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बंगाल: जंगल महल में एनएचएम कर्मियों के सामने असुरक्षा और शोषण का ख़तरा

वेतन बहुत कम है, स्थायी कर्मचारी का दर्जा नहीं है, ‘धमकी की संस्कृति’ है, फिर भी एनएचएम कर्मचारी कठिन हालात में सभी बाधाओं का सामना कर रहे हैं।
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ओंडा ब्लॉक के पुनिसोल में आशा कर्मियों टीकाकरण किया जा रहा है

नाममात्र वेतन पर काम करने के बावजूद, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के कर्मचारी - जिनमें मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा), डॉक्टर, नर्स, स्वास्थ्य कर्मी और कार्यालय कर्मचारी शामिल हैं - बढ़ती नौकरी की असुरक्षा का सामना कर रहे हैं और लगातार भय और 'धमकी की संस्कृति' के माहौल में काम कर रहे हैं। ये कर्मचारी प्रतिदिन मरीजों को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं देते हैं, फिर भी कथित तौर पर वे कठिन हालात में काम करके खुद को आर्थिक और शारीरिक रूप से सुरक्षित कर पाने में असमर्थ हैं। इनमें से कई कर्मचारी मानसिक और शारीरिक रूप से थकावट की शिकायत करते रहे हैं। सवाल यह है: क्या कोई उनकी दुर्दशा पर ध्यान दे रहा है?

इस लेखक से बात करने वाले कई श्रमिकों ने आरोप लगाया है कि केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने कोई चिंता नहीं दिखाई है। जारी किए गए सरकारी निर्देशों ने राज्य में एनएचएम परियोजना के भीतर ‘भय की संस्कृति’ को और बढ़ावा दिया है, जो दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है।

विडंबना यह है कि अधिकांश मरीज़ और आम जनता इस बात से अनजान हैं कि ये स्वास्थ्यकर्मी किन कठिन हालात में काम करते हैं। वास्तव में, पश्चिम बंगाल में राज्य की लगभग 80 फीसदी स्वास्थ्य सेवाएं अब एनएचएम के ज़रिए चलती हैं।

एनएचएम की शुरुआत

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) की शुरुआत भारत सरकार ने 12 अप्रैल, 2005 को की थी, जिसका लक्ष्य ग्रामीण आबादी, खास तौर पर महिलाओं और बच्चों को गुणवत्तापूर्ण, किफ़ायती और सुलभ स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना था। इसके उद्देश्यों में स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच में सुधार, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूत करना, विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देना, समानता और जवाबदेही बढ़ाना और स्वास्थ्य सेवाओं के सामुदायिक स्वामित्व को बढ़ावा देना शामिल था।

बाद के वर्षों में, शहरी इलाकों में भी इसी तरह की स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार करने के लिए राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (एनयूएचएम) शुरू किया गया। अंत में, 1 मई, 2013 को, केंद्र ने दोनों मिशनों को एक बैनर के तहत इकट्ठा कर दिया जिसका नाम राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) दिया गया। एनएचएम का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी नागरिकों को, चाहे वे किसी भी स्थान या आय के हों, उन्हें सस्ती, गुणवत्तापूर्ण और समान स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ मिल सके।

मिशन के लक्ष्यों में मातृ मृत्यु दर (एमएमआर), शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) और टीबी, मलेरिया और कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों की घटनाओं और मृत्यु दर को कम करना शामिल है। एनएचएम का लक्ष्य कालाजार जैसी बीमारियों को खत्म करना भी है।

वर्तमान में, यह अनुमान लगाया गया है कि भारत भर में 80 फीसदी स्वास्थ्य सेवाएं एनएचएम के अंतर्गत काम कर रही हैं। पश्चिम बंगाल के जंगल महल इलाके में, जहां कई आर्थिक रूप से वंचित समुदाय दूरदराज, जंगली और पहाड़ी इलाकों में रहते हैं, स्वास्थ्य सेवाएं एनएचएम कर्मियों पर बहुत अधिक निर्भर हैं। हालांकि, ये स्वास्थ्य कर्मी अक्सर खतरनाक हालात में काम करते हैं और उन्हें केंद्र या राज्य सरकारों से वह सम्मान और सहायता नहीं मिलती जिसके वे हकदार हैं।

बांकुड़ा में सीएमओएच कार्यालय परिसर में अपनी नौकरी की सुरक्षा की मांग करती एएनएम 2 और आशा स्वास्थ्य कर्मियों की भीड़

इससे यह सवाल उठता है कि क्या इन स्वास्थ्यकर्मियों को वह पहचान और सहायता मिल रही है जिसकी उन्हें ज़रूरत है? अगर नहीं, तो समस्या कहां है? इस मुद्दे पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है।

