वैलेंटाइन डे: नफ़रत के दौर में प्यार की बात
"प्यार का जश्न नई तरह मनाना होगा
ग़म किसी दिल में सही ग़म को मिटाना होगा।"
(कैफ़ी आज़मी)
कैसा सुखद संयोग है। वसंत की आमद है और प्रेम पर कुछ कहना है। प्रेम जो हमेशा से अपरिभाषित रहा।अपरिमित रहा। जितना ही इस पर कुछ कहते जाओ उतना ही अनकहा रह जाता है। प्रेम का दायरा इतना विस्तृत है कि ईश्वर भी इसमें समाहित है।
चलताऊ शब्दों मे प्रेम सिर्फ दो मनुष्यों के बीच का कार्यव्यापार है। चाहे स्त्री- स्त्री का प्रेम हो, पुरुष-पुरुष का प्रेम हो या फिर बहुत बदनाम रूपों में स्त्री-पुरुष का प्रेम हो।
लेकिन क्या प्रेम इतना ही सीमित है?
नहीं।
प्रेम तो जड़-चेतन का कार्यव्यापार है। प्रेम तो नदियों-रेगिस्तानों तक विस्तृत है। प्रेम तो प्रकृति और जीव मात्र तक के भीतर है।
तो फिर मनुष्य-मनुष्य के बीच कैसा भेद!
क्यों है इतनी हिंसा-नफ़रत!
कौन सी व्यवस्था है जो हिंसा करती हैं? हिंसा और नफ़रत को बढ़ावा देती है?
तो धर्म, पूंजी और राजनीति ये ही तीन आधारभूत संरचनाएं समझ में आती हैं। क्योंकि इनकी स्वयं की सत्ता इसी हिंसा, नफ़रत और भेद पर टिकी हुई है।
तीनों ही संरचनाएं समय-समय पर एक दूसरे की आड़ में छिपकर हिंसा करती रही हैं।
धर्म की शुद्धता के लिए ही इतिहास में तानाशाह और तानाशाही पैदा हुई। जिसका अंजाम विश्वयुद्ध जैसी विनाशक घटनाएँ हैं।
पूँजी ने अपने लाभ के लिए समय-समय पर युद्धों को अंजाम दिया है। पूंजीपति अपने हथियार-बम, बारूद ,मिसाइल, पनडुब्बी बेचता है। कोई अपना तेल बेचता है,तो कोई अपनी गैस। युद्ध जैसी स्थितियों में पूंजीवादी संसाधनों को होल्ड करके, हमारी असुरक्षा के डर को बढ़ाकर, उससे मुनाफ कमाता है।
यद्यपि मुझे राजनीति, धर्म और पूँजी की ही पिछलग्गू लगती है। राजनीति उतने बड़े स्तर पर विनाशक ताकत नहीं बटोर पाती है, जितनी अधिक ताकत धर्म और पूंजीपतियों के पास होती है। लेकिन इतनी ताकत तो होती है कि देश को भीतर से अस्थिर कर सके। वर्तमान की भारतीय राजनीति दरअसल यही करने की कोशिश कर रही है।
मुझे कितनी ही घटनाएँ याद आ रही हैं, जिसे राजनीति ने पूँजी और धर्म के साथ मिलकर अंजाम दिया है।
आज भारत के बड़े राजनेता धर्म के पीछे खड़े होकर, धर्म का सहारा लेकर हिंसा की संस्कृति को स्थापित रहे हैं।
हर प्रकार की हिंसा को भारत में 'न्यू नॉर्मल' करने की कोशिश हो रही है। कठुआ में एक बच्ची का बलात्कार होता है, इसे राष्ट्र-धर्म संरक्षण देता है। उन्नाव में एक लड़की का बलात्कार होता है, इसे राजनीति संरक्षित करती है। हाथरस में एक दलित बच्ची का बलात्कार होता है, जिसमें प्रशासन बड़े जाति के लोंगो को संरक्षित करता है। तो क्या बलात्कार आज के भारत का ' न्यू नॉर्मल' नहीं बनता जा रहा है? कितने ही तथाकथित बाबाओं, राजनेताओं द्वारा महिलाओं का बलात्कार, शोषण होता है। जिन्हें जेल में होना चाहिए वो अपने शक्ति और साठ-गाँठ का लाभ उठाकर खुले में घूम रहे हैं।
