उत्तराखंड चुनाव : जंगली जानवरों से मुश्किल में किसान, सरकार से भारी नाराज़गी
उत्तराखंड राज्य के विधानसभा चुनावों के बीच प्रदेश भर के किसान अपना दर्द लिए बैठे हैं। प्रदेश भर में किसान अपनी मांगों को लेकर मुखर हैं और अपने प्रतिनिधियों से सवाल कर रहे हैं, लेकिन शायद ही कोई प्रतिनिधि है जो उनके सवालों का उचित जवाब दे सके। केंद्र की सरकार और राज्य की सरकार दोनों ने ही किसानों से 2022 तक उनकी आय दोगुनी करने का वादा किया था। दोनों ही जगह भारतीय जनता पार्टी का शासन है लेकिन चुनावी सभा या प्रचार में उनके नेता इस बात का ज़िक्र तक नहीं कर रहे हैं।
पूरे राज्य के किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य, मंडी, बढ़ती खेती लागत के साथ ही पहाड़ों में जंगली जानवरों का प्रकोप और लगातार बंजर होती खेती की ज़मीन जैसे तमाम मुद्दे अहम हैं, जिन्हें इस सरकार ने संबोधित करने का प्रयास नहीं किया है।
न्यूज़क्लिक की चुनावी टीम ने राज्य के कई इलाके उधमसिंह नगर, हल्द्वानी, अल्मोड़ा, चमोली, रुद्रप्रयाग पौड़ी, टिहरी के साथ ही देहरादून सहित कई इलाकों का दौरा किया और वहां के लोगों से उनके मुद्दों को समझने का प्रयास किया। हमने सभी इलाकों में किसानों को परेशान ही देखा हालाँकि मैदानी किसानों के हालात पहाड़ी किसानो से भिन्न ज़रूर थे परन्तु वो भी सरकार की गलत नीतियों से बुरी तरह प्रभावित दिखे।
जंगली जानवर का भय
अगर हम पहाड़ में किसानों के हालात देखें तो उन्हें अपने खेतों की सिंचाई से लेकर बाकि सुविधाओं के लिए प्रकृति पर निर्भर रहना पड़ता है। हाल ही में जिस तरह से पहाड़ो पर जंगली जानवर आक्रामक हुए हैं उससे किसानो की फसल को तो नुकसान हुआ ही है साथ ही ये उनके पशुधन के लिए खतरा बन गया है।
रूद्रप्रयाग विधान सभा के जखोली इलाके के डंगवाल गाँव के 45 वर्षीय हेमंत सिंह रावत अपनी बकरियों को हाथ में एक तेज़ धार वाली हँसिया नुमे हथियार को साथ लेकर चरा रहे थे। हमने उनसे पूछा कि आप इस तरह से क्यों घूमते हैं तो उन्होंने बताया कि अपनी और अपने पशु की सुरक्षा के लिए आजकल हर ग्रामीण रखता है क्योंकि पता नही कब कोई जंगली जानवर, तेंदुआ, जंगली सूअर या अन्य कोई जानवर हमला कर दे।
एक अन्य 22 वर्षीय नौजवान प्रदीप सिंह भी बकरी चरा रहे थे उन्होंने बताया कि पहले हमने बंदर और भालुओं के डर से खेती छोड़ी और अब लग रहा है हमें अपना पशुपालन भी छोड़ना पड़ेगा उन्होंने कहा- पिछले चार-पांच सालों में जंगली जानवरों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है जबकि सरकार ने इनके नियंत्रण के लिए कुछ भी नहीं किया है।
टिहरी जिले के माला अप्पू गांव की 80 वर्षीय हेमा देवी ने बताया कि उन्होंने कुछ दिन पहले ही आठ किलो आलू बोया था, जिसे बंदरों ने पूरा खोद दिया। जब हम उनसे बात कर ही रहे थे उसी वक्त वहां बंदरों के एक झुंड आ गया जो उनकी फसल को खराब करने लगा।
