यूपी : बकाया भुगतान और कोर्ट का आदेश लागू करने की मांग को लेकर मिड-डे मील कर्मी दिल्ली कूच को तैयार
सावित्री का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। पिछले दिनों तेज बुखार से पीड़ित थीं। बुखार तो ठीक हो गया लेकिन शरीर कमजोर बना गया। उसी कमजोर शरीर के साथ वह प्रदर्शन में पहुँची। सावित्री प्रधानमंत्री पोषण मध्याह्न भोजन योजना से जुड़ी रसोइया हैं और करीब 15 वर्षों से स्कूल में भोजन बनाने का काम करती आई हैं। वह उत्तर प्रदेश मिड-डे मील वर्कर्स के बैनर तले लखनऊ में हुए एक दिवसीय प्रदर्शन में शामिल होने आईं थीं।
सावित्री कहती हैं कि सरकार हमें निकालने की योजना बना रही है, सुन रहे हैं कि सरकार द्वारा ऐसा शासनादेश लाया गया है जिसमें रसोइयों का नवीनीकरण और नई भर्तियां शामिल हैं। तो कुल मिलाकर यह बात तय है कि जो वर्षों से मध्याह्न भोजन से जुड़ी रसोइया हैं उनकी छटनी होगी फिर सरकार चाहे कितना भी आश्वासन दे।
सरकार की मंशा नवीनीकरण के नाम पर उन रसोइयों को निकाल बाहर करने की है जो 15 सालों से कार्यरत हैं। वह कहती हैं महीनों से हमारा मानदेय नहीं मिला। घर की आर्थिक स्थिति खराब हो चली है। कभी कभी ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं कि दाल खरीदने के पैसे तक नहीं रहते तो आलू चावल से ही गुजारा करना पड़ता है। अब ऐसे में घर में कैसे बैठे रहें या अपने हक़ के लिए लड़ लें या मर जाएं.... इतना कहते ही सावित्री की आँखें भर आईं। सावित्री अपने अन्य साथियों के साथ ग्रामीण क्षेत्र बक्शी का तालाब ( बी के टी) से शहर के परिवर्तन चौक प्रदर्शन में आई थीं। उनके मुताबिक करीब 6 महीने से उन्हें मानदेय नहीं मिला है। हालाँकि इतने वर्षों में भी उन लोगों को कभी समय से मानदेय नहीं मिला, लेकिन अब हालात तेजी से और खराब होते जा रहे हैं और उस पर अब निकाले जाने का भय सरकार बना रही है।
सावित्री बताती हैं कि, "चुनाव से पहले 500 रुपए जो सरकार ने बढ़ाने का वादा किया था, वह केवल मुँह जबानी बनकर रह गया है।" वह उदास भाव से कहती हैं, "बढ़ा हुआ का कोई भरोसा नहीं मिले या न मिले। लेकिन जो मिल रहा है उसका तो सरकार पूरी ईमानदारी और समय से भुगतान करें। यहाँ तो नौबत यह आ चुकी है कि अब घर संभालने के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है। उसी की चिंता रहती है कि कर्ज की अदायगी कैसे होगी।"
रसोइया किरण देवी के आर्थिक हालात भी बेहद खराब हो चले हैं। महीनों से मानदेय नहीं मिला। पाँच बेटियाँ हैं। पति की मृत्यु हो चुकी है। पैसों की कमी इस कदर हो चली है कि चार बेटियों को पढाई छोड़ मजदूरी करनी पड़ रही है। किरण कहती हैं, "हर रोज काम पर जाना पड़ता है। खाना बनाकर स्कूल के बच्चों को समय से खाना परोसना, साफ सफाई करना, बर्तन माँझना, सब काम करना ही पड़ता है। काम में कोई कमी नही यहाँ तक कि हमें अपने निर्धारित काम के अलावा अन्य अतिरिक्त काम पर भी लगा दिया जाता है जैसे स्कूल परिसर की सफाई करना, बाग बगीचों की देखभाल करना यहाँ तक कि कभी कभी शौचालय तक साफ करना पड़ता है पर इतना बोझ होने के बावजूद जब बात मानदेय भुगतान की आती है तो महीने के आखिर में हाथ खाली ही रह जाता है।"
