अमेरिका-भारत संबंध: क्यों 2+2 हर बार 4 नहीं हो सकते ?
कोई नहीं जानता कि वाशिंगटन डीसी में कांग्रेस के पैनल के साथ होने वाली गुरुवार की निर्धारित बैठक को विदेश मंत्री एस. जयशंकर द्वारा अंतिम क्षणों में रद्द किया जाना, किस हद तक नागपुर को खुश रखने के लिए लिया गया फैसला रहा होगा। वे प्रधानमंत्री मोदी के मंत्रिमंडल में किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में बड़े आईक्यू वाले एक महत्वाकांक्षी मीडिया प्रेमी राजनीतिज्ञ माने जाते हैं।
इस बिंदु से यही नतीजे निकाले जा सकते हैं कि जयपाल मामले ने 18 दिसंबर को वाशिंगटन में होने वाली 2 + 2 विदेशी और रक्षा मंत्रियों की बैठक के परिणामों से ध्यान भटकाने का ही काम किया। अमेरिकी-भारतीय सेना-से-सेना के बीच के संबंध मजबूत हो रहे हैं और दोनों देश भारत-प्रशांत क्षेत्र में एक सच्चे गठबंधन की ओर बढ़ रहे हैं।
अमेरिकी पक्ष स्पष्ट रूप से इस बात से प्रसन्न था कि मई माह में विदेश मंत्री के रूप में जयशंकर की नियुक्ति, विदेश नीति निर्मित करने वाले पारिस्थितिक क्षेत्र में वापसी से अमेरिकी-भारतीय साझेदारी के रास्ते अब कहीं और जाकर खुलने वाली हैं। हालांकि रक्षा मंत्री होने के नाते राजनाथ सिंह, जो एक तेज तर्रार नेता माने जाते हैं, इसके साथ-साथ अपनी कड़कदार आवाज के साथ भाजपा के सबसे वरिष्ठ राजनेताओं में से एक गिने जाते हैं, के बावजूद जयशंकर भारतीय रक्षा मंत्रालय के फैसलों को प्रभावित करने में भी कहीं न कहीं सक्षम हैं।
साफ़ शब्दों में कहें तो जयशंकर पहलकदमी लेने में पीछे नहीं हटते क्योंकि उन्हें अच्छे से पता है कि सिस्टम को कैसे चलाया जाता है और एक बात और- यह बात अब किसी से छुपी नहीं है कि उन्हें मोदी का पूरा भरोसा और आरएसएस की छत्रछाया प्राप्त है।
2 + 2 वाली बैठक के जरिये वाशिंगटन यह संदेश देना चाहता है कि अमेरिकी-भारतीय रणनीतिक साझेदारी अब आगे एक रोमांचक यात्रा की शुरुआत करने जा रहा है। नागरिकता संशोधन अधिनियम या जम्मू-कश्मीर में जारी प्रतिबंध के संबंध में अमेरिकी पक्ष के दम साध लिए जाने को इस रौशनी में समझने की आवश्यकता है। (कश्मीर के सन्दर्भ में कहीं अधिक)
भू-राजनीतिक अर्थों में 2 + 2 खासतौर पर ट्रम्प प्रशासन की भारत-प्रशान्त क्षेत्र की रणनीति का हिस्सा है। अमेरिका और चीन के बीच बढ़ता तनाव का माहौल इसकी पृष्ठभूमि प्रदान करता है। यह एक ऐसा ऐतिहासिक मोड़ है जब एशियाई रंगमंच पर चीन के साथ दुर्दान्त संघर्ष में खुद को मजबूत स्थिति में रखने के लिए अमेरिका को भारत को अपने खेमे में रखने की सख्त जरुरत महसूस हो रही है।
बेल्टवे में इस बात को लेकर सर्वसम्मति है कि चीन अब अमेरिका का नंबर एक का प्रतिद्वंद्वी है और अधिकांश अमेरिकी और अन्य देशों के विश्लेषकों का अनुमान है कि आने वाले समय में इन दो महा-शक्तियों के बीच काफी कुछ दांव पर लगने वाला संघर्ष देखने को मिलने जा रहा है।
इसका मतलब यह हुआ कि भारत इस बात के लिए आश्वस्त रह सकता है कि वर्तमान में चीन के खिलाफ अमेरिका द्वारा लिए जा रहे दांवपेंचों, जिसमें व्यापार और प्रौद्योगिकी से लेकर करेंसी तक शामिल है के साथ हांगकांग और शिनजियांग में चल रहे मुद्दों में कम से कम एक दशक तक कमी नहीं बल्कि तेजी ही देखने को मिलने वाली है। चीन के प्रति अमेरिकी नीतियों में निरंतरता की कमी के चलते अतीत में भारत कभी बचाव तो कभी ठहराव की मुद्रा में नजर आता रहा है।
