बदल रही है भारतीय-अमेरिकी पहचान
अमेरिका में नवंबर में होने वाले चुनाव में राष्ट्रपति पद के डेमोक्रेटिक उम्मीदवार, जो बाइडेन की उपराष्ट्रपति के तौर पर अपने साथी सीनेटर कमला हैरिस का चुनाव कई पैमाने पर एक असाधारण घटनाक्रम बन गया है। घुटे हुए राजनीतिज्ञ, बाइडेन का यह चुनाव बहुत ही सोच विचार कर किया जाने वाला एक ऐसा चुनाव है, जिससे उनके चुनाव अभियान में गंभीरता आयेगी और यह इस चुनाव को एक अहम चुनावी मोड़ देने वाला भी साबित होगा।
सीएनएन की एक रिपोर्ट में कमला हैरिस की बाइडेन की पसंद बनने के पीछे के कारकों को कुछ इस तरह से सूचीबद्ध किया गया है:
• 2020 में ख़ुद के चुनाव को लेकर जिस तरह से उनका राष्ट्रीय मंच पर प्रदर्शन रहा है;
• कैलिफ़ोर्निया के अटॉर्नी जनरल के रूप में और 2017 से अमेरिकी सीनेटर के रूप में उनके पास सरकार का हिस्सा होने का अनुभव है;
• 55 साल की उम्र में वह एक युवा पीढ़ी के नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करती हैं-2021 में सत्तारोहण के दिन जो बाइडेन 78 साल के हो जायेंगे, बाइडेन के मुताबिक़ उनकी पसंद का यह एक अहम कारक था;
• उनका चुनाव इसलिए भी ऐतिहासिक है,क्योंकि किसी प्रमुख पार्टी के इस तरह राष्ट्रीय नामांकन के लिए चुने जाने वाली वह पहली अश्वेत और दक्षिण एशियाई अमेरिकी महिला हैं;
• वह उस कैलिफ़ोर्निया से है, जो डेमोक्रेटिक वोटों और डेमोक्रेटिक फंड देने वालों, दोनों ही लिहाज से एक बड़ा गढ़ है; और,
• वह मई में जॉर्ज फ़्लॉयड की मौत के बाद नस्लवाद के ख़िलाफ़ और पुलिस सुधार की ज़रूरतों और फिर देश भर में हुए विरोध प्रदर्शनों की एक मुखर आवाज़ बनकर उभरी थीं।
सीधे-सीधे शब्दों में कहा जाये, तो बाइडेन को लगा कि यह एक ऐसा चुनाव है, जिसमें जीत लगभग पक्की है; यह एक ऐतिहासिक घटनाक्रम है; यह चुनाव प्रगतिशील नीतियों के लिए एक व्यापक गुंज़ाइश बनाता है; और कोई शक नहीं कि अनिवार्य रूप से यह बाइडेन की उम्मीदवारी को लेकर बहुत कुछ कहता है, जो हर लिहाज से फ़ायदेमंद है। लेकिन, वहीं राष्ट्रपति ट्रम्प ने कमला हैरिस के नामांकित किये जाने पर प्रतिक्रिया देते हुए अप्रत्याशित रूप से अपनी सीमित शब्दावली में जिस निकृष्टतम वाक्यांश का इस्तेमाल किया है, वह है उनका (अमेरिकी राजनीतिक परिदृश्य में) "धुर वामपंथ" से जुड़ा होना।
हालांकि, एक भारतीय के रूप में जो मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित करता है, वह यह कि कमला हैरिस का यह नामांकन देश के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को लेकर संघ परिवार और व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ़ से चलाये जा रहे उनके बदल दिये जाने वाले एजेंडे के सिलसिले में नुकसानदेह होगा। कमला हैरिस न सिर्फ़ प्रगतिशील हैं,बल्कि उन मूल्यों और आदर्शों का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्हें संघ परिवार के प्रतिकूल माना जाता है और 2014 में सत्ता में आने के बाद के छ: वर्षों में मोदी सरकार ने जिन मूल्यों को ख़त्म करने के लिए कड़ी मेहनत की है, उस रूप में कमला हैरिस उनके रास्ते की अड़ंगा बन सकती हैं।