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हेमा देवी ने कहा बन्दरों ने हमारा जीना हराम कर दिया है अब वो खेतों से हमारे घरो तक आ गए हैं। हम अपने घर में भी कुछ खाने को रखते हैं वो उसे भी लेकर भाग जाते हैं।
इसी तरह चमोली जिले के थराली विधानसभा के किसानों ने भी बताया कि भालू उनकी पूरी-पूरी फसलें बर्बाद कर दे रहे हैं।
किसानो ने कहा सरकार इनके रोक के लिए तो कुछ नहीं कर रही है बल्कि शहरों से बंदरों को पकड़-पकड़ के गांव के पास जंगलों में छोड़ जा रही है।
हेमंत ने बताया, "पहले हमारे इलाके में कोई भी तेंदुआ आदि नहीं था परन्तु अब कुछ सालों से इनकी संख्या अचानक बढ़ गई है।" उन्होंने बताया कि वे लोग बकरी को पालते हैं और उसे बड़ा करके बेचते हैं जो उनकी आय का एक स्रोत होता है, परन्तु महीने दो महीने में उनकी बकरियों को तेंदुआ पकड़ कर ले जाता है। एक बकरी जाने का मतलब है आपकी कई महीनों की आमदनी का चले जाना।
उत्पाद का उचित बाज़ार न होना
चमोली जिले के मिंग गांव के किसान जगबीर सिंह ने कहा कि हमारे इस जिले में नारंगी यानि संतरे और माल्टा की अच्छी पैदावार होती है लेकिन उसका उचित बाज़ार न होने के कारण वो सड़ गलकर बर्बाद हो जाती हैं। उन्होंने कहा सरकारों ने किसानों को लेकर कभी कोई सार्थक नीति नहीं बनाई जो बनाई जानी चाहिए थी।
उन्होंने कहा ये पहाड़ी क्षेत्र है इनकी अपनी समस्याएं है। मेहनत ज़्यादा है और फसल कम होती है और जो होता भी है उसका दाम नहीं मिलता। इसलिए लोगों ने यहाँ अब खेती करना ही छोड़ दिया है।
इसी तरह पहाड़ों में कई तरह की सब्जी और दाल उगाने वाले किसान भी हैं वे भी अपने उचित दाम के लिए भटकते हैं। इस पूरे इलाके में किसानो ने एक उचित विपणन व्यवस्था के भाव की बात कही जिसे किसी भी सरकार ने संबोधित करने का प्रयास नहीं किया।
गढ़वाल क्षेत्र के नगला गांव के किसान योगेश भट्ट ने कहा कि हमें पानी की गंभीर समस्या का सामना करना पड़ता है। क्योंकि हमारे पास सिंचाई का कोई कृत्रिम यानी मानव निर्मित साधन नही है। हमें प्राकृतिक वर्षा पर ही निर्भर रहना पड़ता है। अगर बारिश होती है तो हम कुछ फसल उगा पाते हैं वरना सब वीरान ही रहता है।
ये सिर्फ भट्ट की ही नहीं बल्कि पूरे पहाड़ की समस्या है क्योंकि यहाँ मैदानी इलाकों की तरह पंपिंग सैट लगा नहीं सकते इसलिए इनके लिए सिंचाई एक गंभीर समस्या बनी हुई है।
ये बेहद चिंताजनक है जिस राज्य से कई नदियों का उद्गम हो उस राज्य के किसान पानी के अभाव में रहें। ये साफतौर पर दिखता है कि किसी भी सरकार ने किसानों और उनकी समस्या को प्राथमिकता नही दी है।
चमोली जिले के महिपाल सिंह रावत ने कहा, "ये सरकार लोगों को दो-दो हज़ार देकर बेवकूफ बना रही है जबकि दूसरी तरफ वो खाद से लेकर डीज़ल तक महंगा करके किसानों से कई गुना वसूल रहे हैं।
किसानी से दूर होते किसान
पहाड़ों में किसानों की नई पीढ़ी किसानी से दूर जा रही है। वो लगातार शहरों में पलायन कर रही है। लोगों के किसानी छोड़ने पर हेमा देवी कहती हैं छोड़ेंगे नहीं तो क्या करेंगे भूखे मरेंगे? क्योंकि खेती में अब फायदा नही है। इससे घर भी नही चल सकता है।