सारी स्थितियों को अगर मिलाकर देखें तो आज भारतीय थिंक टैंक को लगता है कि वह समय आ गया है जब वह इस बात का इशारा अमेरिका को दे दे कि भारत अपनी रणनीतिक महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार कर वॉशिंगटन की भारत-प्रशांत रणनीति में चीन के उभार से निपटने के लिए एक बेहद करीबी और भरोसेमंद साझीदार के रूप में काम करने के लिए तत्पर है। 2 + 2 की बैठक के नतीजों से जो निकला है उससे मालूम होता है कि भारत ने आख़िरकार 'प्ले' वाला बटन दबा दिया है।
2 + 2 वार्ता के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य, चीन के उभार को लेकर दोनों देशों के दृष्टिकोण में एक उल्लेखनीय अनुरूपता को दर्शाता है। भारत-अमेरिका-जापान त्रिपक्षीय प्रारूप और चतुर्भुज ('चतुष्कोण') प्रारूप को बुनियादी ढांचे के विकास, साइबर सुरक्षा, आतंकवाद और क्षेत्रीय कनेक्टिविटी से लेकर ' शांति स्थापित करने वालों के क्षमता-निर्माण' और समुद्री सुरक्षा के निर्माण तक के क्षेत्रों में व्यावहारिक सहयोग बढ़ाने के लिए अर्ध-गठबंधन प्रणाली बनाने के लिए तैयार किया जा रहा है।
इस समझौते से अमेरिका और भारत ने एक "व्यापक, स्थायी और पारस्परिक रूप से लाभकारी" साझेदारी की परिकल्पना की है जिसके भीतर उन्होंने “अपनी सुरक्षा और रक्षा मामलों में सहयोग” के सभी पहलुओं के विस्तार का संकल्प लिया है। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण इस प्रकार हैं:
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‘त्रिकोणीय-सेवा’’ जैसे सैन्य अभ्यासों को उच्चस्तरीय स्तर तक परिष्कृत करना, जिसे अंतर-सेवा का नाम दिया गया है (जिसमें अब विशेष सेवा बलों को भी शामिल किया जायेगा);
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भारतीय सशस्त्र बलों और अमेरिका के प्रशांत कमांड, इंडो-पैसिफिक कमांड और अफ़्रीकी कमांड के बीच सहयोग को बढाने का प्रयास;
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दोहा में यूएस सेंट्रल कमांड मुख्यालय के साथ निरंतर सम्पर्क हेतु एक भारतीय अधिकारी को नियुक्त करने का काम;
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स्पेशल ऑपरेशन फोर्सेज के बीच संयुक्त एवं सर्विस-टू-सर्विस बातचीत और सहयोग को और अधिक मजबूत करना;
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भारत-प्रशांत क्षेत्र में "क्षमता निर्माण के प्रयास";
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पिछले सप्ताह औद्योगिक सुरक्षा अनुबंध पर हस्ताक्षर किया जाना, जो दोनों देशों के रक्षा उद्योगों के बीच वर्गीकृत (क्लासिफाइड) सैन्य सूचनाओं के आदान-प्रदान की सुविधा प्रदान करेगा;
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रक्षा नवाचार में सहयोग और अमेरिका के नेतृत्व वाली वैश्विक रक्षा आपूर्ति श्रृंखला से भारत को जोड़ना;
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“कई परियोजनाओं" को सह-विकसित करने के इरादे वाले बयान को अंतिम रूप देना;
