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ख़बरों के आगे-पीछे: परीक्षा में धांधली पर चर्चा से बच निकली सरकार

वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन अपने साप्ताहिक कॉलम में लोकसभा की कार्यवाही, बीएसपी और अकाली दल के संकट समेत कई मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं।  
Lok Sabha

सरकार मेडिकल दाखिले की परीक्षा में हुई धांधली पर संसद में चर्चा कराने से साफ बच निकली। नई लोकसभा के पहले सत्र की घोषणा के साथ ही कहा गया था कि 18वीं लोकसभा का पहला सत्र 24 जून से और राज्यसभा का 264वां सत्र 27 जून से शुरू होगा, जो तीन जुलाई तक चलेगा। दो जुलाई को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा प्रधानमंत्री मोदी के सवा दो घंटे लंबे भाषण के साथ समाप्त हुई। उसके बाद अचानक लोकसभा को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। प्रधानमंत्री ने एक दिन बाद तीन जुलाई को राज्यसभा में जवाब दिया और उसके बाद राज्यसभा भी अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गई। अगर लोकसभा की कार्यवाही तीन जुलाई को चलती तो उसमें मेडिकल दाखिले की परीक्षा में हुई गड़बड़ी पर चर्चा हो सकती थी। विपक्ष के नेता पहले दिन से इसकी मांग कर रहे थे और दो जुलाई को तो नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिख कर नीट पर चर्चा कराने का अनुरोध किया था। लेकिन राहुल की चिट्ठी की अनदेखी करके सदन को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। जाहिर है कि सरकार नीट पर चर्चा के लिए तैयार नहीं थी। पहले उसने कहा था कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान काम रोको प्रस्ताव नहीं पेश किया जा सकता है और दूसरे विषय पर चर्चा नहीं हो सकती है। लेकिन धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के बाद एक दिन का समय बचा था, उसमें चर्चा कराने की बजाय कार्यवाही समाप्त कर दी गई।

राहुल जब लोक लेखा समिति संभालेंगे 

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के नाते कांग्रेस के राहुल गांधी ने पहले भाषण में जो तेवर दिखाए हैं, उससे भाजपा नेताओं की नींद उड़ी है। कांग्रेस के नेता कह रहे हैं कि यह तो ट्रेलर था, पूरी फिल्म अभी बाकी है। ऐसे में भाजपा को बड़ी चिंता इस बात की है कि राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष के नाते लोक लेखा समिति यानी पीएसी के चेयरमैन होंगे। पिछले 10 साल से तो पीएसी की बैठकों मे क्या होता था किसी को पता नहीं चल पाता था। पहले पांच साल मल्लिकार्जुन खड़गे और फिर अधीररंजन चौधरी पीएसी के अध्यक्ष थे। अब राहुल गांधी पीएसी के अध्यक्ष होगे तो इसकी बैठकों पर मीडिया का अटेंशन भी ज्यादा होगा और कांग्रेस भी पूरी तैयारी करेगी। गौरतलब है कि पिछले 10 साल से लगातार पीएसी में भेजी जाने वाली रिपोर्टों की संख्या कम होती गई है। सरकार के कामकाज का हिसाब इस कमेटी को भेजना होता है। लेकिन या तो सीएजी के यहां से रिपोर्ट नहीं आती है और अगर आती भी है तो पीएसी की बैठक में उस पर ठीक से चर्चा नहीं होती है। एकाध मद्दे पर चर्चा हुई तो सरकार ने अपने भारी बहुमत के दम पर उसे वहीं दबा दिया। अब कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों की ताकत बढ़ी है इसलिए पीएसी में उनके भी ज्यादा सदस्य होंगे। सो, सत्तापक्ष और विपक्ष का सीधा मुकाबला होगा और सरकारी विभागों के खर्च और योजनाओं के हिसाब-किताब का मुद्दा संसद में भी उठेगा। 

अकाली दल का संकट चिंताजनक

पंजाब में शिरोमणि अकाली दल गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है। पार्टी के नेता सुखबीर सिंह बादल के खिलाफ कई वरिष्ठ नेताओं ने मोर्चा खोला है। बागी नेताओं ने अकाल तख्त से भी सुखबीर बादल की शिकायत की है। पार्टी टूटती दिख रही है। कहा जा रहा है कि इस बगावत को हवा देने का काम अकाली दल की पुरानी सहयोगी भाजपा कर रही है। पहली नजर में यह एक राजनीतिक पार्टी का संकट दिखाई दे रहा है लेकिन पंजाब की राजनीति को समझने वालों का कहना है कि यह राज्य में दशकों से से बनी शांति व सद्भाव की स्थिति के लिए बहुत चिंताजनक बात है। 