टेक्सास के ह्यूस्टन में हाउडी मोदी नाम से जो पिछले साल सितंबर में एक भौंडा तमाशा किया गया था, वह अब भारी अड़चन बन चुका है। किसी लोक कथा में वर्णित रंग-बिरंगे कपड़े में सजे एक बंसी बजाने वाले की तरह भारतीय-अमेरिकी दर्शकों को यह मानकर मोदी ने संबोधित किया था कि भारतीय-अमेरिकी प्रवासी के पास अपना कोई दिमाग़ नहीं है। सही मायने में ऐसा करना अमेरिकी घरेलू राजनीति में एक अनुचित हस्तक्षेप था। और यह हस्तक्षेप अमेरिकी राजनीतिक परिदृश्य में व्यापक बदलाव की हवाओं के प्रवाह को लेकर एक गहरी त्रुटिपूर्ण समझ से पैदा हुआ था।
कमला हैरिस और तक़रीबन सभी अन्य भारतीय मूल के डेमोक्रेट ने टेक्सास में आयोजित उस हाउडी मोदी कार्यक्रम का बहिष्कार किया था। इस बहिष्कार के पीछे का एक कारण तो मोदी के साथ पोडियम पर ट्रम्प की मौजूदगी थी। दूसरा अहम कारक, पिछले महीने ही भारत के जम्मू और कश्मीर में सुरक्षा को लेकर वह क़ानूनी कार्यवाही और संचार की नाकाबंदी थी, जिसे प्रगतिवादियों और उदार डेमोक्रेट्स के बीच पसंद नहीं किया जाता है। इस अशांत घाटी में नई दिल्ली की विवादास्पद कार्रवाई के सात हफ़्ते बाद मोदी के साथ किसी मंच साझा करना उनकी सरकार की कश्मीर नीति के निहित समर्थन के रूप में देखा जायेगा।
भारतीय सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के कट्टर समर्थकों ने हाउडी मोदी तमाशे की ज़बरदस्त जय-जयकरार लगायी थी। कुछ ने तो यह भी तर्क देने की कोशिश की थी कि हिंदुत्व की विचारधारा वैश्विक आकार ले रही है! एक हास्यास्पद अवधारणा इस बात को स्थापित करने के लिए तैयार की गयी थी कि हिंदुत्व को हमारे देश में दिलचस्पी लेने वाले अमेरिकियों की ओर से "भारतीय दर्शन के आधार" के रूप में देखा जा रहा है।
उनमें इस बात को लेकर ग़ज़ब की उम्मीद थी कि हाउडी मोदी डेमोक्रेट के 'प्लान बी' के बीच जम्मू-कश्मीर (और उत्तर-पूर्व) में मोदी सरकार के कार्रवाइयों के ख़िलाफ़ विचारों के ज्वार को थामने वाला एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है और अगर ट्रम्प अगले साल फिर से राष्ट्रपति चुन लिये जाते हैं, तो अमेरिका के साथ निरंतर और बेहतर सम्बन्ध बने रह सकते हैं, जिसे मोदी बहुत अच्छे तरीक़े से भुना सकते हैं।
अभी तो भारतीय नेतृत्व इस ख़्वाब-ओ-ख़्याल में है कि बाइडेन और कमला हैरिस तो अभी-अभी आये ही हैं। लेकिन,भारत में मुस्लिम विरोधी राजनीति के मुख़ालिफ़ कमला हैरिस जहां खड़ी हैं, उसके लिए किसी अनुमान की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि 2017 की मुस्लिम बैन रैली के दौरान व्हाइट हाउस के सामने उनकी इन प्रेरक टिप्पणियों से समझा जा सकता है:
“हमें पता है कि हमारे देश के लिए लड़ने और हमारे आदर्शों के लिए लड़ने और उन लोगों के ख़िलाफ़ लड़ने का क्या मतलब है, जो हमारे होने को चुनौती देंगे। लेकिन, हम तो यहां यह कहने के लिए ही खड़े हैं कि हम वही हैं, जो हमेशा इस देश और अपने आदर्शों के साथ बना रहा है। इसके साथ ही हम नस्लवाद के ख़िलाफ़ भी लड़ेंगे।
“हम मुस्लिम विरोधी बयानबाज़ी के ख़िलाफ़ लड़ेंगे! हम उन सभी के ख़िलाफ़ लड़ेंगे, जिन्होंने एक समुदाय के तौर पर किसी को हाशिये पर खड़ा कर दिया है। लेकिन, हम ऐसा करने वालों के लिए खड़े नहीं होंगे। हमें उन लोगों में भरोसा है, जिनसे मिलकर हमारा देश बना है, लिहाजा हम ख़ुद के लिए लड़ने जा रहे हैं। हम अपने मुस्लिम भाइयों और बहनों के लिए लड़ने जा रहे हैं। हम अपने अप्रवासी भाइयों और बहनों के लिए लड़ने जा रहे हैं, क्योंकि वे और हम वही तो हैं, जिनसे मिलकर यह देश महान बनता है!”