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रक्षा और हवाई क्षेत्रों में परीक्षण और प्रमाणन जारी करने के साथ-साथ भारत में उनके रखरखाव, मेंटेनेंस और ओवरहालिंग करने जैसी सुविधाओं की स्थापना पर सहयोग;
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साइबर सुरक्षा सहयोग को लेकर झुकाव, विशेष रूप से 5 जी नेटवर्क के संबंध में; तथा,
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अंतरिक्ष क्षेत्र में संभावित रक्षा सहयोग।
विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने यात्रा पर गए भारतीय मंत्रियों के साथ एक संयुक्त प्रेस सम्मेलन में कहा कि औद्योगिक सुरक्षा अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के साथ-साथ, “हमने उन सभी सक्षम समझौतों को पूरा कर लिया है जो हमें भारत के साथ सयुंक्त होने और खरीद-बिक्री और साथ ही साथ सह-उत्पादन दोनों ही मामलों में सहयोग के अधिकतम स्तर की अनुमति प्रदान करता है।"
लेकिन साथ में उन्होंने चेतावनी भी दी कि: "और इसलिए एक निश्चित समय पर, एक रणनीतिक विकल्प है जिसे मंचों (प्लेटफार्मों) और प्रणालियों को निर्मित करने की आवश्यकता है और निश्चित रूप से हमारी कोशिश होगी कि हम भारत को प्रोत्साहित करेंगे कि वो हमारे मंचों (प्लेटफार्मों) और हमारी प्रणालियों को देखे और समझे जो भारत-प्रशांत क्षेत्र की चुनौतियों का सामना करने के लिए सबसे अधिक प्रभावशाली हैं।"
साफ़-साफ़ शब्दों में कहें तो अमेरिका चाहता है कि भारत, हथियार विक्रेताओं के सबसे प्रमुख स्रोत के रूप में अमेरिकी विक्रेताओं की ओर रुख करे। बेहद अचूक तरीके से पोम्पिओ ने संकेत दिया कि यह सब भारत पर निर्भर है कि वह रूस के साथ अपने रक्षा संबंधों को कम से कम करता जाए। पोम्पिओ इस मामले में साफगोई से बोलते दिखे: "भारत हम दोनों की चिंताओं से भली भांति रूप से अवगत है – कि रूस को लेकर हमारी क्या चिंताएं हैं और... हमारी चिंताएं इस अन्तर को प्राप्त करने के लिए जो हम भारत के साथ चाहते हैं, वे क्या हैं।"
वाशिंगटन में संपन्न हुई 2 + 2 यूएस-भारतीय रणनीतिक साझेदारी अपने आप में मील का पत्थर साबित होने जा रही है और इसके दूरगामी परिणाम होंगे। इस विकास को चीन एक खतरे की घंटी के रूप में देखेगा। इस पर चीनी प्रतिक्रिया किस रूप में किन दिशाओं में छुपी है, यह 'ज्ञात अज्ञात' के दायरे में है।
एक बार फिर से भारत ने हथियारों के आकर्षक सौदे के जरिए रूसियों को पुरस्कृत कर खुश कर दिया है, लेकिन बाज़ार का सहज ज्ञान नए शीत युद्ध की स्थिति में मात्र एक बिंदु तक ही काम करता है। आज अमेरिकी-रूसी संबंध बिगड़ते जा रहे हैं। एक समय ऐसा भी आने वाला है जब वाशिंगटन की ओर से भारत पर दबाव पड़ना शुरू हो जायेगा कि वह तय कर ले कि- ‘तुम हमारे साथ रहना पसंद करोगे या हमारे खिलाफ।‘
इसे समझने के लिए रूस के साथ अपने एस-400 मिसाइल सौदे के मामले में नाटो के प्रमुख सहयोगी सदस्य तुर्की के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंध या रूस के साथ नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन परियोजना में शामिल जर्मन कंपनियों के खिलाफ कदमों में देखा जा सकता है।
