बात बोलेगी: क्या मामला सिर्फ़ जेएनयू को निपटाना है?
दिल्ली चुनावों के लिए जिस दिन देश के गृहमंत्री अमित शाह ने दिल्ली में प्रचार शुरू किया उसी दिन शाम-रात में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में नकाबपोश लोगों ने पुलिस की छत्रछाया में विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं पर हमला बोला, शिक्षकों के सिर फोड़े। क्या ये महज़ इत्तेफ़ाक़ था कि दोनों चीजें एक ही दिन में घटित हुईं।
पांच जनवरी को दिल्ली में भाजपा बूथ कार्यकर्ता सम्मेलन में अमित शाह ने जेएनयू को लेकर एक बार फिर टुकड़े-टुकड़े गैंग का जिक्र किया। इससे पहले 26 दिसंबर को दिल्ली के ही एक कार्यक्रम में भी अमित शाह ने यही कहा था कि 'दिल्ली की टुकड़े-टुकड़े गैंग को सबक सिखाया जाना चाहिए।'
जेएनयू के ख़िलाफ़ नफ़रत को देश के शीर्ष पर बैठे दो नेताओं ने लंबे समय से हवा दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान से दिल्ली चुनाव प्रचार का जो आगाज किया था, उसमें भी छात्रों के नागरिकता संशोधन कानून पर उमड़े आक्रोश को अर्बन नक्सल कह कर पुलिस की बर्बर कार्रवाई को जायज ठहराया था।
सवाल यह है कि आखिर जेएनयू में खुलेआम इस तरह की हिंसा कराकर आख़िर हासिल क्या करना चाहती है सत्ता।
जेएनयू में हिंसा से पहले अमित शाह ने 'सबक' सिखाने वाली बात को बार-बार दोहराया। उन्होंने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों को निशाने पर लिया। उन्होंने कहा 'कांग्रेस का टुकड़े-टुकड़े गैंग लोगों के बीच भ्रम फैलाने में लगा हुआ है। ये लोग दिल्ली के शांतिपूर्ण माहौल को अशांत करने पर तुले हुए हैं। ऐसे सभी लोगों को सबक सिखाने का वक्त आ चुका है'। इसके अलावा उन्होंने कहा कि आम आदमी पार्टी के प्रमुख 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' का समर्थन करते हैं।
...और कुछ ही घंटे के भीतर नकाबपोश गैंग सबक सिखाने के लिए जेएनयू में लोहे की छड़, हथौड़ा , लट्ठ लेकर पहुंच गये थे। और अगर ध्यान दीजिये की ये हिंसक गैंग क्या नारे लगा रहा था, तो कोई भ्रम ही नहीं रह जाएगा—गोली मारो सालो को, देश के गद्दारों को, नक्सलवाद की कब्र खुदेगी जेएनयू के प्रांगण में, खींच-खींच कर लाएंगे, यहीं पर निपटाएंगे, टुकड़े-टुकड़े गैंग को...ये हिंसा और खून के लिए उकसाने वाले नारे दिल्ली पुलिस की मौजूदगी में लग रहे थे। पुलिस मूक दर्शक बनी हुई थी, मानो कह रही हो –तुम हिंसा करो हम तुम्हारे साथ हैं--। ये नारे एक विशेष किस्म की राजनीति के खिलाफ नफ़रत से भरे हुए थे। जेएनयू जिस वाम-प्रगतिशील विचारधारा का प्रतीक है, उसे निपटाने के प्रतीक थे।
क्या मामला सिर्फ जेएनयू को निपटाना है। जिस तरह से जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को टारगेट किया गया, उसी तरह से जेएनयू को निशाने पर लिया गया। मामला सिर्फ इतना नहीं दिख रहा। जिस तरह से नागरिकता संशोधन कानून पर हिंदू-मुस्लिम विभाजन करने की नापाक कोशिश सरकार ने की, उसी तरह से दिल्ली में जेएनयू के खिलाफ नफ़रत को हवा देकर दिल्ली के मतदाताओं को ध्रुवीकृत करने की साजिश दिखाई दे रही है। इसका आभास जेएनयू में बर्बर हमले और जेएनयू अध्यक्ष के सिर फूटने की निंदनीय घटना के एक दिन बाद देश की राजधानी में कई जगहों पर हुआ।
