अम्बेडकर विश्वविद्यालय : गहरी चिंता और सवाल खड़े करती है छात्र पर प्रशासन की कार्रवाई
हाल के दिनों में प्रताप भानु मेहता के इस्तीफे के बाद से विश्वविद्यालय में जनतांत्रिक दायरे के सिकुड़ने को लेकर जो चर्चा एवं चिंता व्यक्त की गई वह अशोका यूनिवर्सिटी या फिर निजी विश्वविद्यालय तक ही सीमित नहीं है। एयूडी (अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली) से आ रही खबर विश्वविद्यालय के जनतांत्रिक दायरे के संकुचन से जुड़े एक अन्य पहलू को उजागर कर रही है।
दिल्ली सरकार द्वारा पूर्ण रूप से वित्त-पोषित विश्वविद्यालय भारत रत्न भीमराव अंबेडकर के नाम से 2008 में स्थापित किया गया। लोगों की उम्मीद को पूरा करने के लिए शिक्षाविद श्याम मेनन को वाइस चांसलर की जिम्मेदारी सौंपी गई। जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) जैसी जनतांत्रिक संस्था दिल्ली में मौजूद थी, सो एयूडी के लिए यह एक चुनौती भी थी कि कैसे इस नए विश्वविद्यालय की नींव डाली जाए जिससे वह आगे भी जनतांत्रिक वातावरण में फले-फूले!
आज जो खबर अम्बेडकर विश्वविद्यालय से आ रही है उससे चिंता गहरी हो रही है। एक छात्र को विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा इसलिए दंडित किया गया है, क्योंकि उसने दीवारों पर नारे लिखे। साल बीत जाने के बाद भी कैम्पस बंद होने और प्रशासन द्वारा उसे छात्रों के लिए नहीं खोले जाने से छात्रों में गहरा असंतोष व्याप्त था। छात्रों के एक संगठन SFI ने दिल्ली के सभी विश्वविद्यालयों में कैम्पस खोलने के लिए अभियान चलाया। उसी अभियान के कारण कुछ छात्रों ने अम्बेडकर यूनिवर्सिटी के दीवारों पर स्लोगन लिखे। भगत सिंह की तस्वीर बनाई। इसे विश्वविद्यालय प्रशासन ने कितना बड़ा 'अपराध' घोषित किया है - यह उनके द्वारा दी गई सजा से ही स्पष्ट हो जाता है।
विश्वविद्यालय प्रशासन ने माना कि छात्र ने स्वीकार किया है कि उसने क्लास न होने के कारण हो रहे अकादमिक नुकसान से नाराज होकर यह काम किया है। छात्रों की इस नाराजगी को संबोधित करने के बजाय विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्र को अपराधी मानते हुए सजा के लिए एक जांच कमेटी का गठन कर दिया। उस जांच कमेटी की संस्तुतियों के आधार पर उस छात्र को जो सजा दी गई है वह किसी भी अकादमिक संस्थान के लिए शर्मनाक है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने नागरिकता कानून के खिलाफ हुए प्रदर्शन के दमन के लिए जो तरीका अपनाया था, वही 'उत्तर प्रदेश मॉडल' आज आम आदमी पार्टी वाली दिल्ली सरकार के विश्वविद्यालय में प्रयोग में लाया जा रहा है। उस छात्र पर 39,442 रुपये का जुर्माना लगाया गया है। उस आदेश में कहा गया है कि जब तक यह जुर्माना जमा नहीं किया जाता है, तब तक उस छात्र को विश्वविद्यालय में घुसने नहीं दिया जाएगा।
विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा बताया जा रहा है कि यह रकम अनुमानित नुकसान है। ध्यान से देखें तो यह उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का जनतांत्रिक आंदोलन को कुचलने का आजमाया हुआ तरीका है। जुर्माने की रकम इतनी ज्यादा लगाओ कि आंदोलनकारी की कमर टूट जाए। न दे पाने की हालत में उनके घर को तोड़ देने का फरमान जारी कर दिया जाए। योगी मॉडल की इसी नीति को आजमाते हुए एयूडी प्रशासन मुख्य मुद्दे को दरकिनार करते हुए 'नुकसान एवं उसकी भरपाई' को केंद्र में लाने की साजिश कर रही है।
ऑनलाइन शिक्षा से असंतुष्ट आंदोलनकारी छात्रों को 'उपद्रवी' एवं 'मानसिक रूप से बीमार' घोषित करते हुए अमानवीयता की हद तक जाकर सजा सुनाई गई है।