शुक्रवार को ट्रम्प ने 2010 के लिए रक्षा खर्च बिल पर हस्ताक्षर किए, जिसमें तुर्की को दंडित करने के मकसद से कई उपायों को शामिल किया गया है। यह कानून तुर्की को नाटो के एफ-35 फाइटर जेट कार्यक्रम से बाहर कर देता है। इसके साथ ही तुर्की को उसके पूर्वी भूमध्यसागरीय प्रतिद्वंदी साइप्रस पर अमेरिकी हथियार प्रतिबंधों को हटा देता है और रूस के साथ तुर्कस्ट्रीम गैस पाइपलाइन परियोजना के निर्माण में शामिल शिपिंग कंपनियों के ऊपर प्रतिबंधों को थोपता है।
18 दिसंबर को अमेरिकी सीनेट की विदेशी मामलों की कमेटी ने भारी बहुमत से समर्थन में मत देकर इस बात की मंजूरी दी और “दुनिया भर में रूस द्वारा बदनाम करने वाली गतिविधियों के जवाब में रूसी संघ पर राजनीतिक, राजनयिक और आर्थिक दबाव को काफी हद तक बढाने के लिए द्विदलीय विधेयक पर अपना मतदान किया।" प्रस्तावित कानून के प्रायोजक, सीनेटर लिंडसे ग्राहम (रिपब्लिकन-साउथ कैरोलिना) इस कानून को "नरक से विधेयक प्रतिबंध" का नाम देते हैं।
ठीक इसी हफ्ते अमेरिकी कांग्रेस ने एक और कानून पूर्वी भूमध्यसागरीय सुरक्षा और ऊर्जा भागीदारी अधिनियम को पारित किया है, जिसका मुख्य जोर यूरोप के ऊर्जा स्रोतों में विविधता लाना है, जिससे क्रेमलिन-नियंत्रित कंपनियों की जद से वे बाहर रहें।
ऐसे में वाशिंगटन में 2 + 2 बातचीत को मॉस्को बड़ी बैचेन निगाह के साथ देख रहा होगा। क्रेमलिन द्वारा वित्त-पोषित आरटी में 19 दिसंबर के एक लेख का शीर्षक नई दिल्ली, अमेरिकियों के उपहारों और वायदों के प्रभाव से सावधान! था, जिसमें अमेरिका की क्षेत्रीय रणनीति में फंसने के खिलाफ भारत को स्पष्ट रूप से चेतावनी दी गई है। क्या किसी भी स्तर पर मुसीबत के समय भारत, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में महत्वपूर्ण रूसी समर्थन की अनदेखी कर सकता है?
क्या वास्तविकता में भारत इस बात को नजरअंदाज कर सकता है कि पाकिस्तान, कश्मीर जैसे मुख्य मुद्दों पर अमेरिका का रुख हमलावर इसलिए नहीं है क्योंकि इसे शांत कर दिया गया है? आवाज़ को कुछ डेसिबल तक बढ़ाएं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका ने कभी भी जम्मू-कश्मीर में भारत की दमनात्मक कार्यवाही का समर्थन नहीं किया है या सीएए पर क्षमादान दे दिया है। उल्टा धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में अमेरिकी संघीय आयोग ने गृह मंत्री अमित शाह के खिलाफ प्रतिबंधों की मांग की है।
भारतीय मामलों के विख्यात जानकर शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पॉल स्टानिलैंड ने हाल ही में इंडिया’ज न्यू सिक्योरिटी ऑर्डर नामक एक निबंध में लिखा है, "मैं नए(मोदी-जयशंकर) व्यवस्था में तीन विशेषताओं की पहचान कर पा रहा हूं: जोखिम उठाने और दृढ़ता पर जोर, घरेलू और अंतरराष्ट्रीय राजनीति को आपस में जोड़ देने पर जोर, और आलोचकों की पकड़ से खुद को दूर रखने के लिए लगातार घुमावदार मुद्दों का इस्तेमाल।"
“यह दृष्टिकोण एशिया में अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका को संभावित लाभ की स्थिति में पहुंचाता है। लेकिन यह जोखिम और चुनौतियों का एक समूह भी लाता है जो स्पष्ट-निगाह वाले विश्लेषण की मांग करता है - और यह बहस करने की इच्छा कि भारत जिस तरह आगे बढ़ रहा है उसमें संयुक्त राज्य अमेरिका को किस तरह से खुद को शामिल करना है।”
