विश्व आदिवासी दिवस और उनके ज़मीनी संघर्ष
अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस यानी वर्ल्ड इंडिजिनस डे हर साल 9 अगस्त को मनाया जाता है। इसकी शुरुआत का मकसद विश्व में आदिवासियों के घटती आबादी, विस्थापन और दुनियाभर में होते उनके मानवाधिकार हनन को रोकना था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने साल 1994 में पहली बार आदिवासियों को संरक्षण देने की कवायद के तहत इस दिन को आधिकारिक रूप से ‘वर्ल्ड इंडिजिनस डे’ के रूप में घोषित किया था। इस दिन को मनाते हुए आज हम तीसरे दशक में कदम रख चुके हैं लेकिन आज भी दुनियाभर में आदिवासी अपने सांस्कृतिक विरासत और स्व अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
इस साल 2022 में अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी या मूलनिवासी लोगों के दिवस का विषय "पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण और प्रसारण में मूलनिवासी महिलाओं की भूमिका" है। आदिवासी महिलाएं मूलनिवासी या बहुजन समुदायों की रीढ़ हैं और पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण और प्रसारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। प्राकृतिक संसाधनों की देखभाल और वैज्ञानिक ज्ञान के रखवाले के रूप में उनकी एक अभिन्न सामूहिक और सामुदायिक भूमिका है। कई आदिवासी महिलाएं भी भूमि और क्षेत्रों की रक्षा में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं और दुनिया भर में मूल निवासी लोगों के सामूहिक अधिकारों की वकालत कर रही हैं।
बता दें कि भारत में कुछ ही दिन पहले द्रौपदी मुर्मू ने देश की 15वीं राष्ट्रपति के रुप में शपथ ली है। वे पहली आदिवासी महिला हैं, जो इस शीर्ष पद तक पहुंची हैं। ऐसे में बड़ा सवाल है कि आदिवासी राष्ट्रपति बनने से क्या जल जंगल जमीन के लिए दशकों से संघर्ष कर रहे आदिवासियों के लिए वास्तविकता में कुछ बदलेगा है या ये केवल पहचान के प्रतीक मात्र बन कर ही रह जाएगा।
देश में आदिवासी समुदाय का संघर्ष
आदिवासी राष्ट्रपति के चकाचौंध से दूर देखें तो एक सच्चाई ये भी है कि आज भी अपने में ही इस देश के आदिवासी किसी शरणार्थियों की तरह जीने को विवश हैं। वह सभ्य समाज के दुर्व्यवहार से खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं और अपने मनुष्य होने का प्रमाण तथाकथित सभ्य समाज से दिए जाने के प्रतीक्षा में हैं। देश में जाने कब आदिवासियों को भी एक मनुष्य होने का बराबर दर्जा दिया जाएगा। फिलहाल इसका आश्वासन अनिश्चित काल तक संभव नजर नहीं आता। इस देश के नागरिक होने के बावजूद वे गरिमापूर्ण जीवनयापन करने के लिए अब तक संघर्ष कर रहे हैं।
केंद्र की मोदी सरकार अक्सर देश को विश्वगुरू बनाने के सपने दिखाती रहती है। सबके साथ, सबके विकास की बात पर ज़ोर देती है लेकिन इस विकास के नए पैमाने में अमीर और अमीर और गरीब और गरीब होता जा रहा है। इस न्यू इंडिया में हर प्रकार के संसाधनों का बंटवारा केवल एक विशेष वर्ग में हो रहा है। वहीं, इसी देश में आज भी भारत के आदिवासी अपनी बुनियादी हकों से वंचित हैं। आजादी के 75 साल बाद भी इन इलाकों की दशा आज़ादी के पहले जैसे ही बदतर हैं। भुखमरी, कुपोषण, मृत्युदर, अनेक तरह की बीमारियां और अशिक्षा आदिवासियों की प्रमुख समस्याएं हैं। औपचारिक तौर पर सरकार बहुत सारी योजनाएं आदिवासियों के लिए लाती हैं लेकिन इन योजनाओं का क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं होता और ना ही इसे अमल में लाने की सरकार की कोई दिलचस्पी दिखाई देती हैं। यही कारण है कि आज तक उनकी दशा में कोई सुधार नहीं हो रहा ना ही उन्हें मूलभूत सुविधाएं मिल रही हैं। इसी वजह से अधिकांश आदिवासी शिक्षा से कोसो दूर हैं और उनकी साक्षरता दर सबसे कम है। साथ ही आदिवासियों का सामाजिक और आर्थिक विकास भी बाधित है।