दूसरा पहाड़ों में किसानों के पास खेती की ज़मीन भी बहुत कम है। इसलिए बहुत से किसान सरकारी योजनाओं का लाभ नही ले पाते हैं। इसके मुकाबले मैदानी इलाकों में किसानों की खेती बढ़ी है। उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ भी मिल जाता है। यहां किसानों के पास अधिकतम कृषि भूमि दो हेक्टेअर क्षेत्र में है। उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र के किसानों की तुलना में ये बेहद कम है।
यही वजह है कि राज्य गठन के बाद से अब तक बड़ी संख्या में किसानों ने पलायन किया है।
राज्य गठन के बाद के 22 वर्षों में कृषि भूमि का क्षेत्रफल करीब 15 फीसदी घटा है। राज्य गठन के वक्त उत्तराखंड में कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेयर था, जो अब 6.98 लाख हेक्टेयर पर रह गया है। यानी पिछले 18 सालों में 72 हज़ार हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर में तब्दील हुई है। ये सारी वजहें किसानों को खेती से दूर कर रही हैं।
किसान आंदोलन का व्यापक असर मैदानी इलाकों में
किसानों के सवाल पर राष्ट्रीय किसान नेता अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव विजू कृष्णन जो लंबे से उत्तराखंड के किसानों के बीच आते रहे हैं और उनके आंदोलनों का एक हिस्सा रहे हैं, उन्होंने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा कि उत्तराखंड और पूरे देश में किसानों के विकास को लेकर एक नीति की आवश्यकता है। उनकी फसलों के उचित दाम देने की ज़रूरत है जैसे केरल में वामपंथी सरकार वहां के किसानों की सब्ज़ियों पर भी लाभकारी मूल्य देती है। इसी तरह देशभर में किसानो को उनकी फसलों का वाज़िब दाम मिलना चाहिए।
सितारगंज से नौजवान किसान हरप्रीत सिंह जो दिल्ली बॉर्डर पर चले किसान आंदोलन का भी हिस्सा रहे थे, उन्होंने कहा कि इस पूरे क्षेत्र में एमएसपी एक बड़ा सवाल है इसे लेकर हमने दिल्ली की सीमाओं पर एक साल तक संघर्ष किया जिसके बाद सरकार ने इसकी गारंटी सुनिश्चित करने के लिए एक कमेटी बनाने का वादा किया था लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ। दूसरा इस इलाके में अनाज मंडी की समुचित व्यवस्था नहीं है। यहां किसी भी तरह की कोई खरीद नहीं होती किसानो को अपनी फसल मंडी के बाहर ही बेचनी पड़ती है।
इसके अलावा उन्होंने बताया कि उनके तराई बैल्ट में बड़ी संख्या में किसान गन्ना बोते हैं लेकिन मिल मालिक उन्हें कई-कई सालों तक भुगतान नहीं करते हैं।
विजू ने चुनाव को लेकर कहा कि पूरे प्रदेश में किसान आंदोलन के बाद से वर्तमान सरकार चला रही बीजेपी के खिलाफ भारी गुस्सा है। क्योंकि आंदोलन में सरकार के अड़ियल रवैये के कारण 700 किसानों की मौत हुई है। किसान ये सब याद करते हुए ही मतदान करेगा।
हमने भी जब दौरा किया तो किसानों में सरकार को लेकर एक रोष तो दिखा लेकिन सवाल वही की क्या ये रोष मतदान के रूप दिखेगा या नहीं!
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