अख़लाक़, जुनैद जो एक मासूम बच्चा था जैसे कितने लोगों को मार दिया गया और कोई एक चश्मदीद गवाह तक नहीं मिला। यह भी आज के भारत का 'न्यू नॉर्मल' है। तो धर्म और पूंजी संरक्षित राजनीतिक हिंसा, नफ़रत वर्तमान भारत का अति सामान्य बात हो गयी है।
यह जो हिंसा, नफ़रत बोई जा रही है, यह हमारी मिट्टी को, हमारी गंगा-जमुनी तहज़ीब को सौ साल तक के लिए विषैला बना रही है।
मुझे तो उस जनता पर तरस आता है, उसके लिए चिंता भी होती है कि जो राजनीति के "हिडेन एजेंडे" पर चल रही है। वह अपने भविष्य को बारूद के ढेर पर पालना चाह रही है।
लेकिन मैं अभी भी जनता की ओर से अधिक निराश नहीं हूँ। मुझे लगता है कि यदि उसके सामने प्रेम की,आपसी लगाव की कोई मिसाल हो, तो वह उसे अपनाएगी। उसे जरूर एक दिन राजनेताओं के कपट का, उनके स्वार्थों का पता चलेगा ।
एक दिन जरूर वह धर्म के ध्वंस रूप से विलग,उसके मूलतत्व को चुनेगी।
(मेरे कहे में यहाँ एक अंतर्विरोध दिखेगा, लेकिन यह मेरे बारे में नहीं है। यह उनके बारे में है जो धर्म के लिए आस्थावान हैं।)
क्योंकि बुद्ध नफ़रत नहीं सिखाते हैं। क्योंकि राम-रहीम भी नफ़रत नहीं सिखाते हैं। ग़ालिब, मीर, कबीर भी नफ़रत नहीं सिखाते हैं। निजामुद्दीन औलिया और खुसरो भी नफ़रत नहीं सिखाते हैं।
उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूर्व से लेकर पश्चिम तक किसी भी बड़े सूफी-संत, भक्त-कवि को पढ़कर कोई बताए क्या वे हिंसा और नफ़रत की बात करते हैं?
हम जानते हैं इसमें से कोई नफ़रत नहीं सिखाता है।
देश को आज़ाद कराने वाला कोई भी शहीद हिंसा-नफ़रत नहीं सिखाता है। गांधी-अम्बेडकर-भगत सिंह नफ़रत नहीं सिखाते।शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां या सितार वादक पंडित रवि शंकर भी नफ़रत नहीं सिखाते हैं। इस देश का किसान- मजदूर भी अपने बच्चों को हिंसा-नफ़रत नहीं सिखाता हैं।
जब कोई ईश्वर, कोई सूफी, कोई संत, कोई भक्त ,कोई विचारक, कोई कवि-कलाकार नफ़रत नहीं सिखाता तो इन स्वार्थी राजनेताओं से क्यों सीखते हैं नफ़रत?
ये आज हैं, कल नहीं हैं। इनकी कुर्सी तो ताश के पत्तों पर टिकी है। लेकिन यह देश तो हमेशा रहेगा। हमारा आपसी प्रेम-भाईचारा ही इसे मजबूत करेगा।
तो इस देश में नफ़रत फैलाने की मुख्य दुकान स्वार्थी राजनीति और स्वार्थी राजनेता हैं। स्वार्थी धर्मपूजक हैं, और अनियंत्रित-अनैतिक पूंजी है।
आज जनता की चेतना में जो हिंसा नफ़रत घर कर रही है, वह इसी राजनीति की देन है। इसलिए मैं मानती हूँ कि जनता नफ़रत को छोड़कर प्रेम के रास्ते पर चल सकती है। यदि उसके सम्मुख कोई बड़ी, ईमानदार मिसाल हो।
हम भारत के लोग स्वार्थी राजनेताओं, स्वार्थी धर्मधारकों से हिंसा-नफ़रत सीखकर, जो मनुष्यों से धर्म-सम्प्रदाय के आधार पर, जाति-वर्ग के आधार पर नफ़रत करते हैं, क्या ऐसे में हम अपने माँ-बाप को, पत्नी को, बहन-भाई को और प्रेमिका को प्रेम कर सकते हैं?
