अपने वर्चस्व को बनाए रखने के उद्देश्य से ‘उत्तराखंड’ की सवर्ण जातियां भाजपा के समर्थन में हैंः सीपीआई नेता समर भंडारी
उत्तराखंड भारत का एक ऐसा राज्य है जहां सवर्ण जातियां 60% से भी अधिक संख्या में है। राज्य की राजनीति की धुरी में यही लोग काबिज हैं। यहां पर दलित या पिछड़ी जातियों के संगठित होने की कोई चर्चा नहीं सुनाई पड़ती है। न ही समाज के निचले तबके दलित के दावे का कोई सुराग नजर आता है। यह देवताओं की भूमि है, जो हिंदुओं के पवित्र धर्म स्थलों से युक्त है; बर्फीली चोटियों, प्राचीन जंगलों और जल प्रपातों की गड़गड़ाहट से सरोबार है। यहां के लोग रक्षा बलों में भर्ती होते आये हैं- और सीमाओं पर लड़ते हुए अपनी जान गंवा देते आये हैं; यह वह जगह है जहां बच्चे कुलीन शिक्षण संस्थानों में अध्ययन के लिए बोर्डिंग स्कूलों में आते हैं और वैज्ञानिक वनस्पतियों एवं जीवों का अध्ययन करने के लिए आते हैं।
इसके बावजूद यह सुखद स्थल वह भी है जहां पर नफरत का घोसला है, जहां पर धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अविवेकपूर्ण हमलों में एकाएक हमले किये जाते हैं। यह वह स्थान है जहां पर हिंदू राष्ट्र के निर्माण के प्रयोग चल रहे हैं। यह वह जगह है जहां सन्यासियों के द्वारा नरसंहार पर विचार-मंथन किया जा रहा है। वास्तव में यह आप की गलती नहीं कही जा सकती यदि आप यह सवाल करते हैं कि: क्या उत्तराखंड में इसकी मनमोहक खूबसूरती और घृणित राजनीतिक कुरूपता के बीच, उच्च जातियों के वर्चस्व और भारतीय जनता पार्टी के उभार के बीच, या इसके सशस्त्र बलों के गढ़ होने और हिंदुत्व की भी नई प्रयोगशाला के बीच में कोई रहस्यमय संबंध है?
इन अंतर्विरोधों की भूमि की थाह लेने के लिए, न्यूज़क्लिक ने समर भंडारी से बातचीत की, जो 18 वर्षों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उत्तराखंड के राज्य सचिव रहे हैं। हमारी बातचीत के बीच में, हमारे साथ उनकी पत्नी चित्रा गुप्ता भी शामिल हो गईं, जो चाय बागान मजदूर सभा और स्कूल वर्ग चतुर्थ कर्मचारी सभा की प्रमुख हैं। प्रस्तुत है बातचीत के मुख्य अंश:
उत्तराखंड इन दिनों धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने की वजह से सुर्ख़ियों में रहा है। क्या आगामी राज्य विधानसभा चुनावों में इस बार सांप्रदायिकता या हिंदुत्व प्रमुख मुद्दा बनने जा रहा है?
