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उत्तरप्रदेश: मेंथे की खेती में अब पैसे नहीं, किसानों का सरकार पर अनदेखी का आरोप  

उत्तर प्रदेश में मेंथा की खेती ने अपना आकर्षण इसलिए खो दिया है, क्योंकि किसान स्थिर मूल्य, एमएसपी और सरकारी समर्थन के बिना ही संघर्ष कर रहे हैं।
Uttar Pardesh West

बदायूं/बाराबंकी/जालौन (यूपी): सरकार की उदासीनता के चलते मेंथा तेज़ी से अपनी आकर्षक सुगंध खोती जा रही है। उच्च निवेश लागत और समर्थन मूल्य की कमी ने उन किसानों के फ़ायदे में सेंध लगा दी है, जो पहले से ही अपनी आय बढ़ाने को लेकर संघर्ष कर रहे हैं।

उन्हें अन्य बाधाओं के साथ-साथ बिजली आपूर्ति की समस्या, डिस्टिलेशन यूनिट की ख़राब गुणवत्ता, अक्षम प्रसंस्करण प्रौद्योगिकी, जलवायु परिवर्तन, बाज़ार को लेकर अपर्याप्त जानकारी और निर्यात बाज़ार को लेकर जागरूकता की कमी का सामना करना पड़ रहा है।

बदाऊं के इकराम नगर के एक किसान अशफ़ाक अली कहते हैं, “वे दिन चले गये जब मेंथा की खेती किसानों को ज़्यादा फ़ायदा देती थी। डीज़ल और उर्वरकों की आसमान छूती क़ीमतों और तक़रीबन स्थिर ख़रीद मूल्य के साथ निवेश लागत बहुत ज़्यादा हो गयी है, जिसका नतीजा यह हुआ है कि लाभ में भारी गिरावट आ गयी है।”

8.33 एकड़ में मेंथा की खेती करने वाले यह किसान फ़सल की अर्थव्यवस्था के बारे में कहते हैं, “दवा में काम आने वाली इस फ़सल की एक एकड़ में खेती पर 15,000-20,000 रुपये के निवेश की ज़रूरत होती है। डिस्टिलेशन के बाद इस फ़सल से लगभग 40 लीटर मेंथा तेल का उत्पादन हो पाता है। यह व्यापारियों को 38,000 रुपये (950 रुपये प्रति लीटर) में बेचा जाता है। पहले, जब लागत कम होती थी (10,000 रुपये से 15,000 रुपये प्रति एकड़), तो फ़ायदा 55,000-60,000 रुपये प्रति एकड़ के बीच होता था।”

इस साल मानसून के पहले के मौसम में हुई भारी बारिश भी आपदा की तरह आयी थी। इस साल मई में हुई बेमौसम भारी बरसात ने मेंथा की तैयार फ़सल को बर्बाद कर दिया था। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के मुताबिक़, यह महीना पिछले 121 सालों में दूसरा सबसे गर्म मई था।

बाराबंकी ज़िले के सूरतगंज प्रखंड स्थित टंडी गांव के रहने वाले अनिल वर्मा भी प्रकृति की इस चपेट में आने वालों में शामिल हैं। वह न्यूज़क्लिक से कहते हैं, “मैंने चार एकड़ ज़मीन पर मेंथा बोया था। लेकिन, लगातार बारिश से खेत में पानी भर गया, जिससे फसल सड़ गयी। मेरी तीन एकड़ फ़सल ख़राब हो गयी। फ़यादे होने की बात तो छोड़ ही दीजिए, फ़सल उगाने में होने वाली लागत की वसूली हो जाये, इतनी भी फ़सल नहीं है।"