जंगल महल में एनएचएम की भूमिका

एनएचएम जंगल महल इलाके में स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालांकि जंगल महल के सभी चार जिलों में सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं, लेकिन झारग्राम और पुरुलिया में नए स्थापित कॉलेजों में कथित तौर पर आवश्यक बुनियादी ढांचे की कमी है। इसी तरह, बांकुरा और मेदिनीपुर मेडिकल कॉलेजों को भी बुनियादी ढांचे की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

पश्चिम बंगाल के स्वास्थ्य सेवा डॉक्टर्स एसोसिएशन के महासचिव डॉ. उत्पल बनर्जी ने इस संवाददाता को बताया कि, "इन सरकारी मेडिकल कॉलेजों में पर्याप्त डॉक्टर, नर्स और स्वास्थ्यकर्मी नहीं हैं। अगर किसी मरीज की हालत थोड़ी भी गंभीर होती है, तो उसे कोलकाता के विभिन्न मेडिकल कॉलेजों में रेफर कर दिया जाता है।"

इन मेडिकल कॉलेजों की स्थिति को देखते हुए, ब्लॉक स्वास्थ्य केंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और गांव उप-केंद्रों की स्थिति और भी भयावह है। उदाहरण के लिए, बांकुरा में रानीबांध ब्लॉक स्वास्थ्य केंद्र और झिलिमिली और होलुदकनाली प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, साथ ही पुरुलिया में बंदोयान और मनबाजार ब्लॉक स्वास्थ्य केंद्र, और बेलपहाड़ी, बांसपहाड़ी और लोधासुली प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों की न्यूनतम आवश्यक संख्या का अभाव है।

झारग्राम के लोधासुली निवासी तपन महतो ने कहा, "यहां लोग इलाज के लिए ज्यादातर मजबूरी में आते हैं।"

इन इलाकों के कई लोगों को याद है कि पिछली वाम मोर्चा सरकार के दौरान ज़्यादातर पीएचसी में इनडोर सुविधाएं दी जाती थीं। हालांकि, आज इनमें से कई पीएचसी ऐसी सेवाएं प्रदान नहीं कर पाते हैं।

बांकुरा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल से हाल ही में सेवानिवृत्त हुए स्वास्थ्यकर्मी शांति सरकार ने इस संवाददाता को बताया कि, "पिछले 10 वर्षों से स्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति नहीं हुई है। नतीजतन, लोगों को उन स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित होना पड़ रहा है जो उन्हें इन सरकारी संस्थानों से मिलनी चाहिए थी।"

जंगल महल के निवासी अपनी स्वास्थ्य सेवा जरूरतों के लिए लगभग पूरी तरह से एनएचएम पर निर्भर हैं। एनएचएम के तहत स्वास्थ्य कर्मी जंगल महल के गांवों और शहरी इलाकों में बड़ी आबादी को महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान कर रहे हैं, जिससे लोगों के भीतर उनके प्रति विश्वास और सम्मान का भाव पैदा हुआ है। दुर्भाग्य से, इनमें से किसी भी स्वास्थ्य कर्मी को स्थायी कर्मचारी का दर्जा नहीं मिला है।

एनएचएम स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करता है जिन्हें मोटे तौर पर चार क्षेत्रों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  • संचारी रोग: तपेदिक, कुष्ठ रोग और अन्य संक्रामक रोगों की रोकथाम और उपचार करना।
  • गैर-संचारी रोग: उच्च रक्तचाप, मधुमेह जैसी बिमारियों का प्रबंधन और कैंसर की रोकथाम करना।
  • मच्छर जनित रोग: डेंगू और मलेरिया जैसे रोगों का उपचार करना।
  • प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य: प्रजनन स्वास्थ्य, मातृत्व देखभाल, नवजात शिशु स्वास्थ्य जांच और टीकाकरण से संबंधित सेवाएं देना।

इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं भी एनएचएम के मेंडेट का हिस्सा हैं।

एनएचएम कर्मियों की काम की स्थिति

बांकुरा के ओंडा ब्लॉक में आशा ब्लॉक समन्वयक अभिक मिश्रा ने कहा कि, "हम, एनएचएम सेवाओं की विभिन्न परियोजनाओं के तहत स्वास्थ्य कर्मचारी, अपने जीवन को जोखिम में डालकर काम करते हैं, लेकिन नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है। 'समान काम के लिए समान वेतन' पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद, यह सिद्धांत यहां लागू नहीं होता है। कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, और वर्षों की सेवा के बावजूद, हमारे पद अस्थायी बने हुए हैं।"