भारतीय जनता पार्टी के लिए प्रमुख एजेंडा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है। पिछले महीने हरिद्वार में हुई धर्म संसद में जिस प्रकार की भाषा का इस्तेमाल किया गया, जिस तरह से एक अल्पसंख्यक समुदाय [मुस्लिम] को निशाने पर लिया गया और उनके नरसंहार का आह्वान किया गया, उसे देखते हुए इस बात में कोई संदेह नहीं कि जो लोग खुद को संत और महात्मा कहते हैं, वे सभी लोग भाजपा के एजेंडा को आगे बढ़ा रहे हैं।
हमें इस बात को स्वीकार करना होगा कि उत्तराखंड में 2014 के बाद से [जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने] भाजपा मतदाताओं का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने में सफल रही है। इसकी समस्या यह है कि जिस पर्वतीय क्षेत्र की बेरोजगारी, महंगाई और आर्थिक पिछड़ेपन के मुद्दों को खत्म करने के नाम पर एक अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड को आधार बनाया गया था, उसमें हालात सिर्फ बद से बदतर ही हुए हैं।
हरिद्वार की धर्म संसद में मुस्लिमों को निशाना बनाया गया था – और वे उत्तराखंड की आबादी का करीब 14% ही हैं। लेकिन दक्षिणपंथी समूहों ने ईसाईयों तक को नहीं बख्शा है, क्या ऐसा नहीं है? जबकि ईसाई कुल आबादी का मात्र 0.37% ही हैं।
उन्होंने ईसाइयों तक को नहीं बख्शा है। उदहारण के लिए, उन्होंने रुड़की में एक चर्च पर हमला किया और आसपास की चीजों को तोड़-फोड़ दिया, महिलाओं और बच्चों को डराया-धमकाया। उत्तराखंड पुलिस को उनके घुटनों के बल ला दिया गया है। पुलिस के द्वारा भीड़ की हिंसा के खिलाफ कड़े कदम नहीं लिए गए हैं, जैसा कि उन्हें लेना चाहिए था और यही कारण है कि उत्तराखंड के धार्मिक अल्पसंख्यक आज इतना असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। यह पहली बार है कि मसूरी, सतुपुली, अगस्तमुनि आदि जैसे पर्वतीय शहरों में जहां धार्मिक अल्पसंख्यक संख्या में कम है और जहां पर सांप्रदायिक सद्भाव हमेशा से बना हुआ था, वहां पर भी ईसाइयों पर हमले देखे गए हैं।
लेकिन भाजपा कैसे उत्तराखंड में सांप्रदायिक माहौल की बिगाड़ने में कामयाब रही?
इसकी एक प्रमुख वजह यह है कि कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष-सांप्रदायिक मुद्दों पर लगातार रक्षात्मक मुद्रा में रही है। सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के रूप में और उत्तराखंड में दो बार सत्ता में रहने (2002-2007 और 2012-2017) के बाद भी यह सांप्रदायिकता के खिलाफ उपयुक्त वैचारिक जवाब तैयार कर पाने में विफल रही है। यह लोगों तक सांप्रदायिकता के खिलाफ जंग को ले जाने में भी असफल रही है। मैं यह कहूंगा कि कांग्रेस ने इस काम को पूरे दिल से करने की कोशिश तक नहीं की है।
स्पष्ट तौर पर कहूं तो कांग्रेस लगातार इस संदेह से घिरी रही है कि यदि उसने जोशो-खरोश के साथ भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे का जवाब दिया और मुखर प्रतिक्रिया दी, तो संभव है कि बहुसंख्यक समुदाय पार्टी के खिलाफ खड़ा हो जाए। मुझे लगता है कांग्रेस ने चलने के लिए एक गलत राह को चुना है। कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन की उपज है। धर्मनिरपेक्षता इसकी वैचारिक विरासत है। इस प्रकार की पार्टी को सांप्रदायिकता का मुकाबला कहीं अधिक उत्साह और कहीं अधिक निडरता से करना चाहिए था, जितना कि इसके द्वारा किया जा रहा है।
आप ऐसा किस आधार पर कह सकते हैं?
वो चाहे हरिद्वार में धर्म संसद के खिलाफ हो या धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमलों के संबंध में हो, कांग्रेस की प्रतिक्रिया हर बार मौन रही है। इसमें आत्मविश्वास और आक्रामकता का सर्वथा अभाव देखने को मिला, जिसे किसी भी प्रमुख विपक्षी दल के लिए विशिष्ट माना जाता है। कांग्रेस ऐसे किसी भी क्षेत्र में प्रवेश करने से हिचक रही है जहां धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के बीच लड़ाई लड़ी जा रही हो।
लेकिन क्या कांग्रेस के द्वारा भाजपा के शासन की विफलता पर बात की जा रही है?