मायूस होकर किरण कहती है, "अब तो बच्चे भी गुस्साने लगे हैं कहते हैं काम पर तो रोज जाती हो पर पैसा कहाँ है।" अपने को खपा दिया। रसोइये के काम पर मिला तो कुछ नहीं उलटे अब रात दिन निकाले जाने का भय पैदा कर दिया गया है सो अलग।"
सावित्री और किरण की भाँति यह पीड़ादायक स्थिति अमूमन हर मिड डे वर्कर है। महीनों से लटके मानदेय का इंतज़ार सबको है और हाथ खाली सबके ही हैं। विधान सभा चुनाव से पहले इनके लिए सरकार ने कुछ मनभावन घोषणाएं की थीं जिसमें मानदेय बढ़ोत्तरी भी थी लेकिन चुनाव हुए सरकार दोबारा पदस्थापित हुई और घोषणाएं जबानी घोषणाएं ही बनकर रह गईं। इसलिए बीते 12 अक्टूबर को मिड-डे मील वर्कर्स यूनियन ( सम्बद्ध एक्टू) के राज्य व्यापी आह्वान के तहत गोरखपुर ,देवरिया ,सीतापुर , लखनऊ, जालौन , वाराणासी , सोनभद्र ,कानपुर, मऊ , रायबरेली, फैजाबाद, बस्ती, आदि जनपदो में प्रतिवाद प्रदर्शन करते हुए नवीनीकरण व चयन के शासन के आदेश को वापस लेने, 6 माह के बकाया मानदेय व लंबित मानदेय के भुगतान के साथ साथ न्यूनतम वेतन की गारंटी करने की माँगो को लेकर हजारों मिड डे मील वर्कर्स ने लाम्बद्ध हो प्रदर्शन किया और मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन सौंपा।
उत्तर प्रदेश मिड-डे मील वर्कर्स यूनियन की प्रदेश अध्यक्ष साधना पांडे कहती हैं जब से बेसिक शिक्षा विभाग ( उत्तर प्रदेश शासन) के विशेष सचिव द्वारा निदेशक मध्यान्ह भोजन और जिलाधिकारियों को आदेश दिया है कि अब वे रसोइयों की संख्या का निर्धारण , चयन व नवीनीकरण आदि कर सकते हैं ,इस बाबत अब कोई रोक नहीं तब से पूरे प्रदेश में हमारे रसोइयों के मध्य छटनी का खौफ़ पैदा हो गया है, जो स्वभाविक भी है । नई भर्तियां आखिर किस आधार पर होंगी तो यह साफ ज़ाहिर है कि पुरानों को हटाकर ही नई बहालियाँ होंगी। वह कहती हैं जब सरकार पहले से ही कार्यरत रसोइयों को हजार, डेढ़ हजार का मानदेय नहीं दे पा रही तो जो अतिरिक्त भर्तियाँ होंगी आख़िर उसका पैसा कहाँ से आयेगा तो यह इस बात को पुष्ट करता है कि पुरानों पर गाज गिरेगी ही।
साधना कहती हैं स्कीम वर्कर्स में से आज सबसे ज्यादा कोई शोषित और लाचार तबका है तो वह है मध्यान्ह भोजन से जुड़ी रसोइयों का और वह इसलिए क्योंकि इनकी मजदूरी एक मनरेगा मजदूरों के बराबर भी नहीं। वह कहती हैं आठ घंटा प्रत्येक दिन स्कूल में खटने के बाद यानी महीने में करीब 200 घंटे का काम करने के बाद आखिर इनको मिलता क्या है महज हजार से डेढ़ हजार का मानदेय वो भी कभी समय से नहीं मिलता महीनों इतज़ार करो तब कहीं जाकर कुछ महीने का ही भुगतान होता है। वह अफसोस भरे लहजे में कहती हैं हमारी रसोइया बहने बेहद गरीब