मिश्रा ने कहा कि एनएचएम कर्मियों को स्वास्थ्य बीमा का भी अधिकार नहीं है। काम के दौरान दुर्घटना होने पर कर्मियों के परिवार को मुआवजा नहीं मिलता है। साथ ही 60 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्ति के बाद ग्रेच्युटी या पेंशन का भी प्रावधान नहीं है।

कई स्वास्थ्य कर्मियों ने बताया कि उनमें से कुछ को 8,000 रुपए प्रति माह से भी कम वेतन मिलता है, जबकि ज़्यादातर की कमाई 20,000 रुपए से ज़्यादा नहीं होती है। केवल कुछ वरिष्ठ कर्मचारियों को 50,000 रुपए से ज़्यादा वेतन मिलता है, और डॉक्टरों को थोड़ा ज़्यादा वेतन मिलता है। स्वास्थ्य केंद्रों तक वैक्सीन पहुंचाने के लिए ज़िम्मेदार कर्मचारियों को बहुत कम वेतन दिया जाता है, जो अक्सर 1,000 रुपए प्रति माह से ज़्यादा नहीं होता है।

ओंडा ब्लॉक के गुलाम खाजा खान, बांकुरा के इनपुर ब्लॉक के निर्मल रे, पुरुलिया के बंदोयान ब्लॉक के संतोष मुर्मू और जोतिन महतो तथा झाड़ग्राम के बेलपहाड़ी ब्लॉक के जीबन सरदार, जो वैक्सीन लाने-लेजाने का काम करते हैं, ने बताया कि वे ब्लॉक स्वास्थ्य केंद्रों से स्थानीय उप-केंद्रों तक वैक्सीन पहुंचाते हैं। यदि वे 20 किलोमीटर के भीतर यात्रा करते हैं, तो उन्हें केवल 90 रुपए मिलते हैं। उन्हें यह काम महीने में चार बार से अधिक नहीं सौंपा जाता है। 20 किलोमीटर से अधिक दूरी के लिए उन्हें केवल 200 रुपए का भुगतान किया जाता है।

सहायक नर्स दाइयां (एएनएम) भी एनएचएम का अभिन्न अंग हैं, जो दो श्रेणियों में आती हैं: एएनएम 1, जिन्हें राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है, और एएनएम 2, जिन्हें एनएचएम ठेके पर रखता है।

बांकुरा के हीरापुर स्वास्थ्य केंद्र में एएनएम-2 रानू मंडल गिरी ने इस रिपोर्टर को बताया कि, "स्वास्थ्य केंद्रों में हम वही काम करते हैं, लेकिन हमारा वेतन एएनएम-1 से काफी कम है। माताओं और बच्चों का टीकाकरण करने के अलावा, हम डॉक्टरों की अनुपस्थिति में मरीजों का इलाज भी करते हैं। फिर भी, हम केवल 23,000 रुपए प्रति माह कमा पाते हैं। 2009 से, एएनएम-2 की कोई नई नियुक्ति नहीं की गई है, जिससे हमें भारी दबाव में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।"

आशा कर्मी एनएचएम की रीढ़ हैं। ये महिला स्वास्थ्य कर्मी शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में हर परिवार को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करती हैं। वे नए जोड़ों, गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों से लेकर बुजुर्ग रोगियों तक सब कुछ संभालती हैं। आपात स्थिति में, वे स्वास्थ्य शिविरों का प्रबंधन भी करती हैं। चौबीसों घंटे काम करने के बावजूद, उन्हें 5,300 रुपए का मामूली मासिक वेतन मिलता है।

झाड़ग्राम जिले के बेलपहाड़ी में एक स्वास्थ्य शिविर का नज़ारा

आशा कर्मी मुक्ता महतो, अंजलि महतो, रायबांध, जोहिमा खातून, रोजिना बीबी, पुनिसोल (बांकुड़ा जिला), रत्ना टुडू, बांसपहाड़ी (झारग्राम) और मनबाजार 2 ब्लॉक (पुरुलिया जिला) की मोनिमाला सरदार ने कहा कि, "हमें नियमित रूप से वह प्रोत्साहन नहीं मिलता जिसके हम हकदार हैं। गर्भवती महिला को अस्पताल ले जाने के बाद, कोई भी यह नहीं देखता कि हम घर कैसे लौटते हैं या रात को कहां रुकते हैं।" उन्होंने यह भी बताया कि "जननी सुरक्षा 102" वाहन, जो गर्भवती महिलाओं को अस्पताल तक मुफ्त परिवहन प्रदान करते हैं, की कमी है, जिसके कारण अक्सर बच्चे घर पर ही पैदा हो जाते हैं।

एनएचएम कर्मियों के प्रयासों के कारण बांकुरा के रानीबांध ब्लॉक जैसे इलाके जो कभी मलेरिया-प्रवण के रूप में पहचाने जाते थे में अब उल्लेखनीय सुधार है। टीबी, जो कभी बड़ी समस्या थी, पर भी काफी हद तक नियंत्रण हो गया है। हालांकि, इस साल की शुरुआत में चार महीने तक टीबी की दवा की आपूर्ति नहीं हुई थी।