सुखदेव सिंह ढींढसा और प्रेमसिंह चंदूमाजरा जैसे बड़े नेता अकाली दल में बगावत का नेतृत्व कर रहे हैं। अकाल तख्त से सुखबीर बादल की शिकायत में कहा गया है कि डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख ने गुरु गोविंद सिंह जैसे कपड़े पहने लेकिन बादल ने उनको माफी दे दी। इसी तरह बहबल कलां में गुरुग्रंथ साहिब की बेअदबी के मामले में भी कोई कार्रवाई नहीं की गई। ऊपर से लगातार दो चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन बहुत खराब रहा है। इससे भी सुखबीर बादल बैकफुट पर है। अकाली दल में टूट-फूट का खतरा राज्य के कट्टरपंथियों को मजबूती देगा। विदेश में बैठे अलगाववादी संगठन इसका फायदा उठा सकते हैं। इसीलिए इस संकट का समाधान सिर्फ अकाली दल के लिए नहीं, बल्कि राज्य के लिए भी जरूरी है। पता नहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता इस बात को कैसे नहीं समझ रहे हैं।

बसपा का राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खतरे में

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती के सामने राजनीतिक अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। उनकी पार्टी को इस बार एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली है। उत्तर प्रदेश की विधानसभा में भी उनका सिर्फ एक विधायक है। लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बसपा को 10 फीसदी से कम वोट मिला है और विधानसभा चुनाव में भी उसका वोट 12.88 फीसदी रह गया। इस बीच उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर आजाद के रूप में एक बड़ी चुनौती उभर कर आ गई है। अब नया संकट बसपा के राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे पर मंडरा रहा है। 

किसी भी दल के राष्ट्रीय पार्टी के होने के लिए जो तीन शर्तें हैं, उनमें उनकी पार्टी कोई भी एक शर्त पूरी नहीं कर रही है। अभी भाजपा, कांग्रेस, सीपीएम, आम आदमी पार्टी, एनपीपी और बसपा को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल है। राष्ट्रीय पार्टी होने की पहली शर्त है कि उसे अखिल भारतीय स्तर पर छह फीसदी वोट मिले। लेकिन बसपा को सिर्फ 2.04 फीसदी वोट मिले हैं। दूसरी शर्त है कि कम से कम तीन राज्यों से चार सांसद जीते। लेकिन बसपा का एक भी सांसद नहीं है। तीसरी शर्त है कि तीन राज्यों में प्रादेशिक पार्टी का दर्जा मिले। लेकिन बसपा को सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही प्रादेशिक पार्टी का दर्जा है। पहले कई राज्यों में बसपा का आधार था और उसे प्रादेशिक पार्टी का दर्ज़ा मिला हुआ था, लेकिन पिछले पांच साल में उसने सभी राज्यों में यह दर्जा गंवा दिया है। 

अब सीपीएम को आरोपी बनाने की तैयारी

आम आदमी पार्टी के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम दूसरी पार्टी होगी, जिसे भ्रष्टाचार के मामले में आरोपी बनाया जाएगा। दिल्ली की शराब नीति में हुए कथित घोटाले से जुड़े धन शोधन के मामले मे प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ-साथ उनकी पार्टी को भी आरोपी बनाया है। ईडी का कहना है कि शराब घोटाले से हुई कमाई का गोवा के विधानसभा चुनाव में इस्तेमाल किया गया। उसी तरह अब केरल में सीपीएम को धन शोधन के एक मामले मे आरोपी बनाने की तैयारी है। ईडी ने कहा कि फाइनल आरोपपत्र में वह पार्टी को आरोपी बनाएगी। यह मामला एक कोऑपरेटिव बैंक के लोन फ्रॉड से जुड़ा है। ईडी ने इस मामले की जांच के क्रम में कथित तौर पर सीपीएम नेताओं के शामिल होने का पता लगाया है। इस सिलसिले में ईडी ने 29 करोड़ रुपए की संपत्ति जब्त की है। यह मामला कनुवन्नूर सर्विस कोऑपरेटिव बैंक में लोन फ्रॉड का है। इस मामले में सीपीएम के कई नेताओं पर आरोप लगे है। ईडी का कहना है कि त्रिशूर जिले के सीपीएम सचिव एमएम वर्गीज के नाम से जमीन खरीदी गई है। इतना ही नहीं, अलग-अलग बैंक खातों में 60 लाख रुपए जमा होने की बात भी कही जा रही है। इस आधार पर ईडी ने आरोप लगाया है कि अवैध कमाई का इस्तेमाल पार्टी की गतिविधियों के लिए किया गया है। इसी आधार पर ईडी ने सीपीएम को भी आरोपी बनाने का दावा किया है। इससे पहले जब से आम आदमी पार्टी को आरोपी बनाया गया है तभी से कानूनी जानकार यह पता लगाने में जुटे हैं कि इसका पार्टी के भविष्य पर क्या असर होगा।