बदायूं के पास शेखूपुर के अमीर रियाज़ की भी फ़सल भी ख़राब हो गयी और उन्हें लगभग 2,500 रुपये का नुक़सान हो गया। उन्होंने 9,500 रुपये ख़र्च कर एक एकड़ ज़मीन पर मेंथा की खेती की थी। प्रतिकूल मौसम ने फ़सल को नष्ट कर दिया और 30 लीटर से ज़्यादा की अनुमानित मात्रा के मुक़ाबले उत्पादन घटाकर 10.5 लीटर हो गया।

रियाज़ कहते हैं, “मैंने इसे 680 रुपये प्रति लीटर की दर से बेचा। कुल फ़ायदा 7,140 रुपये का था, यानी 2,360 रुपये का नुक़सान उठाना पड़ा।”

रायबरेली ज़िले के ग्राम बेंगी के आशीष यादव कहते हैं कि उपज बहुत अच्छी थी, लेकिन मौसम के चलते पैदा होने वाली स्थितियों ने सारा खेल ही बिगाड़ दिया; वह भी लागत वसूल नहीं कर सके।

मेंथा की खेती रबी और ख़रीफ़ मौसम के बीच की अवधि के दौरान की जाती है। यह आम तौर पर मार्च-अप्रैल के आसपास बोया जाता है और जून-जुलाई में काटा लिया जाता है। मेंथा की खेती के समय खेत खाली रहता है। ऐसे में किसानों को तिहरी खेती कर पाते है।

मेंथा के तेल का इस्तेमाल टूथपेस्ट, माउथ फ़्रेशनर, दवा, पेय, माउथवॉश, च्युइंग गम, भोजन के अंत में परोसे जाने वाले मीठे पदार्थों, मिठाई और कई कॉस्मेटिक वस्तुओं के निर्माण में औद्योगिक निवेश के रूप में किया जाता है। पुदीने की पत्तियों का इस्तेमाल पेय पदार्थ, जेली के अलावा पान मसाला और गुटखा बनाने वाले उद्योगों में किया जाता है।

इसके तेल की शुद्धता के परीक्षण के लिए बदायूं में एक प्रयोगशाला चलाने वाले ख़ालिद रियाज़ कहते हैं कि इसकी क़ीमत में उतार-चढ़ाव इसलिए बना रहता है, क्योंकि यह मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज (MCX) के साथ पंजीकृत है। जहां मेंथा के तेल की क़ीमत 950 रुपये प्रति लीटर है, वहीं इसकी वैरायटी-सुगंधित तेल की क़ीमत 2,500-3,000 रुपये प्रति लीटर है।

रियाज़ आगे कहते हैं, "पैराफ़िन या तारपीन के तेल को मिलाकर इसमें मिलावट करना बहुत आसान होता है। व्यापारी इसे तभी खरीदते हैं, जब एक पंजीकृत प्रयोगशाला व्यापारियों की ओर से दिये गये नमूने का शुद्धता प्रमाण पत्र जारी कर देती है।”

भारत में इसकी खेती 300,000 हेक्टेयर भूमि में की जाती है,जिससे हर साल 30,000 मीट्रिक टन मेंथा का उत्पादन होता है।भारत वैश्विक बाज़ार का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है। यह यूरोप और चीन सहित दुनिया भर के लगभग 73 देशों को इसका निर्यात करता है।

भारत में हो रहे कुल मेंथा उत्पादन का तक़रीबन 90% उत्तर प्रदेश पैदा करता है। निर्यात बाज़ार में बढ़ती मांग और लाभकारी क़ीमतों ने इस राज्य में मेंथा की खेती को बढ़ावा दिया है।

राज्य के बाग़वानी और खाद्य प्रसंस्करण विभाग के मुताबिक़ पुदीने की खेती 88,000 हेक्टेयर भूमि में फैली हुई है। जहां अकेले बदायूं कुल उत्पादन में लगभग 30% का योगदान देता है, वहीं बाराबंकी की हिस्सेदारी 25-33% के बीच है।