मुझे तो इस बात में संदेह ही नहीं पूरा विश्वास है कि ऐसे लोग जो हिन्दू-मुस्लिम के बीच नफ़रत फैलाते हैं, दलित-सवर्ण के बीच भेद करते हैं, अमीर-गरीब के बीच भेद करते हैं, वे अपने परिवार जनों से भी प्रेम नही कर सकते हैं। क्योंकि नफ़रत सबसे पहले आपके प्रेम करने की सामर्थ्य को ही नष्ट करती है।
"प्रेम का पंथ कराल महा, तलवार की धार पर धावनो है।"
इसका मतलब कि- भीतर की सारी घृणा, ईर्ष्या, विद्वेष, अहम, सारी कलुषता धुलकर ही कोई प्रेम कर सकता है। जो इस कलुषता को नहीं धुल सकता है, जिसके भीतर हिन्दू-मुस्लिम का भेद है, जाति का भेद है, वह अपने परिवार से, मां-बाप, भाई-बहन, पत्नी-प्रेमिका से भी प्रेम नहीं कर सकता है। तभी हम देखते हैं कि एक भाई अपने भाई की हत्या कर देता है। एक पुरुष अपनी पत्नी-प्रेमिका को मार देता है।
कहाँ गया वह प्रेम?
वह प्रेम भी विषधर हो गया। क्योंकि आपने उसे दूसरों से तो नफ़रत करना, ईर्ष्या करना सिखाया। उस नफ़रत और हिंसा ने उसकी सारी अन्य वृत्तियों को सोख लिया। वह सिर्फ एक संभावित अपराधी भर बचा रह गया है। कभी भी किसी को भी मार सकता है।
क्योंकि-
"कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि।
सीस उतारै भुईं धरे, सो पैठे घर माँहि॥"
चाहे आप इसे प्रेम का घर कहें, चाहे भक्ति का घर। इसमें आप किसी भी प्रकार के आग्रह-दुराग्रह, हिंसा की भावना मन मे रख कर प्रवेश नहीं कर सकते हैं। आप चाहते हैं कि आपका बेटा पड़ोसी को तो गाली दे, झूठ बोले, मुसलमान को नफ़रत की दृष्टि से देखे और आपका सुबह उठकर पैर छुए, ऐसा संभव नहीं है। वह दिखावे में तो ऐसा कर सकता है लेकिन उसके भीतर का वह निर्दोष, निष्कलुष प्रेम-सम्मान कहीं खो गया है।
तो इसलिए लड़कियों, प्रेमिकाओं, और माताओं सावधान हो जाओ कि तुम्हारा बेटा, तुम्हरा पति, भाई, प्रेमी जब कहे की वह तुमसे प्रेम करता है, तुम्हारा सम्मान करता है तो उससे प्रश्न करो- क्या तुम किसी मुसलमान से, दलित से, गरीब से भी ऐसे ही प्रेम करते हो? क्या तुम दूसरी स्त्री का भी सम्मान करते हो?
यदि वह हिचकिचाए तो समझो वह तुमसे भी प्रेम नहीं करता है। तुम्हारी तुम्हारी समझदारी में कहीं दिक्कत है। क्योंकि यदि हम धर्म के नाम पर किसी से नफ़रत करते हैं तो हम धर्म के मार्ग पर नहीं है।
यदि हमारा ज्ञान हमें अहम और नफ़रत सिखाता है तो हम ज्ञान के मार्ग पर भी नहीं हैं। और भक्ति के मार्ग पर तो बिल्कुल भी नहीं।
"जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय।
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन निशाय।"
जब तक जाति धर्म, सम्प्रदाय के विभेद का विचार आपके भीतर है, आप न धर्म के मार्ग पर हैं, न भक्ति के, न ही प्रेम के, न ज्ञान के।
आप कबीर को जानते हैं तो कैसे किसी से नफ़रत कर सकते हैं। कबीर कहते हैं-
"यह तत वह तत एक है, एक प्रान दुइ गात।
अपने जिये से जानिये, मेरे जिय की बात।।"
जब सब कुछ एक ही है तो धर्म का भेद, जाति का भेद, सवर्ण-अवर्ण का भेद, लिंग का भेद कहाँ बचता है?