विश्वविद्यालय न सिर्फ किताबी शिक्षा ग्रहण करने का केंद्र है, बल्कि वह एक वैश्विक जीवन-दृष्टि को अर्जित करने का भी केंद्र है। जनतांत्रिक आंदोलन उसी का एक हिस्सा है। देश-विदेश की बृहत्तर राजनीति में शामिल होने से पहले विश्वविद्यालय की राजनीति एक प्रयोगशाला का काम करती है। ध्यान से देखें तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति में विश्वविद्यालय को इससे दूर करने की समझ सामने आई है। जितने भी निजी कॉलेज एवं विश्वविद्यालय खुले हैं उनमें इसके लिए कोई जगह नहीं है। ऐसे में एयूडी प्रशासन के द्वारा लिया गया यह फैसला छात्र राजनीति पर एक हमला है। शिक्षण संस्थान में 'गलतियों' के लिए 'सुधार' उद्देश्य होता है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने गलती को 'अपराध' घोषित करते हुए 'सजा' सुनाने का काम किया है।
एयूडी प्रशासन यहीं तक नहीं ठहरता, बल्कि इससे भी आगे तक जाता है। छात्र द्वारा वीडियो में अपने होने की बात कबूल करने और इसके पीछे पढ़ाई न हो पाने के कारण गुस्से में आकर ऐसा करने की बात बताने पर मानसिक इलाज करवाने का आदेश दे दिया जाता है। इलाज भी अपने विश्वविद्यालय के ही मनोविज्ञान विभाग से करवाकर सर्टिफिकेट जमा करने का आदेश जारी किया जाता है।
एयूडी प्रशासन की मानसिकता को समझने के लिए इस सजा के आदेश को समझना जरूरी है। पहले अपराधी बताकर भारी हर्जाना वसूली से शुरू कर एक साल के लिए कैरियर को देर करने (जिसका मतलब अभिभावक पर लाखों रुपये का अतिरिक्त बोझ है), छात्र को मानसिक तौर पर असंतुलित घोषित कर इलाज करवाने और फिर अंततः अपने पिता के साथ माफीनामा लिखवाने का यह आदेश किसी भी तरह से आधुनिक शिक्षण संस्थान का उदाहरण नहीं हो सकता। क्या यह सजा एक जिम्मेदार नागरिक के निर्माण की भूमिका निभा सकता है? तब सवाल यही है कि आखिर इसके पीछे की सोच क्या है ?
याद कीजिए चुनाव आयोग ने भी इसी तरह दीवारों को गंदा करने का तर्क देकर जो चुनावी शुचिता का पाठ पढ़ाया था, वह आज करोड़ों रुपये के चुनावी खर्च में तब्दील हो चुका है। जनतंत्र में हिस्सेदारी का मतलब मात्र करोड़पतियों के लिए ही आरक्षित कर देना हो गया। शुचिता का पाठ जनतंत्र के दायरे को कम से कमतर करने का आजमाया हुआ नुस्खा है। फीस बढ़ोत्तरी पर आधारित 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति' को लागू करना है तो इस तरह के जनतांत्रिक दायरे को सिकोड़ना आज सरकार से लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन तक की नीति का हिस्सा बन गया है। छात्र-संगठन से लेकर छात्र-कार्यकर्ताओं पर भारी हर्जाना वसूली और व्यक्तिगत से लेकर परिवार के स्तर तक प्रताड़ित करने की अमानवीय नीति उसी का हिस्सा भर है। एक छात्र को अपराधी ठहराकर भारी हर्जाना वसूली के साथ ही मानसिक रूप से बीमार बताना - यह विश्वविद्यालय प्रशासन के बीमार होने का लक्षण भी है। कोई छात्र मानसिक रूप से अगर बीमार है तो उसे इलाज और सहानुभूति देने के बजाय उससे भारी हर्जाना वसूली, अभिभावक तक से माफी लिखवाना और उसका एक साल खराब करना - क्या उसे किसी अनिष्ट के लिए धकेलना नहीं कहा जाएगा? कोरोना महामारी के समय जहां मानसिक तनाव और उसके कारण कई सारी दुर्घटनाएं देश देख चुका है ऐसे में दिल्ली सरकार का बिना हस्तक्षेप मूक-दर्शक बनकर रहना क्या संदेश दे रहा है? क्या दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार इसी तरह की दुर्घटना के दोहराने का इंतजार कर रही है? आज तमाम शिक्षाविदों से लेकर जनतांत्रिक संगठनों को खुलकर इसका विरोध करना जरूरी है। दिल्ली सरकार को तुरंत हस्तक्षेप कर इसे सही करने की भूमिका निभाने की जरूरत है। अरविंद केजरीवाल इस मामले में अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते।
(लेखक दयाल सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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