विभाग का कहना है, "भारत ने विश्व बाज़ार में पुदीने के तेल और मेन्थॉल के प्राथमिक और प्रमुख स्रोत वाला स्थान हासिल कर लिया है, (कम) मूल्य संरचना और तुलनीय गुणवत्ता के चलते भारत ने काफ़ी हद तक चीन की जगह ले ली है।"

बदायूं के लगभग 5 लाख किसान अपनी कमाई के प्रमुख स्रोत के रूप में मेंथा उगाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि आवारा पशुओं से इस फ़सल को कोई नुक़सान नहीं होता है।

इस नक़दी फ़सल की खेती मुरादाबाद, रामपुर, बरेली, पीलीभीत, लखीपुर खीरी, बदायूं, सीतापुर, बाराबंकी, शाहजहांपुर, बहराइच, अंबेडकर नगर, चंदौली और वाराणसी जैसे ज़िलों में की जाती है।

कोई सरकारी मदद नहीं

बदायूं स्थित प्रकाश केमिकल्स के सीईओ प्रतीश गुप्ता बताते हैं कि यह उद्योग आत्मनिर्भर था और इसने सरकार से कोई मदद नहीं ली।वह कहते हैं, "सरकार इस उद्योग से अधिकतम राजस्व उगाहना चाहती है। किसानों को सरकार को 12% GST देना होता है। अब सरकार आरसीएम (रिवर्स चार्ज मैकेनिज्म) लेकर आयी है। जहां जीएसटी के तहत बिक्री पर कर लगाया जाता है, वहीं आरसीएम ख़रीद पर भी कर लगाता है। किसानों से पुदीना ख़रीदते समय हमारे ऊपर कर की देनदारी होती है। नतीजतन, हम पर दोहरी कर देनदारी होती है।"

उन्होंने आगे कहा कि सरकार मेंथा के लिए दोहरी नीति का पालन करती है,यानी कि इसे जीएसटी के तहत एक औद्योगिक उत्पाद के रूप में माना जाता है, जबकि जब मंडी टैक्स की बात की आती है, तो यह कृषि उत्पाद बन जाता है।

मंडी कर दरअस्ल तकनीकी रूप से कर नहीं, बल्कि कृषि उपज की ख़रीद और बिक्री पर लगने वाला शुल्क है। लेकिन,इसे मंडी टैक्स के रूप में इसलिए जाना जाता है, क्योंकि राज्य और केंद्र शासित प्रदेश इसे लगाने के लिए संविधान के तहत मिली अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हैं। मंडी शुल्क या मंडी कर कृषि थोक बाज़ार, एपीएमसी चलाने का ख़र्च वापस पाने के लिए वहां लगाया जाता है, जहां किसानों को खरीदारों से अच्छी क़ीमत मिलती है।

“सवाल यह है कि अगर यह कृषि उपज है, तो उस पर जीएसटी क्यों लगाया जाता है ? और अगर यह एक औद्योगिक उत्पाद है, तो इस पर मंडी कर क्यों  ?” यह सवाल यह आरोप लगाते हुए वह पूछते हैं कि मेंथा के 100% निर्यातोन्मुख उत्पाद होने के बावजूद सरकार ने इसके उत्पादन, प्रसंस्करण और निर्यात को बढ़ावा देने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिया है।

गुप्ता आगे कहते हैं,"इसके अलावा, इसके निर्यात के लिए कोई ग्रीन चैनल नहीं है।"

कुल निवेश पर 25% की सरकारी सब्सिडी के बारे में पूछे जाने पर उनका कहना है कि यह सिर्फ़ एक दिखावा है और वह भी उन किसानों के लिए, जिन्हें कभी ऐसी कोई वित्तीय सहायता मिली ही नहीं।

वह इसे इस तरह समझाते हैं, “भारतीय रिज़र्व बैंक सबसे कम ब्याज़ दर पर कृषि का वित्तपोषण करता है। चूंकि मेंथा तेल को एक औद्योगिक उत्पाद के रूप में इसलिए भी माना जाता है, क्योंकि इसे एक यांत्रिक प्रक्रिया के ज़रिये संसाधित किया जाता है और निकाला जाता है, इसलिए हमें रेपो दर पर 1.5% की दर से क़र्ज़ मिलता है।”