इसमें कोई शक नहीं है कि कांग्रेस लगातार बिगडती आर्थिक स्थिति पर मुखर है। लेकिन समस्या यह है कि भाजपा के शासन में जो भी कमी है उसे इसके सांप्रदायिक या हिंदुत्व की बातों से ढक दिया जा रहा है। अखबार और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपना सारा ध्यान सनसनीखेज मुद्दों, विशेषकर सांप्रदायिक मुद्दों पर केंद्रित कर रखा है। उत्तराखंड में सांप्रदायिक उन्माद को बढ़ावा देने में हिंदी समाचार पत्रों ने विशेष तौर पर सबसे प्रमुख भूमिका निभाने का काम किया है।
दूसरे शब्दों में कहें तो आपके कहने का अभिप्राय यह है कि चूंकि सांप्रदायिकता का डटकर मुकाबला नहीं किया जा रहा है, इसलिए आर्थिक एजेंडा हिंदुत्व की बयानबाजी की कर्कशता में दफन हो जा रहा है।
ठीक यही सब हो रहा है। संघ परिवार ने लोगों को अपने पक्ष में करने के लिए धार्मिक भावनाओं का लगातार दोहन करने का काम किया जा रहा है। दुर्भाग्य की बात यह है कि इस सबसे उसे लाभ भी हो रहा है। जब तक इसे चुनौती नहीं दी जाती है, जब तक लोगों को इस बात की शिक्षा नहीं दी जाती है कि संघ परिवार संविधान, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के विरोध में है, मुझे लगता है कि एक बेहतर उत्तराखंड, एक नए उत्तराखंड के निर्माण का सपना अधूरा ही रहने वाला है। इस सपने को सिर्फ तभी हासिल किया जा सकता है जब हिंदुत्व के द्वारा पेश किये गए आर्थिक मुद्दों और राजनीतिक चुनौती दोनों से ही एक साथ निपटा जाए।
आमतौर पर ऐसा विश्वास किया जाता है और ऐसा लगातार ओपिनियन सर्वे में भी अनुभवजन रूप से दिखाया जा रहा है कि ऊंची जातियों का रुख भाजपा की तरफ मजबूती से झुका हुआ है। अब, ऐसा कोई राज्य नहीं है जहां पर उत्तराखंड की तरह उच्च जातियां संख्यात्मक रूप से इतनी प्रभावशाली हों। वे यहां पर तकरीबन 60% हैं। इस जनसांख्यिकी का उत्तराखंड की राजनीति पर क्या प्रभाव है?
उच्च जातियां भाजपा के प्रति बेहद लगाव रखती हैं।
इसका तो यह अर्थ निकला कि चुनावों से कई हफ्ते पहले ही भाजपा को अच्छी-खासी बढ़त मिल गई है?
मेरे विचार में आर्थिक समस्याओं के कारण उच्च जातियों के उपर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। यदि कांग्रेस उच्च जातियों को विभाजित कर पाने और उनके एक महत्वपूर्ण हिस्से को अपने पक्ष में कर पाने में सक्षम रहती है, तो उस स्थिति में भाजपा की समस्याएं बढ़ सकती हैं। आर्थिक असंतोष यहां पर बना हुआ है। लेकिन देखने वाली बात यह है कि क्या कांग्रेस, संगठनात्मक एवं वैचारिक रूप से उच्च जातियों के बीच के इन असंतुष्टों को अपने पीछे एकजुट कर पाने में कामयाब हो सकती है या नहीं।
ऐसा क्यों है कि सवर्ण जातियों का झुकाव भाजपा की ओर है?
सवर्णों को लगता है कि भाजपा का हिंदुत्व उनका अपना खुद का एजेंडा है।
ऐसा क्यों?
ऐसा इसलिए क्योंकि सवर्णों को लगता है कि उनके सदियों से चले आ रहे वर्चस्व को सिर्फ भाजपा ही बरकरार रख सकती है। उन्हें यह भी लगता है कि कांग्रेस का रुख दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के प्रति नरम है। उत्तराखंड की आबादी के इन दो वर्गों के हित परस्पर विरोधी हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सवर्णों को लगता है कि सिर्फ भाजपा ही उनके वर्चस्व को बरकरार और कायम रख सकती है।
चूंकि उच्च जातियां उत्तराखंड की आबादी का 60% हैं, ऐसे में क्या उनके बीच में यहां पर वृहत्तर वर्गीय विषमता नहीं होगी?