रानीबांध के एनएचएम स्वास्थ्य कर्मी शेख आमिरुद्दीन ने कहा कि, "हम दावा को लेकर बेहद चिंतित थे, लेकिन अब आपूर्ति फिर से शुरू हो गई है।" उन्होंने कहा कि रानीबांध में हर महीने लगभग 10-15 लोगों में टीबी का निदान किया जाता है, जिनमें से ज़्यादातर पुरुष और महिला मज़दूर होते हैं।

रानीबांध के घने जंगलों में स्थित बारिकुल गांव के किसान सुसांत महतो जैसे निवासी अपनी बीमारी से उबरने का श्रेय एनएचएम कर्मियों के प्रयासों को देते हैं। मंजू डे जैसे मध्यम आयु वर्ग के रोगियों ने कहा कि वे तपेदिक के लिए नियमित उपचार हासिल कर रहे हैं।

उनके महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद, एनएचएम कर्मियों की संख्या आवश्यक स्तर से बहुत कम है, जिससे उन पर काम का बोझ बढ़ गया है। कई स्वास्थ्य कर्मियों ने कोलकाता में स्वास्थ्य भवन (राज्य स्वास्थ्य मुख्यालय) में अधिकारियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस के दौरान “लगातार अपमान” का सामना करने की शिकायत की है।

कई एनएचएम कार्यकर्ताओं ने कहा कि, हाल ही में, इस परियोजना के साथ ‘धमकी की संस्कृति’ भी जुड़ गई है। उन्होंने कहा कि जिला स्तर पर मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओएच) और ब्लॉक स्तर पर ब्लॉक चिकित्सा अधिकारी (बीएमओएच) द्वारा निगरानी की जाती है। लेकिन, अब वे वार्षिक प्रदर्शन समीक्षा (एपीआर) प्रणाली के कारण काफी मानसिक तनाव में हैं।

पिछले तीन वर्षों में, राज्य सरकार ने बिना किसी हिचकिचाहट के केंद्र सरकार के एपीआर निर्देश को अपनाया है। हर साल, आशा कर्मियों के अलावा, एनएचएम कर्मचारियों- जिनमें डॉक्टर, डेटा एंट्री ऑपरेटर (अब कार्यकारी सहायक कहा जाता है), फील्ड वर्कर, एएनएम-2 और अन्य शामिल हैं- को एक निर्धारित प्रारूप में प्रदर्शन रिपोर्ट प्रस्तुत करने की आवश्यकता होती है। यदि अधिकारी किसी कर्मचारी के प्रदर्शन से संतुष्ट हैं, तो उनका अनुबंध एक और वर्ष के लिए नवीनीकृत किया जा सकता है।

बांकुड़ा जुनबेड़िया उपकेंद्र में दिखाई देती आशा कर्मी।

काम की रेटिंग को ‘खराब, औसत, अच्छा, बहुत अच्छा और उत्कृष्ट’ के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। ‘खराब’ रेटिंग वाले कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया जाता है, जबकि ‘औसत’ रेटिंग वाले कर्मचारियों को 3 फीसदी वेतन वृद्धि मिलती है। शीर्ष तीन श्रेणियों में 5 फीसदी वेतन वृद्धि मिलती है।

पुरुलिया जिले के नितुरिया ब्लॉक के कार्यकारी सहायक संदीप सरकार ने कहा कि, "इस प्रणाली ने स्वास्थ्य कर्मियों के बीच स्पष्ट भेदभाव पैदा कर दिया है, जिससे उन्हें अपनी नौकरी बनाए रखने के लिए अधिकारियों को खुश करने को प्राथमिकता देने पर मजबूर होना पड़ रहा है।" उन्होंने कहा कि कर्मी अपने मूल्यांकन मापदंडों के बारे में अनिश्चितता के साथ जी रहे हैं।

काम करने की परिस्थितियों के बारे में पूछे जाने पर, बांकुरा जिले के सीएमओएच डॉ. श्यामल सरेन ने कुछ मुद्दों को स्वीकार किया और कहा कि अधिकारी उन्हें “अपनी क्षमता के अनुसार” हल करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने एनएचएम कर्मियों की “जिम्मेदार और समर्पित सेवा” के लिए प्रशंसा की।

लेखक पश्चिम बंगाल के ‘गणशक्ति’ अख़बार के लिए जंगल महल इलाके को कवर करते हैं। उनके निजी विचार हैं।

(सभी फोटो मधु सुदन चटर्जी द्वारा ली गई हैं)

मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं–

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