अमेरिकी रुख बेहद महत्वाकांक्षी है और सब कुछ इस बात पर निर्भर है कि अमेरिकी भू-रणनीतियों के हिसाब से भारत की उपयोगिता क्या है। पिछले हफ्ते 2 + 2 की बैठक में भारत ने अपने शर्मीलेपन को झटक कर पहली बार वैश्विक राजनीति की ऊंची मेज पर खेलने की उत्कंठा का इज़हार कर दिया है। यह बदलाव जयशंकर की विशिष्ट धारणाओं के अनुरूप है, जिसके अनुसार भारत का पिछला रिकॉर्ड दर्शाता है कि "कम जोखिम वाली विदेश नीति से ईनाम निकालने की गुंजाइश भी कम होती है।"
अब सवाल यह है कि कोई "कम जोखिम वाली विदेश नीति" को किस तरह से परिभाषित करता है? याद करें जब इंदिरा गांधी ने दुनिया की राय को अनदेखा (और खिलाफ जाकर) कर पाकिस्तान को आधे से अलग कर दिया था तो क्या यह "कम जोखिम वाला" मामला था? इसके अलावा समकालीन दुनिया की स्थिति में यह अकेले भारत के हाथ में नहीं है कि वह उस परिभाषा को तैयार कर ले। प्रोफेसर स्टैनलैंड लिखते हैं,
“संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए इस नई गतिशीलता के क्या मायने हैं? वाशिंगटन के पास इसकी वजहें हैं, वह चीन के प्रभाव के प्रतिउत्तर में कहीं अधिक मुखर और शक्तिशाली भारत को खड़ा होते देखना चाहेगा... एक ऐसा भारत जो चीन के साथ अपने सैन्य संतुलन में नकारात्मक रुझानों पर काबू पाने के प्रति गंभीर है, वह एशिया में और उससे आगे, अमेरिकी मित्र देशों और सहयोगियों के साथ संबंध स्थापित करने के लिए तत्पर है, उदार लोकतांत्रिक मूल्यों को जारी रखता है। इसके साथ आर्थिक विकास के उच्च स्तर बरक़रार रखने वाला यह देश अमेरिका के लिए बहुमूल्य निधि के समान होगा। अवसरों की इस पोटली ने 2000 के दशक की शुरुआत से वाशिंगटन को भारतीय-अमेरिकी एकरूपता को बढ़ाने की ओर प्रेरित किया है।”
क्या इन सब में वास्तविक भारतीय क्षमता अपनी भूमिका नहीं निभाती है? जयशंकर के इस अति-विश्वास पर जोर यह कि एक उभरते हुए बहुध्रुवीय क्रम में भारत की हैसियत भी एक प्रमुख खिलाड़ी की होने जा रही है, उनकी अपरिवपक्वता को साबित करता है। वास्तविकता में कहें तो आज खतरा चीन के खिलाफ अमेरिका के नियंत्रण में जाने वाली रणनीति में शामिल होने में है। यह स्पष्ट है कि विदेश मंत्री के रूप में जयशंकर की नियुक्ति के बाद से चीन के साथ भारत के संबंध अनिश्चितता वाले बन गए हैं। इसे 20 दिसंबर के दिल्ली में दोनों देशों के विशेष प्रतिनिधियों की हालिया बैठक से स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है, जैसा कि भारतीय और चीनी कथन से इसे समझा जा सकता है।
दूसरी ओर ऐसा भी नहीं कि अमेरिका इस बात से अनजान है कि चीन के सापेक्ष भारत की वास्तविक सैन्य शक्ति क्या है जिसमें व्यापक राष्ट्रीय शक्ति के अलावा आर्थिक मामलों का कार्य भी शामिल है। झुकाव के संकेत बताती हैं कि भारत के लिए स्थिति निराशाजनक रूप से नकारात्मक हैं और क्षमता के स्तर पर जो अंतर चीन के साथ मौजूदा समय में है इसका भविष्य और खराब होने की संभावना है।