बिल्कुल ऐसा है, यदि आप उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों का सर्वेक्षण करें तो आप पाएंगे कि उच्च जातियों में जो मध्यम और उच्च वर्ग हैं वे बेहद अल्प संख्या में हैं। कृषि की अस्थिर प्रणाली और रोजगार के अवसरों की भारी कमी यहां के लोगों की आर्थिक गतिशीलता के लिए सबसे बड़ी बाधक बनी हुई हैं। लेकिन उच्च जातियों के मध्यम वर्ग के पास अपने सामाजिक समूह में निम्न वर्ग के लोगों के बीच में जबर्दस्त वैचारिक प्रभाव बना हुआ है। यहां का मध्य वर्ग मुखर है और मीडिया पर भी उसका नियंत्रण बना हुआ है। यह उनका विश्व दृष्टिकोण है जिसके जरिये सवर्णों के निम्न वर्ग देख सकते हैं।
लेकिन क्या यह वामपंथ के लिए भी एक अवसर नहीं मुहैय्या करता है कि वह सभी जातियों के निम्न वर्गों को एकजुट कर वर्गीय एकजुटता को तैयार कर सके?
यह बात सच है कि समय के साथ वर्गीय एकजुटता के निर्माण में वामपंथ की भूमिका कमजोर हुई है। वामपंथ को लोकप्रिय चेतना या आर्थिक नीतियों को प्रभावित करने में जितना प्रयास हुआ उससे कहीं अधिक प्रकट भूमिका में होना चाहिए था। या तो हम व्यापक समाज में इसको लेकर दिखने वाली बेचैनी को कमी पा रहे हैं या इसे अपनी राजनीतिक कार्यवाइयों के माध्यम से प्रतिबिंबित कर पाने में विफल रहे हैं।
यदि मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ बयानबाजी और वास्तविक हिंसा इन दोनों की बात करें, तो क्या यह कहना सही रहेगा कि उत्तराखंड का अधिकांश हिस्सा हिंदुत्व में तब्दील हो चुका है?
मैं इस बात को पक्के तौर पर कह सकता हूं कि उत्तराखंड का खामोश बहुमत भाजपा के द्वारा जो कुछ किया जा रहा है उसे नापसंद करता है। लेकिन जब भाजपा के द्वारा अल्पसंख्यकों को अलग किया जा रहा और सार्वजनिक रूप से यह संदेश दिया जा रहा है कि उसके द्वारा ही सिर्फ बहुसंख्यक समुदाय के हितों की देखभाल की जायेगी, तो ऐसे में खामोश बहुसंख्यक आबादी को भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडा के विरोध में सामने आना चाहिए। दुर्भाग्य की बात है कि मूक बहुमत की उपस्थिति को इसलिए महसूस नहीं किया जाता क्योंकि इसने खुलकर अपनी बात नहीं रखी है।
इस मूक बहुमत एक आवाज़ क्यों नहीं बन पाई है?
ऐसा इसलिए क्योंकि एक भय के वातावरण को खड़ा किया गया है। जो कोई भी विरोध करता है उसके खिलाफ मामले दर्ज कर दिए जाते हैं। लोगों को लगता है कि यदि बोलेंगे तो अपने लिए खतरा मोल ले लेंगे। मेरा विश्वास करें, ऐसे लोगों की एक बड़ी तादाद मौजूद है जो न सिर्फ इन हालातों से बेहद परेशान हैं बल्कि उत्तराखंड के सांप्रदायिक एकता को छिन्न-भिन्न करने के लिए किये जा रहे प्रयासों को खारिज करते हैं।
[साक्षात्कार के इस बिंदु पर, समर भंडारी की जीवनसाथी चित्रा गुप्ता हमसे जुड़ती हैं।]
पर्यावरण से जुड़े मुद्दे जैसे कि आल-वेदर चार धाम रोड और 11,000 पेड़ों को काटकर नए देहरादून-दिल्ली राजमार्ग के प्रस्तावित निर्माण जैसे मुद्दे राष्ट्रीय सुर्खियां बटोर रहे हैं। ऐसा क्यों है कि ये चुनावी मुद्दे नहीं बन पा रहे हैं?