अगर नवंबर में बाइडेन-हैरिस की जोड़ी चुनाव जीत जाती है, तो मोदी सरकार के लिए समस्या होगी। ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति, मुस्लिम विरोधी वर्चस्ववादी प्रवृत्ति और नीतियां, सीएए, उबलता हुआ उत्तरपूर्वी राज्य- ये सभी विषय भारत और अमेरिका के बीच '21 वीं सदी की निर्णायक साझेदारी को लेकर ‘बातचीत के मुद्दे’ होंगे।
सच्चाई तो यही है कि बाइडेन अगर नवंबर का चुनाव जीत जाते हैं, तो 2024 के चुनाव में कमला हैरिस के राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने की प्रबल संभावना है। भले ही यह समय से पहले का अनुमान हो, मगर हक़ीक़त तो यह भी है कि प्रगतिशील वाम अमेरिकी मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा होता जा रहा है।
गिरगिट के रंग बदलने की तरह, हिन्दू दक्षिणपंथी कमला हैरिस के भारतीय पुरखों की याद दिलाते हुए उनतक अपनी पहुंच बनाने की कोशिश कर सकता है। लेकिन,यह चाल काम नहीं आयेगी। ऐसा क्यों नहीं हो पायेगा, इसके लिए कमला हैरिस की जैव-प्रोफ़ाइल पर ग़ौर करना उपयोगी होगा।
जब तक हमारे सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग को हमारे देश में स्वदेशवादी उन्माद के इस अंधेरे समय से छुटकारा नहीं मिल जाता, जब तक वे अपने आप को नये रूप में ढालकर तरक़्क़ी के सफ़र में भारत को दुनिया के लिए कुछ देने लायक बनाकर उसके तटों पर नहीं लौटा लाते, तबतक उनके लिए कमला हैरिस किसी अजनबी की तरह ही बनी रहेंगी।
कमला हैरिस की अब तक की सार्वजनिक छवि, उनके जमैकाई पिता की विरासत वाले आधे हिस्से के साथ ज़्यादा निकटता से जुड़ी हुई है। कमला हैरिस ने ऐतिहासिक तौर पर बतौर अश्वेत वाशिंगटन स्थित हावर्ड विश्वविद्यालय से अपनी अंडरग्रेजुएट की डिग्री हासिल की है और सबसे पुराने अफ़्रीकी-अमेरिकी "अल्फ़ा कप्पा अल्फ़ा"(विश्वविद्यालय में आमतौर पर सामाजिक उद्देश्यों वाली महिला छात्रों की एक सोसाइटी) का एक सम्मानित सदस्य रही हैं। वह हाल के दशकों में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की एक प्रबल दावेदारी पेश करने वाली सबसे प्रमुख अफ़्रीकी-अमेरिकी महिला हैं।
इसके अलावा, एक बेहद प्रतीकात्मक तरीक़े से उन्होंने जनवरी 2019 में मार्टिन लूथर किंग जूनियर के जन्मदिन पर डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर अपना अभियान शुरू कर दिया था और ऑकलैंड में आयोजित उस अभियान में 20,000 लोगों ने भाग लिया था।
अपने संस्मरण, ‘द ट्रुथ्स वी होल्ड’ में कमला हैरिस ने लिखा है कि उनकी मां "जानती थी कि उनकी अपनायी हुई यह मातृभूमि मुझे और (मेरी बहन) माया को किसी अश्वेत लड़कियों के तौर पर ही देखेगी, और उन्होंने यह तय कर लिया था कि हम एक सम्मानित अश्वेत महलाओं के तौर पर पले-बढ़ेंगे।"
ज़ाहिर है, यह भारतीय-अमेरिकी पहचान बीतते समय के साथ बदल रही है, यह समुदाय बेहतर रूप से शिक्षित; ज़्यादा समृद्ध; उन्होंने जिस देश को अपनाया है, वहां की राजनीति और इतिहास में ज़्यादा महत्वाकांक्षी; उनके द्वारा अपनाये गये देश की राजनीति और इतिहास में अधिक महत्वाकांक्षी, और और पुरानी और पहली पीढ़ी के प्रवासियों के मुक़ाबले देश के बाक़ी लोगों के साथ ज़्यादा घुल मिल जाने वाला बन गया है, जिसकी भारतीय के रूप में पहचान बहुत मज़बूत है और जो अब भी अपने मूल देश और इसकी पुरानी परंपराओं से बहुत जुड़ा हुआ है।
अगर हम अलग तरह से कहें, तो कमला हैरिस के अभ्युदय और उनके उत्थान की कहानी जो कुछ रेखांकित करती हैं,वह यह कि भारतीय-अमेरिकी प्रवासी को चिह्नित करने के हमारे पुराने तरीक़ों को बदलने की ज़रूरत है। संघ परिवार के तंग मानसिक ढांचे में अक्सर समझ-बूझ की बेहद कमी रही है, यह अजीब लग सकता है कि कमला हैरिस ने अपनी ईसाई आस्था या अपनी भारतीय जातीयता के शोर मचाने के बजाय आव्रजन, नागरिक अधिकार, शिक्षा और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर की जाने वाली राजनीति में अपनी विरासत को संवारना-निखारना पसंद किया है। फिर भी, ग़ज़ब की सौम्यता तो इस बात में निहित है कि इस में से कोई भी उनकी भारतीय-अमेरिकी पहचान को कम नहीं करता है, बल्कि इसके साथ-साथ यह हम सभी को ऐसा महसूस कराता है, मानो कि हम अमेरिकी भी हैं।
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