एक राष्ट्रीय बैंक की मैनेजर ने बहुत ही आत्मविश्वास से कहा, और पिटाई होनी चाहिए थी इनकी। "ये साले पढ़ाई-लिखाई कुछ नहीं करते, मस्ती काटते हैं। सारी ऐंठ निकल जाएगी।" यह कहते कहते कहते उस बैंक मैनेजर ने अपने घर पर फोन मिलाते हुए घर में अपने बच्चे का हाल-चाल पूछा। फिर फोन रखकर दोबारा बोला—इन्हें और पीटना चाहिए, तभी दिमाग ठिकाने आएगा...वह क्रिस्टीना कौन था—टुकड़े-टुकड़े गैंग वाला—उसे भी निपटाना जरूरी है---यह सब सुनते हुए मैं सोच रही थी कि क्या ये वोटर जुटाने के लिए मिशन का हिस्सा है। जेएनयू के बारे में एक खास किस्म की नकारात्मक छवि गढ़ने में भाजपा-संघ और उसके आनुषांगिक संगठन सफल रहे हैं। एक ही तरह का प्रचार-प्रसार हिंसा की इस वारदात के बाद भी व्हाट्सऐप नेटवर्क फैला रहे हैं।
इन व्हाट्सऐप संदेशों के जरिए 100 फीसदी झूठ फैलाया जा रहा है और वह लोगों को हिंसा के पक्ष में खड़ा कर रहा है। आज एक कार ड्राइवर ने बेहद आक्रामक अंदाज में कहा, इस यूनिवर्सिटी में पढ़ाई नहीं होती, धंधा होता है। मैंने खुद देखा है...यहां अमीरजादे पढ़ते हैं, जो देश के खिलाफ काम करते हैं.....और शाम को तकरीबन यही तर्क ऑटोवाले ने कहा। जब उनसे मैंने पूछा कि कहां से पता चला तो उन्होंने कहा कि सब कुछ फोन पर मिल जाता है। फिर वह एक वीडियो का जिक्र करने लगे, जिसमें दिखाया गया कि किस तरह से लाल झंडे वाले पहले खुद मार रहे थे और बाद में खुद को चोट लगाकर चिल्ला रहे थे...। ऑटो वाले और कार ड्राइवर...दिल्ली के वोटर हैं और उनका मानना है कि जेएनयू में देशद्रोही के खिलाफ कार्रवाई होनी जरूरी है।
अब देखिए रेडियो के एफएम चैनल भी तकरीबन इसी तरह से का प्रचार दिन भर करते रहे। अलग-अलग ढंग से वह एक तरफ कहते कि हिंसा तो सही नहीं है लेकिन कैम्पस में राजनीति नहीं होनी चाहिए। वे कहते हैं, "कैम्पस में राजनीतिक पार्टियों की इंट्री होनी ही नहीं चाहिए।"
ये सारा प्रचार नौजवानों के गुस्से को, यूनिवर्सिटी को, सरकार की गलत नीतियो के खिलाफ उठ रही आवाजों को आपराधिक बताने का काम कर रहा है। यहां गुस्सा हिंसा करने वालों पर नहीं, कैम्पस में पढ़ने वालों पर मोड़ दिया गया।
एक और अहम संकेत इस घटना से मिलता है। यह लिचिंग भीड़ थी, जो जेएनयू में उतरी। कैम्पस में उतरी इस भीड़ को भी उसी तरह से सत्ता का वरदहस्त मिला हुआ था, जैसे गाय के नाम पर हिंसा करने वाली भीड़ को मिला होता है। वे भी हिंसा सरेआम करते हैं, यहां भी नकाबपोश सरेआम जेएनयू में घूम-घूम कर विद्यार्थियों-अध्यापकों का खून बहा रहे थे और कोई नहीं पकड़ा गया। सारे के सारे भाग गये। मेन गेट पर योगेंद्र यादव के साथ अभद्रता करने वाले गुंडों के पीछे पुलिस खड़ी थी, लेकिन पकड़ा किसी को नहीं गया, रोका किसी को नहीं गया। भाजपा के शासनकाल में हिंसक भीड़ तंत्र को जिस तरह से बढ़ावा दिया गया है, उसकी बेशर्म बानगी जेएनयू में दिखाई दी। ज्ञान के केंद्रों पर हिंसा एक ख़ौफ़नाक़ दौर के आने की चेतावनी है।
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