यहां तक कि विपक्षी दलों ने भी इन्हें मुद्दा नहीं बनाया है। उत्तराखंड का पर्यावरण लगातार खराब हो रहा है, जिसके कारण प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं। चार धाम राजमार्ग के निर्माण के लिए हजारों की संख्या में [अनुमातः 56,000 की संख्या में] पेड़ों को काट दिया गया है। इस प्रकार का विकास उत्तराखंड की भौगौलिक विशिष्टताओं के साथ मेल नहीं खाता है।
विपक्ष इन्हें मुद्दा क्यों नहीं बना पा रहा है? आखिरकार यहीं से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी।
ऐसा इसलिए क्योंकि सभी राजनीतिक दलों ने नई आर्थिक नीतियों को अंगीकार कर लिया है। उनमें से सभी ने राष्ट्र की मनोदशा को बदलने में अपनी भूमिका निभाई है [कि ‘विकास’ पर्यावरण जैसे मुद्दों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।] राजनीतिक दलों को लगता है यदि उन्होंने पर्यावरण से संबंधित मुद्दे उठाये तो उन्हें वोट हासिल नहीं होंगे।
ऐसा क्यों? मैं समझता हूं कि उत्तराखंड के लोग अपने पहाड़ों और नदियों और स्वच्छ हवा से प्रेम करते हैं।
चित्रा गुप्ता: मेरे विचार में उत्तराखंड के लोगों को अब पहाड़ों से कुछ भी लेना-देना नहीं रह गया है। पहाड़ों में मूलभूत आवश्यकताओं का घोर अभाव है, न कोई स्कूल, न अस्पताल, न सड़कें और न ही रोजगार के कोई अवसर इत्यादि उपलब्ध हैं। हमारे पास आज भूतिया गांव वजूद में हैं। लोग वहां से पूरी तरह से विस्थापित हो चुके हैं। जिसका परिणाम यह हुआ है कि उन्हें अब इस बात की कोई परवाह नहीं है कि सड़कें बन रही हैं या पेड़ों को काटकर इनका चौडीकरण किया जा रहा है। पहाड़ों का अब लोगों के जीवन के अनुभव वह महत्व नहीं रहा, जितना पहले कभी हुआ करता था।
समर: यही वजह है कि सभी वामपंथी दलों का कहना है कि विकास की नीतियों को उत्तराखंड की भौगौलिक विशिष्टताओं के अनुरूप होना चाहिए। हरिद्वार और देहरादून के लिए जो चीज अच्छी हो सकती है, जरुरी नहीं कि वह पहाड़ों की गोद में बसने वाले इंसानों के लिए भी अच्छी हो। हालांकि, सरकार लोगों को मैदानी इलाकों में चल रहे शहरीकरण की छवि के साथ लुभाने में लगी हुई है। यह सब उत्तराखंड के लिए विनाशकारी साबित हो रहा है।
मेरे लिए इस बात पर विश्वास कर पाना कठिन हो रहा है कि यहां के लोगों को इस बात की कोई परवाह नहीं है कि उनकी नदियों और पहाड़ों के साथ क्या हो रहा है।
चित्रा: आपने चिपको आंदोलन का हवाला दिया है। इसके नेतृत्व ने लोगों को संगठित करने का काम किया था। वे नेता आज कहां हैं? उनके पास यहां के लोगों और पर्यावरण के बीच की कड़ी की बेहद गहरी समझ थी। जैसा कि आपने कहा, यह लोगों और उनके नेताओं दोनों के जीवंत अनुभवों का हिस्सा था। मुझे इस बात को कहते हुए खेद है कि आज के पर्यावरणविदों के पास इस जुड़ाव को लेकर कोई जानकारी नहीं है। क्या मुझे आपकी रोमांटिक धारणा को चकनाचूर कर देना चाहिए? वे सभी जिन्होंने नौकरियों की तलाश में अपने गांवों का परित्याग कर दिया था आज वे वापस लौटने के बारे में सोचते तक नहीं हैं। यही वजह है कि आपके पास उत्तराखंड में 300 से अधिक भूतिया गांव हैं। वे पूरी तरह से खाली पड़े हैं। वहां पर अब कोई नहीं रहता है।
समर: इसके साथ ही बार-बार होने वाले भू-स्खलनों ने भी उन स्थितियों को जन्म दिया है जिसमें गांव के गांव को स्थानांतरित किये जाने की जरूरत है। लेकिन सरकार इस विषय पर कोई ध्यान ही नहीं दे रही है।
चित्रा: सरकार भला गांवों को स्थानांतरित करने पर ध्यान क्यों देने लगी? ये सभी छोटे-छोटे गांव हैं, जिनमें से कुछ में तो सिर्फ 20-30 परिवार ही रहते हैं। चुनावी राजनीति में सिर्फ संख्या बल की बात होती है। ऐसे में, राजनीतिक दलों के लिए उनका कोई महत्व नहीं है। और पलायन की वजह से वैसे भी ऐसे हालात बनते जा रहे हैं जहां पर गावों को स्थानांतरित करने की जरूरत ही अपने आप समाप्त हो जायेगी, क्योंकि वहां पर स्थानांतरित करने के लिए कोई बचेगा ही नहीं।
उत्तराखंड हमेशा से रक्षा बलों के लिए महत्वपूर्ण भर्ती क्षेत्रों में से एक रहा है। यहां की राजनीति में रक्षा अधिकारियों की क्या भूमिका है?
