विचार: क्या हम 2 पार्टी सिस्टम के पैरोकार होते जा रहे हैं?
उत्तर प्रदेश में चुनाव में अपनी पार्टी की हार के लिए मायावती मुसलमानों को दोषी ठहरा रही हैं, तो समाजवादी गठबंधन बीजेपी की जीत में मायावती का हाथ मान रहा है। तो कोई ओवैसी की AIMIM को इसके लिए कोस रहा है। इसमें बहुत कुछ सच भी हो सकता है, और झूठ भी। थोड़ी हक़ीक़त—थोड़ा फ़साना। लेकिन दूसरे संदर्भों में मेरा मानना है कि चुनाव में जितने भी दल और लोग शामिल हों उतना अच्छा है। हम क्यों चाहते हैं कि दो पार्टी या दो गठबंधन बनकर ही चुनाव लड़ा जाए। और इस तरह के गठबंधनों का हश्र भी हमने देख लिया है। यूपी में ही 2019 लोकसभा चुनाव में एसपी+बीएसपी और 2017 विधानसभा में एसपी+कांग्रेस गठबंधन का प्रयोग हो चुका है। लेकिन सफलता नहीं मिली।
इसी चुनाव में पंजाब में बहुकोणीय मुकाबला हुआ और आम आदमी पार्टी पूर्ण ही नहीं प्रचंड बहुमत लेकर सत्ता में आ गई। इसी तरह दिल्ली में 2020 के चुनाव के समय बीजेपी की ताक़त और प्रचार को देखते हुए तमाम प्रगतिशील साथी भी यह चाहते थे आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन हो जाए, यानी वोट न बंटे, लेकिन बिना गठबंधन के तीन पार्टियों के मुकाबले में आप ने एक बार फिर स्पष्ट ही नहीं प्रचंड बहुमत हासिल किया।
इसलिए बीजेपी को हराने के लिए कोई गठबंधन ही ज़रूरी नहीं है, बल्कि आपका काम, आपकी मेहनत और इच्छा शक्ति बहुत ज़रूरी है।
मैं यहां कुछ दिलचस्प उदाहरण आपके सामने रखना चाहता हूं। मैं बिजनौर ज़िले से आता हूं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस बिजनौर ज़िले में 8 विधानसभा सीट हैं। 1. बिजनौर शहर, 2. नगीना (सुरक्षित), 3. नजीबाबाद, 4. नहटौर, 5. धामपुर, 6. चांदपुर, 7. बढ़ापुर, 8. नूरपुर।
2017 में यहां 6—2 का स्कोर था। यानी 6 पर बीजेपी और 2 पर समाजवादी पार्टी। इस बार यहां 4-4 का स्कोर है। यानी 4 पर बीजेपी और 4 पर समाजवादी गठबंधन।
बिजनौर शहर की सीट बीजेपी इस बार बचाने में कामयाब रही। लेकिन बहुत कम मार्जिन से। यहां से वही सुची मौसम चौधरी दोबारा विधायक चुनी गईं हैं जो पिछले दिनों नारियल से सड़क तोड़ने के मामले में बहुत चर्चित रही हैं। जी हां, आपने चुनाव से पहले ख़बर देखी होगी कि विकास कार्य के तहत एक सड़क के उद्घाटन के समय विधायक सुची चौधरी ने जब सड़क पर नारियल तोड़ना चाहा तो नारियल तो नहीं टूटा, लेकिन सड़क ज़रूर टूट गई। तो यह था बिजनौर और बीजेपी के विकास का मॉडल। लेकिन बीजेपी और सुची चौधरी फिर जीत गईं।
लेकिन जहां 2017 में उन्होंने समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार पर 27 हज़ार से ज़्यादा वोटों से जीत हासिल की थी वहीं इस बार वे गठबंधन उम्मीदवार (आरएलडी) से बामुश्किल 1445 वोटों से जीतीं। दिलचस्प यह है कि पिछली बार जो समाजवादी पार्टी से प्रत्याशी थीं, रुचि वीरा, वे इस बार ये सीट गठबंधन के तहत आरएलडी के खाते में जाने से बीएसपी से टिकट ले आईं और 50 हज़ार से ज़्यादा वोट हासिल कर लिए। इस बार बीजेपी की सुचि ने 97,165, आरएलडी के डॉ. नीरज चौधरी ने 95,720 और बीएसपी की रुचि वीरा ने 52,035 वोट हासिल किए। ओवैसी की AIMIM को मिले 2,290 वोट। चार्ट देखिए—
अब आप इस मामले में किसे हार-जीत के लिए दोषी ठहराएंगे। बीएसपी को या AIMIM को। यहां तीनों बड़ी पार्टियों से हिंदू उम्मीदवार हैं। दो जाट और एक बनिया। तो क्या जाटों का वोट बंटा। क्योंकि मुसलमानों ने तो AIMIM को स्वीकार नहीं किया। उसे महज 2,290 वोट मिले। वैसे अगर मुसलमान AIMIM को स्वीकार भी कर लें तो भी हमें शिकायत नहीं करनी चाहिए क्योंकि हमने तो खुलेआम एक ‘हिंदू पार्टी’ को चुन लिया है। अब अगर यही मुसलमान करना चाहें तो हम क्यों डरना चाहिए, क्यों शिकायत करनी चाहिए।