शरद पवार की पसंद हैं उद्धव ठाकरे 

एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने वैसे तो कहा है कि विपक्षी गठबंधन की ओर से किसी को मुख्यमंत्री का चेहरा पेश करने की जरुरत नहीं है लेकिन उनकी पसंद शिव सेना के नेता उद्धव ठाकरे हैं। गौरतलब है कि 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद शरद पवार ने ही उद्धव ठाकरे को भाजपा का साथ छोड़ कर कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन के साथ आने के लिए राजी किया था। इसका भी खुलासा हुआ है कि उद्धव ठाकरे तब एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे लेकिन शरद पवार ने दबाव डाल कर उद्धव को मुख्यमंत्री बनवाया। हालांकि पवार ने कहा है कि महाविकास अघाड़ी की ओर से मुख्यमंत्री का दावेदार पेश करने की जरुरत नहीं है। लेकिन यह रणनीति है ताकि शिव सैनिकों के वोट मिले, एनसीपी का मराठा वोट भी साथ रहे और कांग्रेस के पिछड़े, दलित व मुस्लिम मतदाताओं का भी साथ मिले। लेकिन अगर महाविकास अघाड़ी जीतती है तो शरद पवार की कोशिश होगी कि उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाया जाए। हालांकि कांग्रेस ज्यादा सीटों पर लड़ना चाहती है। उसे उम्मीद है कि जैसे उसने लोकसभा चुनाव में सबसे अच्छा प्रदर्शन किया उसी तरह विधानसभा में भी उसका प्रदर्शन होगा। वह सबसे बड़ी पार्टी होगी और तब 1999 से 2014 तक के फॉर्मूले से सरकार बनाने की बात करेगी। तब कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन में हर बार कांग्रेस का मुख्यमंत्री बना। एक बार तो अपनी सीटें ज्यादा होने के बावजूद शरद पवार ने कांग्रेस का मुख्यमंत्री बनवाया था, जिससे अजित पवार आज तक नाराज हैं।

बीजू जनता दल अब विपक्ष के साथ

इस बार संसद की तस्वीर कई मायने में बदली हुई है। ओडिशा में लगातार 24 साल तक राज करने के बाद सत्ता से बाहर हुई नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल का इस बार लोकसभा मे एक भी सांसद नहीं है। पार्टी के गठन के बाद से यह पहला मौका है, जब निचले सदन मे उसका कोई सदस्य नहीं है। लेकिन राज्यसभा मे बीजू जनता दल यानी बीजद के नौ सांसद है। अब तक बीजद का रवैया भाजपा से सहयोग का रहा है। पिछले 10 साल के नरेंद्र मोदी के शासन में पार्टी ने हर मसले पर सरकार का समर्थन किया। लेकिन इस बार ओडिशा की हार ने सब कुछ बदल दिया। अब बीजू जनता दल केंद्र की मोदी सरकार के साथ नहीं, बल्कि विपक्ष के साथ है। संसद के छोटे से सत्र मे विपक्ष ने दो बार सदन से वॉकआउट किया। दोनों बार बीजू जनता दल ने विपक्ष का साथ दिया। तीन जुलाई को प्रधानमंत्री मोदी जब राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई चर्चा का जवाब दे रहे थे तब विपक्षी पार्टियों ने वॉकआउट किया तो बीजू जनता दल के भी सभी सांसद बाहर चले गए। बीजद के रुख में आए इस बदलाव के बारे में पार्टी के नेता सस्मित पात्रा का कहना है कि उनकी पार्टी ओडिशा को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग कर रही है, जो कि केंद्र सरकार नहीं दे रही है इसलिए विरोध किया जा रहा है। लेकिन असली कारण ओडिशा मे भाजपा के हाथों मिली करारी हार है।

संसद में नहीं उठा आरक्षण का मुद्दा 

उम्मीद की जा रही थी कि इस बार संसद सत्र में आरक्षण का मुद्दा जोर-शोर से उठेगा। आखिर कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों ने आरक्षण को मुद्दा बना कर चुनाव लड़ा था। राहुल गांधी ने आरक्षण की सीमा बढ़ाने का वादा किया था। ऊपर से संसद का सत्र शुरू होने से ठीक पहले बिहार में पटना हाई कोर्ट ने आरक्षण बढ़ाने के राज्य सरकार के कानून को रद्द कर दिया था। बिहार सरकार ने जब कानून बनाया था तब कांग्रेस भी सरकार का हिस्सा थी। इसीलिए कहा जा रहा था कि संसद में यह मुद्दा जोर-शोर से उठेगा और बिहार में बढ़े हुए आरक्षण को बहाल करने की बात भी होगी। लेकिन किसी ने आरक्षण का मुद्दा नहीं उठाया और उससे भी ज्यादा हैरानी की बात है कि किसी ने जनगणना की भी बात नहीं की। अगर जनगणना की बात होती तो उसमे जाति गणना की बात आती। कांग्रेस की तरफ से औपचारिकता के लिए यह मांग की गई है कि सरकार आरक्षण की 50 फीसदी की अधिकतम सीमा को समाप्त करने का कानून लाए। लेकिन इस पर भी किसी ने न तो चर्चा की मांग की और न अपने भाषण में यह मुद्दा उठाया। राहुल गांधी भी करीब दो घंटे बोले लेकिन यह मुद्दा उनकी प्राथमिकता में नहीं आया। इस बीच आरक्षण की सीमा बढ़ाने के लिए बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट गई है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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