समर: वे एक अच्छा-खासा वोट-बैंक हैं। यदि उनके परिवारों को इसमें जोड़ दिया जाए तो वे संभावित रूप से कुल मतदाताओं का 3% से 4% होने चाहिए।
चित्रा: सेना के लोगों की जिंदगी काफी अच्छी है। भला उन्हें राजनीति के बारे में चिंता क्यों करनी चाहिए।
रक्षा बलों का झुकाव किस पार्टी की तरफ दिखता है - भाजपा या कांग्रेस?
समर: वे बड़े पैमाने पर भाजपा के साथ हैं। हालांकि कुछ कांग्रेस के साथ भी हैं।
भाजपा की ओर उन्हें कौन सी चीज आकर्षित करती है?
समर: राष्ट्रवाद।
चित्रा: और साथ ही भाजपा का मुस्लिम-विरोधी मुद्दा।
रक्षा बलों से जुड़े लोग मुस्लिम-विरोधी मुद्दे से क्यों आकर्षित होते हैं?
चित्रा: मुझे नहीं लगता कि हमने कभी भी मुसलमानों से प्रेम किया हो। पहले, लोग मुस्लिम-विरोधी इसलिए थे क्योंकि वे निम्न जातियों के खिलाफ थे। लेकिन अब एक ऐसी तस्वीर का निर्माण किया गया है कि यदि मुसलमानों पर काबू नहीं पाया गया तो वे भारत पर कब्जा कर लेंगे। और यदि उन्होंने सत्ता पर कब्जा कर लिया तो भारत एक और पाकिस्तान बन जायेगा। पहले, हिंदू सिर्फ यही सोचते थे कि उनका धर्म मुसलमानों के धर्म से अलग है। लेकिन हिंदुओं को अब मुसलमानों से डर महसूस कराया जा रहा है।
जो कोई भी यहां की यात्रा पर आता है, उसका कहना है कि देहरादून और जिन्हें हिल स्टेशन कहा जाता है वहां पर ताबड़तोड़ ढंग से निर्माणा कार्य होते देख सकता है। यहां की बिल्डर लॉबी किस स्तर तक उत्तराखंड की राजनीति को प्रभावित करती है?
समर: 2000 के बाद से, जब से उत्तरप्रदेश से अलग एक अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड को बनाया गया था, तब से चाहे कांग्रेस अथवा भाजपा सत्ता में रही हो, नेताओं और बड़े बिल्डरों, शराब व्यवसायियों और रेत-बजरी के ठेकेदारों के बीच में हमेशा से एक अपवित्र गठबंधन रहा है। इस अपवित्र गठबंधन का अपना रियल एस्टेट माफिया अभियान रहा है जिसने लोगों की छाती पर तीखी छाप छोड़ी है। लूट का दूसरा नाम यहां पर विकास है। इस पर्वतीय क्षेत्र में भूमि का प्रश्न एक संवेदनशील मुद्दा है। त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल के दौरान [पिछले पांच वर्षों में तीन भाजपा मुख्यमंत्रियों में पहले], भूमि नीति में और भी ढील दे दी गई थी। संपन्न लोग जमीनें खरीदते जा रहे हैं। इससे लोगों में बेचैनी और आक्रोश व्याप्त है।
क्या बिल्डर लॉबी भी सांप्रदायिक एजेंडे का समर्थन करती है?
समर: सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। उनका ध्यान उन नीतियों पर बना रहता है जो उन्हें विकास के नाम पर भारी मुनाफा कमाने की इजाजत देते हैं। सत्ता में जो भी दल होगा वे उसके साथ खड़े नजर आयेंगे। ठीक यही सब चीजें आज भी हो रही हैं।
(एजाज़ अशरफ़ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
मूल रुप से अंग्रेज़ी प्रकाशित इस इंटरव्यू को नीचे के लिंक पर क्लिक कर पढ़ा जा सकता है।
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