कुछ और आंकड़ें देख लें। यह आंकड़ें विभिन्न मीडिया ग्रुप से जुटाए गए हैं।
कुल मतदाता 375497
पुरुष मतदाता 197150
महिला मतदाता 178347
जाति मतदाता
मुस्लिम 1.25 लाख
जाट 50 हजार
दलित 50 हजार
सैनी 35 हजार
पाल 15 हजार
कश्यप 13 हजार
राजपूत 10 हजार
वैश्य 10 हजार
बंगाली 8 हजार
प्रजापति 4 हजार
ब्राह्मण 5 हजार
जोगी 3 हजार
बिजनौर में दूसरे दौर में 14 फरवरी को मतदान हुआ था। मतदान का प्रतिशत 2017 की अपेक्षा कम रहा। बिजनौर शहर की सीट पर 2017 में 67.67 प्रतिशत मतदान हुआ, जबकि इस बार (2022) 65.68 प्रतिशत मतदान रहा।
अब इन आंकड़ों से आप क्या समझते हैं। आप किसी की जीत या हार के लिए किसे दोषी या जिम्मेदार ठहराएंगे। तीनों बड़ी पार्टियां और प्रत्याशी अपनी पूरी ताक़त से लड़े और हार-जीत का फैसला बहुत क़रीबी रहा। 2017 में रुचि वीरा ने समाजवादी पार्टी से 78,267 वोट हासिल किए थे और बीएसपी उम्मीदवार ने उस समय भी करीब 50 हज़ार (49,788) वोट हासिल किए थे। अन्य के खाते में भी 12 हज़ार से ज़्यादा वोट गए थे। लेकिन उस समय बीजेपी की सुची चौधरी की जीत का अंतर अपनी निकटतम प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी की रुचि वीरा से 27 हज़ार से ज़्यादा था, लेकिन इस बार उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी गठबंधन के डॉ. नीरज चौधरी से महज़ 1445 वोटों से जीत हासिल की।
इस तरह की करीबी लड़ाई में इस बार बिजनौर शहर में बीजेपी को फ़ायदा हुआ तो इसी ज़िले की चांदपुर सीट पर समाजवादी पार्टी फ़ायदे में रही।
चांदपुर विधानसभा सीट से समाजवादी पार्टी के स्वामी ओमवेश ने भारतीय जनता पार्टी की कमलेश सैनी को महज़ 234 वोटों के अंतर से हराया।
यहां की दो अन्य सीटों पर ही इसी तरह बेहद करीबी हार-जीत हुई।
नहटौर (सुरक्षित) विधानसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी से ओम कुमार ने आरएलडी के मुंशी राम को 258 वोटों के अंतर से हराया।
इसी तरह धामपुर सीट पर भारतीय जनता पार्टी के अशोक कुमार राणा ने समाजवादी पार्टी के नईमुल हसन को 203 वोटों के मार्जिन से हरा दिया।
आप यह कह सकते हैं कि बेहद करीबी लड़ाई में बीजेपी को ज़्यादा फ़ायदा हुआ और गठबंधन को नुक़सान। यह सच है, लेकिन यहां बिजनौर शहर के उलट मैं एक और उदाहरण आपके सामने रखूंगा। बिजनौर ज़िले की ही नजीबाबाद सीट का। यहां तीन दशक से कमल नहीं खिला है। यहां से कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई-एम) के मास्टर रामस्वरूप कई बार विधायक रहे हैं। वह तीन चुनाव लगातार जीते। 1993 में जनता दल गठबंधन के साथ वह चुनाव जीते तो 2002 गठबंधन न होने के बावजूद। हालांकि इस बार मुलायम सिंह ने गठबंधन न होने के बावजूद उनके खिलाफ अपना प्रत्याशी नहीं उतारा, लेकिन यह उनकी लोकप्रियता ही थी, उनका काम ही था कि जिसका सम्मान अन्य दल के नेता भी करते थे। जिंदगी भर वे बेहद सादगी और ईमानदारी से जिये।
पिछली तीन बार से यानी 2012 से तसलीम अहमद यहां चुनाव जीत रहे हैं। 2012 में वे बीएसपी के टिकट पर जीते लेकिन 2017 में उन्होंने समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीत हासिल की।