अंतिम विश्लेषण में अर्थव्यवस्था ही वह केन्द्रीय चालक शक्ति है जो भारत के रणनीतिक प्रभाव को निर्धारित करते हैं और उसे तोड़-मोड़ कर पेश किये जाने वाले आर्थिक आंकड़ों से इस कड़वी हकीकत को और अधिक नहीं छिपाया जा सकता कि अर्थव्यवस्था एक खतरनाक मंदी में प्रवेश कर चुकी है। निकट भविष्य में 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाने का मोदी का भाषण भारत और दूसरे देशों में अब सिर्फ विदेश में अर्थशास्त्रियों के लिए हंसी का कारण बन रहा है।
और इन सबके ऊपर, भारतीय मुसलमानों को दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में मान्यता देने की बीजेपी की घरेलू राजनीतिक प्रोजेक्ट की बलिहारी जाने को जी चाहता है जिसकी वजह से देश के लिए कहीं अधिक अंतरराष्ट्रीय चुनौतियां पेश होने जा रही हैं।
इस बीच सितम्बर में मोदी के ह्यूस्टन रैली में ट्रम्प को सार्वजनिक तौर पर गले लगाने और अमेरिकी कांग्रेस की प्रमिला जयपाल और अन्य प्रमुख डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं पर सीधा और अपमानजनक हमला, अमेरिकी राजनीतिक व्यवस्था में उतरने वाले खतरनाक कदम के लक्षण हैं जिसका असर भारत के लिए बेहद चिंताजनक साबित होने वाले हैं।
अब इसमें विरोधाभास देखिये। हाई प्रोफ़ाइल सिक्यूरिटी और सैन्य सहयोग के खाके में 2 + 2 की परिकल्पना तब अस्थिर हो जाती है जब यह लोकतांत्रिक मूल्यों और साझा मूल्यों के गंभीर कटाव के साथ समानांतर चलने लगता है और जो भारत के लिए अमेरिकी समर्थन का एक महत्वपूर्ण स्तंभ बना हुआ था।
मुख्यधारा की अमेरिकी राय में इस बात की कड़े शब्दों में निंदा की जा रही है कि मोदी निर्दयतापूर्वक ‘अनुदार लोकतंत्र’ की दिशा में भारत को ले जा रहे हैं। मोदी सरकार को अनुदारवादी अंतरराष्ट्रीय लहर के हिस्से के रूप में देखा जा रहा है। इन सब पर केंद्र सरकार द्वारा घिसे-पिटे तौर तरीकों से लॉबिंग करने और प्रवासी लोगों का सहारा लेने जैसी बचकानी प्रतिक्रिया दी जाती है। लेकिन समय बदल चुका है।
जयपाल प्रकरण जिस बात को उजागर करता है, वह यह है कि अमेरिका में यूएस-भारतीय संबंधों के द्विदलीय राजनीतिक स्तंभ पहले से कहीं अधिक अस्पष्ट हो चुके हैं और लेन-देन वाले रियलपोलिटिक के माध्यम से रिश्तों में पैबंद लगाने से अब काम नहीं चलने वाला। 2016 में राष्ट्रपति के रूप में ट्रम्प के चुने जाने के बाद से अमेरिकी राजनीति में विकसित होने वाले बड़े विवादों के नतीजों में से एक यह है कि आधा अमेरिका हर उस चीज को खारिज कर देता है जिसके लिए वह खड़ा है और जिसके चलते एक बार फिर से अमेरिकी रणनीति को जांचने की इच्छाशक्ति पैदा हो रही है।
इसी वजह से तुर्की और सऊदी अरब जैसे देश जो ऐतिहासिक रूप से अमेरिका के क़रीबी सहयोगी रहे हैं, आज अमेरिकी कांग्रेस में उनकी बखिया उधेड़ी जा रही है, क्योंकि बेल्टवे में यह धारणा घर कर गई है कि ट्रम्प का उनके प्रति झुकाव है। और ठीक यहीं पर जयशंकर ने जयपाल का अपमान कर गलती कर दी है। मोदी भक्तों ने सीनेटर एलिजाबेथ वारेन और जयपाल के बचाव में सामने आए अन्य डेमोक्रेटस के ऊपर अतिसक्रिय रोटवेइलेर्स कुत्तों की माफ़िक धावा बोलकर मामले को बद से बदतर बना दिया है।
सौजन्य: इण्डियन पंचलाइन,
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