परिवार से आती हैं। उनकी इतनी खेती भी नहीं होती कि परिवार का गुजर बसर उसी से चल जाए ऐसे में लंबे समय से मानदेय न मिलने से उनकी आर्थिक हालत क्या होती होगी समझा जा सकता है ऐसे में स्कूल में भोजन बनाते और खिलाते हुए यदि वे भी मुट्ठीभर भोजन पर अपना अधिकार मान लेती है तो क्या यह गुनाह है पर सरकार उनकी उस एक रोटी को भी छिनने पर आमादा हो गई है। वे कहती हैं अब वे दिन भी दूर नहीं जब स्कूल के बच्चों को खाना खिलाने का काम गैर सरकारी संस्थानों को सौंप दिया जायेगा तब तो हालात और बुरे हो जायेंगे। उन्होंने बताया कि समय से मानदेय न मिलने के चलते अपने को भुखमरी से बचाने के लिए कई ऐसी महिलाएं हैं जिन्होंने विवश होकर रसोइये का काम छोड़ कर घरेलू काम करने लगी हैं।
युनियन की प्रदेश उपाध्यक्ष कमला गौतम कहती है इस विधान सभा चुनाव से पहले प्रदेश सरकार कहती है कि वह प्राइमरी स्कूलों में काम करने वाले रसोइयों को एक बड़ी सौगात देने जा रही है और लखनऊ में आयोजित हुए रसोइयों के सम्मेलन में उनके लिए बढ़े हुए मानदेय का ऐलान कर देती है। इस बढ़ोत्तरी में 500 रुपए शामिल था। हालाँकि बढ़ोत्तरी शर्मनाक थी, उम्मीद ज्यादा की थी लेकिन फिर भी इतनी तसल्ली भर कर ली गई कि देर से सही सरकार कुछ तो जागी है साथ ही साल में दो साड़ियां देने और हर रसोइये को 5 लाख का स्वास्थ्य बीमा भी उपलब्ध कराने की घोषणा मुख्यमंत्री करते हैं । घोषणाएं इतने में ही नहीं थमती मुख्यमंत्री यह घोषणा भी करते हैं कि एप्रन और हेयर कैप का पैसा रसोइयों के खाते में देने की व्यवस्था भी की जायेगी। लेकिन वे तमाम घोषणाएं केवल चुनावी घोषणाएं बनकर रह गईं जिसका हमें पहले से अंदेशा था क्योंकि घोषणाएं मौखिक थीं इस बाबत कोई लिखित शासनादेश पारित नहीं किया गया था।
कमला कहतीं हैं, "हम जानते थे कि इन घोषणाओं को हासिल करने के लिए रसोइया बहनों को सड़क पर आना पड़ेगा, लड़ना पड़ेगा, अपनी आवाज़ मुख्यमंत्री तक पहुंचानी पड़ेगी इसलिए मिड डे मील वर्कर्स को लेकर उनका संगठन चरणबद्ध आंदोलन कर रहा है। 12 अक्टूबर को भी हुआ और आगे भी होता रहेगा।"
वे बताती हैं आगामी 21 नवंबर 2022 को अपनी तमाम माँगो के साथ दिल्ली के जंतर मंतर पर देश भर से हजारों स्कीम वर्कर्स का जुटान होगा जो केंद्र में बैठी सरकार को यह बतायेंगी कि आपकी योजनाओं का कितना बुरा हाल हो रहा है। न केंद्र न राज्य स्कीम वर्कर्स को पूर्ण भुगतान कर रहे हैं और न ही उनके लिए सम्मानजनक जीवन की गारंटी की जा रही है। उनके मुताबिक इस जुटान में रसोइया बहनों की भी भागीदारी रहेगी और उत्तर प्रदेश से भी रसोइयाँ अपनी माँगो के साथ दिल्ली कूच करेंगी। वे बताती हैं यह जुटान आल इंडिया स्कीम वर्कर्स फेडरेशन ( संबद्ध एक्टू) के बैनर तले होगा जिससे उनका संगठन भी सम्बद्ध है।