सरकार कुल निवेश का 25% या क्रमशः 1.25 लाख रुपये और 5 लाख रुपये,इनमें से जो भी कम हो,इसके लिए छोटी और बड़ी मेंथा इकाइयों को क्रेडिट लिंक्ड बैक एंडेड सब्सिडी देती है।

जैसा कि दावा किया जाता है कि इस सब्सिडी में क्रमशः 85% और 15% का केंद्रीय और राज्य घटक है। एक अन्य योजना उन मेंथा किसानों को खेती के लिए है,जिसमें प्रति हेक्टेयर 11,250 रुपये की सब्सिडी मिलती है, जो अधिकतम चार हेक्टेयर में खेती करते हैं।

इस बीच राज्य सरकार ने मेंथा किसानों और उद्यमियों को प्रशिक्षण देने के लिए लखनऊ स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिसिनल एंड एरोमैटिक प्लांट्स (CIMAP) के साथ हाथ मिला लिया है। देश में इस्तेमाल होने वाले मेंथा की चार उन्नत क़िस्मों-सक्षम, हिमालय, कुशल और कोसी को विकसित करने का श्रेय इसी सीआईएमएपी को जाता है।

सीआईएमएपी से जुड़े एक अधिकारी का दावा है,“हम मेंथा की खेती और मेंथा तेल के उत्पादन में शुरू से अंत तक प्रशिक्षण मुहैया कराते हैं। इसके अलावा, हम मेंथा तेल के विपणन की सुविधा भी देते हैं।”

बाग़बानी विभाग का भी कहना है कि वह छोटी-छोटी डिस्टिलेशन प्रोसेसिंग यूनिट लगाकर किसानों को प्लांट से मेंथा का तेल निकालने का प्रशिक्षण देता है। लेकिन, ज़मीनी हक़ीक़त इन दावों से कोसों दूर है। एक भी किसान ने न्यूज़क्लिक को यह नहीं बताया कि उन्होंने कभी ऐसा कोई प्रशिक्षण लिया है।

उन्होंने चीनी और जर्मन कंपनियों की ओर से भारतीय बाज़ार में कृत्रिम मेन्थॉल की कथित डंपिंग पर सरकार को आग़ाह किया है। गुप्ता हालात को भांपते हुए कहते हैं,“सरकार ने आंखें मूंद ली हैं। अगर इस पर लगाम नहीं लगायी गयी, तो यह उद्योग जल्द ही आख़िरी सांस लेगा।"

उनका कहना है कि आधुनिक सिंचाई प्रणाली, नवीनतम प्रौद्योगिकी और अनुसंधान और विकास की कमी के चलते यह फ़सल अपनी चमक खोने लगी है।

इस फ़सल का एक नकारात्मक पहलू यह है कि इसे ज़्यादातर कृषि फ़सलों के मुक़ाबले  कहीं ज़्यादा पानी की ज़रूरत होती है। सूखाग्रस्त बुंदेलखंड जैसे इलाक़े में नहर और तालाबों जैसे सिंचाई के वैकल्पिक स्रोत के अभाव में यह फ़सल तेज़ी से भू-जल को ख़ाली किये जा रही है।

मेंथा के पौधों की जड़ें मिट्टी में गहराई तक नहीं जाती हैं; इसलिए, इसे तीन महीनों में 18 से 22 बार सिंचाई की ज़रूरत होती है। गोरखपुर एनवायर्नमेंटल एक्शन ग्रुप के एक अध्ययन के मुताबिक़, एक किलोग्राम मेन्थॉल का उत्पादन करने के लिए तक़रीबन 1,75,000 लीटर पानी की ज़रूरत होती है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

UP: Mentha not Minting Money Anymore, Farmers Allege Govt Neglect

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