जो अपनी परंपरा को जानते हैं और मानते हैं वे कैसे किसी भी धर्म- सम्प्रदाय, किसी जाति-लिंग से नफ़रत कर सकते हैं।
हाँ,यदि वे ऐसा करते हुए पाए जाते हैं तो वे अपनी परंपरा के सच्चे वारिस नहीं हैं। वो अपने देश से सच्चे मायने में प्रेम नहीं करते। ऐसे लोंगो के राष्ट्र प्रेम पर हमें संदेह ही करना चाहिए।
क्योंकि अपने देश के किसी भी नागरिक से धर्म-जाति, लिंग-सम्प्रदायऔर नस्ल आदि के आधार पर नफ़रत करना, उनके प्रति किसी भी प्रकार की हिंसा करना या हिंसा और नफ़रत का भाव रखना भी देश के लिए, मानवता के लिए, अपने लोकतंत्र के लिए घातक ही है। यह देश को भीतर से ही तोड़ने की साजिश है। एक कोशिश है जो अभी भी नाकामयाब है।
हम भीतर से एकजुट रहेंगे तभी वैश्विक पटल पर मजबूत रहेंगे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप किसी की आलोचना को दबा दें। प्रतिरोध को न पैदा होने दें। क्योंकि नफ़रत करने वाला देश को तबाह कर सकता है। बहुत ही छोटे स्वार्थ के लिए। प्रतिरोध और नफ़रत दोनों का उद्देश्य और परिणाम अलग-अलग है।
भारत देश के प्रति जो प्रेम से भरा है, जो इसकी खूबसूरती से परिचित है, वह साम्प्रदायिक नहीं हो सकता। और आज भी भारत की अधिक आबादी साम्प्रदायिक नहीं है। बहुत थोड़े से लोग साम्प्रदायिक हैं। उनमें भी साम्प्रदायिकता का बीज बोने में वही स्वार्थी राजनीति है। यह भारत को भीतर से तोड़ने की कोशिश करने वालों की राजनीति का परिणाम है। वे हमारे माध्यम से अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा, सत्ता पाने की महत्वाकांसक पूरी करना चाहते हैं।
रहीम कहते हैं-
"रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
जोर से फिर न जुरे जुरे गाँठ परी जाय।"
तो जो नफ़रत करने वाले हैं, घृणा करने वाले हैं, हिंसा करने वाले हैं, वे जानबूझकर इसी प्रेम के धागे को खंड- खंड करना चाहते हैं। यह वही धागा है, जिससे इस भारत भूमि पर हिन्दू-मुस्लिम, सिक्ख-ईसाई, यहूदी,जैन-बौद्ध सब जुड़े हुए हैं। माला में फूल की तरह गुथे हुए हैं।
टैगोर ने कहा है कि-"फूल की पंखुड़ियां तोड़कर तुम फूल की सुगंध नहीं बटोरते।"
जो देश के वसंत को, इसकी सुंगध को मसलना चाहते हैं, उनसे सावधान रहने की जरूरत है। उन्हें सावधान करने की आवश्यकता है। भाई अब रुक जाओ। अब तुम्हारी एक न चलेगी।
इस देश में विविधता की जो एकता है उसे नष्ट नहीं करने दे सकते। अब तुम्हें देश के लोकतंत्र को कमजोर नहीं करने दे सकते।
मैं जनता के प्रति अभी भी आश्वस्त हूँ। इसलिए मैं उस अदृश्य जनता को ही संबोधित हूँ कि- इतिहास से शांति सीखो, प्रेम सीखो। हिंसा-नफ़रत मत सीखो। रहीम, कबीर, रसखान,रैदास, मीरा और जायसी से सीखो। नफ़रत और हिंसा का रास्ता आसान है। लेकिन प्रेम का रास्ता कठिन है।
हिम्मत है तो कठिन रास्ते पर चलो। आसान रास्ते तो सब जाते हैं। जो कबीर कहते हैं, वही तो जायसी भी कहते हैं। वही मीराबाई और महादेवी वर्मा भी कहती हैं। सभी महान हस्तियाँ एक ही बात कहती हैं।
"प्रेम प्रहार कठिन विधि गढ़ा।
जो पै चढ़े सो सिर सौ चढ़ा।"
तो जहाँ-जहाँ फूल दिखें चुन लो, उसकी सुगंध को फैलाओ। भर दो उसे अपने और अन्य के भी जीवन में। देश के मस्तक पर, धरा पर उस वसंत को खिलाओ। जहाँ- जहाँ सार दिखे गह लो। थोथा और असार को मत गहो।
हिंसा और नफ़रत नहीं, प्रेम और स्त्रीत्व चुनो।
भ्रातृत्व भी चुनो लेकिन मर्दवाद,पितृसत्ता मत चुनो।
सवर्णवाद मत चुनो।
हम यहाँ हैं तो हमें इस प्रेम के मार्ग का पूरा यक़ीन है। और हम झंझावातों में भी इसे आगे बढ़ाएंगे।
"यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी ले कर चराग़ जलता है"
(मंजूर हाशमी)
(लेखिका एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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