आदिवासी संस्कृति और बहुसंख्यक वर्ग का हस्तक्षेप
आदिवासी शुरू से ही अपनी संस्कृति, अपने प्रकृतिवाद से जुड़े रहे हैं लेकिन भारत का एक बहुसंख्यक वर्ग अपने धर्म को आदिवासियों पर जबरन थोपने पर उतारू है। राजनीतिक पार्टियां आदिवासियों को केवल अपना वोट बैंक समझती हैं और बहुमत बढ़ाने के लिए तरह-तरह के वादे करती हैं लेकिन जब बात आती है जल-जंगल-ज़मीन और अधिकारों की लड़ाई की तब वे इन समुदायों को अकेले छोड़ देते हैं। आदिवासियों के इस लड़ाई का हिस्सा बनने से बचते हैं और कई बार आदिवासियों को विकास विरोधी तक बता देते हैं। अधिकतर फासीवाद और पूंजीवाद से जुड़े लोग खुले तौर पर आदिवासी विरोधी गतिविधियों का समर्थन करते नज़र आते हैं। जब कोई पूंजीवादी राष्ट्र तरक्की और विकास का नाम देकर प्राकृतिक संसाधनों का अत्याधिक दोहन करता हैं, पर्यावरण संतुलन के लिए बनाए नियम कायदों की परवाह नहीं करता तब अपना कोई भी स्वार्थ सिद्ध किए बगैर एकमात्र आदिवासी ही होते हैं जो पूंजीवाद के उपभोगवादिता जीवनशैली और व्यवस्था के खिलाफ लड़ते हैं। एक आत्मनिर्भर समुदाय पूंजीवाद के दौर में पिछड़ रहा है आज जब पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग जैसी वैश्विक समस्याओं से जूझ रहा है तो आदिवासी जीवन दर्शन ही हमारे सामने एकमात्र विकल्प है जो पर्यावरण और इंसानों के बीच सामंजस्य स्थापित कर सहजीविता और सह अस्तित्व को बनाए रखता है।
आदिवासी दशकों से मुख्यधारा से इतर अपने संघर्ष को जिंदा रखे हुए हैंं। अपनी समस्या सरकार और जनमानस के बीच रखते हुए भी वो अपनी उपस्थिति लगातार दर्ज करा रहे हैं। वे ब्राह्मणवादी नियम कायदे के खिलाफ आंदोलन के लिए कई बार सड़कों पर उतरे हैं। आदिवासियों की लड़ाई जंगल माटी और उनके समुदाय के प्रति उनकी जिम्मेदारी को दर्शाता है। यही कारण है कि भारत में इतनी विविधता होने के बावजूद भौगोलिक और भाषायी आधार पर आदिवासियों की अलग पहचान है और वह आज भी सभ्य समाज से कई मामलों में प्रगतिशील है।
धर्म कोड की व्यवस्था और आदिवासी समुदाय के हक़
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में आदिवासियों की संख्या दस करोड़ से कुछ अधिक है। इनमें क़रीब 2 करोड़ भील, 1.60 करोड़ गोंड, 80 लाख संथाल, 50 लाख मीणा, 42 लाख उरांव, 27 लाख मुंडा और 19 लाख बोडो आदिवासी हैं। देश में आदिवासियों की 750 से भी अधिक जातियां हैं। अधिकतर राज्यों की आबादी में इनकी हिस्सेदारी है। इसके बावजूद अलग आदिवासी धर्म कोड की व्यवस्था नहीं है। इस कारण पिछली जनगणना में इन्हें धर्म की जगह 'अन्य' कैटेगरी में रखा गया था। जबकि ब्रिटिश शासन काल में साल 1871 से लेकर आज़ादी के बाद 1951 तक आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की व्यवस्था रही है। तब अलग-अलग जनगणना के वक्त इन्हें अलग-अलग नामों से संबोधित किया गया। आज़ादी के बाद इन्हें शिड्यूल ट्राइब्स (एसटी) कहा गया। इस संबोधन को लेकर लोगों की अलग-अलग राय थी। इस कारण विवाद हुआ। तभी से आदिवासियों के लिए धर्म का विशेष कॉलम ख़त्म कर दिया गया। 1960 के दशक में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के वक्त लोकसभा में भी इस संबंधित एक संशोधन विधेयक लाया गया लेकिन बहस के बावजूद वह पारित नहीं कराया जा सका।
गौरतलब है कि भारत के इतिहास में पहली बार कोई आदिवासी महिला देश के सबसे बड़े पद यानी राष्ट्रपति के पद पर विराजमान हैं। ये कोई छोटी बात नहीं है, इससे सांकेतिक ही सही, लेकिन भारत के आदिवासी आबादी के लिए एक बड़ा संदेश माना जा सकता है। बहरहाल, अब तक के सरकार के फैसले आदिवासी विरोधी ही लगते हैं। ऐसे में अब सरकार के सामने नई चुनौती है कि क्या वो वाकई आदिवासियों को आगे लाना चाहती है या महज़ ये राजनीति का एक प्रयोग भर है।
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