबूत करने में मदद की। 1920 से 1922 की अवधि में अतातुर्क को सोवियत रूस की सैन्य सहायता लगभग 80 मिलियन लीर (तुर्की की करेंसी) थी जो कि तुर्की के रक्षा बजट से करीब करीब दोगुना था!
1921 में मास्को में दोनों पक्षों ने "मैत्री और भाईचारे की संधि" की, जिसने केमालिस्टों और बोल्शेविकों के बीच क्षेत्रीय विवादों को हल किया। उस समय की स्थापित तुर्की की उत्तर-पूर्वी सीमा आज भी अपरिवर्तित है।
हालांकि, मास्को और अंकारा दोनों ने समझा कि तुर्की राष्ट्रवादियों और रूसी कम्युनिस्टों के बीच सहयोग अल्पकालिक होगा। इसके तुरंत बाद, तुर्की ने मास्को के कैम्प को छोड़ दिया, कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया और नाजी आक्रमण के दौरान, सोवियत काकेशस पर आक्रमण करने के अवसर तलाशने की कोशिश करती यदि लाल सेना के हार जाती। फिर भी, अतातुर्क उस सहायता को कभी नहीं भूले जो सोवियत रूस ने उनकी ज़रूरत के समय में दी थी।
वर्तमान समय के संदर्भ में तुर्की और स्वीडन व फिनलैंड के साथ अमेरिका के तिकड़म को समझने के लिए एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता है। बाइडेन राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन के नक्शेकदम पर चल रहे हैं। वाशिंगटन ने स्वीडन और फिनलैंड को नाटो में शामिल करने के लिए उसी शीत-युद्ध की रणनीति का इस्तेमाल किया है जैसा कि उसने 70 साल पहले तुर्की के संबंध में किया था।
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