इस बार भी समाजवादी पार्टी ने तसलीम अहमद को उम्मीदवार बनाया उन्होंने एक बार फिर बाज़ी मार ली। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि यहां बीजेपी को छोड़कर तीनों बड़ी पार्टियों समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस तीनों से मुस्लिम उम्मीदवार खड़े थे। उसके अलावा निर्दलीय में भी मुस्लिम उम्मीदवार थे। बावजूद इसके समाजवादी पार्टी ने जीत हासिल की। जबकि चुनाव पूर्व मोटे गणित के हिसाब से कहा जा रहा था कि बीजेपी का अकेला हिंदू उम्मीदवार आराम से सीट निकाल लेगा। बीजेपी ने यहां अपने पूर्व सांसद कुंवर भारतेंद्र सिंह को उम्मीदवार बनाया था। लेकिन समाजवादी के तसलीम ने उन्हें 23 हज़ार से ज़्यादा वोटों से हराया। जबकि बीएसपी के शाहनवाज आलम ने भी करीब 45 हज़ार वोट हासिल किए। कांग्रेस के मोहम्मद सलीम अंसारी ने भी 2 हज़ार के करीब वोट पाए। चार्ट देखिए—
अब यहां हिंदू-मुस्लिम का गणित बीजेपी के उम्मीदवार के पक्ष में होते हुए भी समाजवादी पार्टी ने अपनी यह सीट बरकरार रखी।
यह बात समझने के लिए एक और सीट का ज़िक्र करना चाहूंगा, वो है सिवालखास सीट। सिवालखास मेरठ ज़िले का हिस्सा है, लेकिन विधानसभा, संसदीय क्षेत्र बागपत में आती है।
सिवालखास सीट को इस बार आरएलडी ने भाजपा से छीन लिया। इस सीट पर आरएलडी के पुराने बुजुर्ग नेता गुलाम मोहम्मद ने भाजपा के मनिंद्रपाल सिंह को कांटे के मुकाबले में 9495 वोटों से हराया। यह सीट एक समय आरएलडी का गढ़ मानी जाती थी लेकिन पिछले तीन विधानसभा चुनाव से बसपा, सपा और भाजपा इस सीट पर कब्ज़ा करती रही है, लेकिन इस बार सपा के साथ गठबंधन में आरएलडी ने इस पर फिर वापसी की है। जबकि यहां बसपा ने भी मुस्लिम उम्मीदवार दिया था। बसपा के मुकर्रम अली उर्फ़ नन्हें खां तीसरे स्थान पर रहे। मुकर्रम ने यहां करीब 30 हज़ार वोट पाए। AIMIM ने भी यहां उम्मीदवार दिया था। AIMIM के प्रत्याशी ने 3019 वोट हासिल किए। देखें चार्ट-
किसी भी चुनाव में कई चीज़ें एक साथ काम करती हैं। धर्म-जाति तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन काम भी महत्वपूर्ण होता है। तभी तो कई जगह बड़े-बड़े दिग्गजों को हराकर निर्दलीय उम्मीदवार भी चुनाव जीत जाते हैं। इसलिए हार-जीत का कोई एक कारण कभी नहीं होता, बल्कि कई कारण मिलकर किसी उम्मीदवार या पार्टी की हार जीत तय करते हैं। जैसे इसी बार कहा जा रहा है कि अखिलेश यादव थोड़ा पहले और मैदान में उतर जाते, थोड़ी और मेहनत कर लेते, थोड़ा जनता के मुद्दों पर और ध्यान लगाते, थोड़ा प्रत्याशियों के चयन में और ध्यान देते, तो शायद इस बार विधानसभा की तस्वीर कुछ और ही होती। लोग लिख तो रहे हैं कि 5 साल का सिलेबस 4 महीने में पूरा नहीं होता। हो भी जाए तो आप पास तो हो सकते हो लेकिन फर्स्ट डिवीजन नहीं पा सकते। और इसी की तस्दीक उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजे कर रहे हैं।
इसलिए मैं पहली वाली बात दोहराता हूं कि हमें 2 पार्टी सिस्टम का पैरोकार नहीं बनना चाहिए और भारत जैसे बड़े और विविधता पूर्ण देश में तो बिल्कुल भी नहीं। दो या तीन पार्टियां सभी क्षेत्र और जाति-वर्ग-समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रहीं थी तभी तो क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हुआ। कला हो या संस्कृति या फिर राजनीति, मैं तो इसी बात का कायल हूं कि “सौ फूलों को खिलने दो—सौ विचारों में होड़ होने दो”, हां बस इसमें इतना और जोड़ना चाहूंगा कि जी-जान से लड़िए, लेकिन यह लड़ाई आम लोगों की बेहतरी के लिए हो, सत्ता की गोद में बैठकर उसके षडयंत्रों को आगे बढ़ाने के लिए नहीं। किसी पार्टी की बी या सी टीम बनकर किसी को हराने या अपने मतदाताओं को ठगने या छलने के लिए नहीं हो। क्योंकि अंतत: एक दिन आप खुद ही अप्रासंगिक हो जाते हैं। मगर हां, तब तक एक देश और समाज के लिहाज़ से बहुत देर और नुक़सान हो चुका होता है।
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