तो वहीं लंबे समय से स्कीम वर्कर्स के बीच काम कर रहे और कर्मचारी संगठन एक्टू के प्रदेश अध्यक्ष विजय विद्रोही कहते हैं हमारी यह लड़ाई न्यूनतम वेतन लागू करने की है इसलिए हमारी रसोइया बहनों का भी नारा है डेढ़ हजार में दम नहीं, न्यूनतम वेतन से कम नहीं, वे कहते हैं हम बार बार सरकार को इलाहाबाद हाई कोर्ट का वह फैसला याद दिलाना चाहते हैं जो उसने 2020 दिसंबर को दिया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकारी व अर्द्ध सरकारी प्राइमरी स्कूलों मे मिड-डे मील बनाने वाले रसोइयों को बड़ी राहत देते हुए न्यूनतम वेतन का भुगतान करने का आदेश दिया था कोर्ट ने 2005 से वेतन का अंतर जोड़कर सभी रसोइयों को देने का निर्देश भी दिया था। यह आदेश देते हुए कोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा था कि मिड-डे मील रसोइयों को न्यूनतम से भी कम मात्र एक हजार रुपये वेतन देना बंधुआ मजदूरी है, जो संविधान के अनुच्छेद 23 में प्रतिबंधित किया गया है।
वे कहते हैं कोर्ट ने कहा था कि हर नागरिक को मूल अधिकार के हनन पर कोर्ट आने का अधिकार है। वहीं सरकार का भी संविधानिक दायित्व है कि किसी के मूल अधिकार का हनन न होने पाए। सरकार न्यूनतम वेतन से कम वेतन नहीं दे सकती। कोर्ट ने केन्द्र व राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि मिड-डे मील बनाने वाले प्रदेश के सभी रसोइयों को न्यूनतम वेतन अधिनियम के तहत निर्धारित न्यूनतम वेतन का भुगतान सुनिश्चित किया जाए , लेकिन इस सरकार ने तो कोर्ट के आदेश की भी खुले आम धज्जियां उड़ा दीं। वे कहते हैं कि अब यह लडाई और व्यापक हो चली है क्योंकि अब मसला लंबित मानदेय भुगतान और न्यूनतम वेतन लागू करने के साथ नवीनीकरण के नाम पर छटनी को रोकने तक पहुँच गई है। एक तरफ 6 माह का मानदेय बकाया है , कुछ जगहों में वर्षों की बकायेदारी है, अनुसूचित जनजाति की रसोइया कर्मियों का 2 वर्ष से अधिक समय से बकाया है , बेहद गरीब तबके के रसोइया कर्मी भुखमरी झेलने के लिए अभिशप्त हैं ।
निम्न माँगो को लेकर आंदोलन हुआ:
1. नवीनीकरण/ चयन के नाम पर 15 वर्षों से भूखे रहकर बच्चों को खाना खिलाने वाली रसोइया कर्मियों के नवीनीकरण / चयन के शासनादेश दिनांक 31/08/2022 वापस लिया जाए
2. 6 माह के बकाया मानदेय का एकमुश्त भुगतान कराया जाए व अब तक के सभी बकाया अवशेष का आकलन कर भुगतान कराया जाए
3. 15 वर्षों की अबाध सेवा के आधार पर स्थाई करो व उच्च न्यायालय के आदेश का अनुपालन कर 2005 से न्यूनतम वेतन का भुगतान करो
4. उम्र के आधार पर निष्कासन पर 2 लाख ग्रेच्युटी और 10 हजार पेंशन दो
सचमुच हालात बेहद खराब हैं। दूसरों को खाना खिलाने वाले खुद भूखे हैं। उच्च न्यायालय तक के भी आदेश को नजरंदाज किया जाना किसी भी लिहाज से राजतंत्र की आदर्श स्थिति नहीं दर्शाती। वादे चुनावी बनकर रह गए। लेकिन वोटरों ने तो वोट दिया और जिताया भी, इस उम्मीद से कि सरकार गठन के बाद शायद उनकी सुध ले ली जाए, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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