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भोपाल गैस त्रासदी: न्याय पाने के लिए 40 साल का संघर्ष—भाग 2

भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए न्याय की खोज में बीते चालीस वर्षों के बारे में पेश है बारह-भाग की श्रृंखला का दूसरा भाग।
bhopal

भाग एक यहाँ पढे

गैस पीड़ितों के पूरे इलाज के लिए ही नहीं, बल्कि जीवित प्राणियों और पर्यावरण के नुकसान और उसके प्रभाव को वास्तविक आधार पर मापने और गंभीरता से अनुमान लगाने में बड़ी बाधाएं खड़ी की गई थीं।

थोड़े वक़्त और लंबे वक़्त के पुनर्वास के उद्देश्य से, आपदा से प्रभावित लोगों के परिवार की प्रोफाइल बनाने के लिए घर-घर जाकर सर्वेक्षण किया गया। इस काम को करने में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल वर्क (TISS), मुंबई ने मध्य प्रदेश सरकार की सहायता की। टिस (TISS) ने नौ अन्य सोश्ल वर्क संस्थानों के काम का भी समन्वय किया, जो इसी काम में लगे हुए थे।

सर्वेक्षण में भाग लेने वाले अन्य संस्थानों में टीआईएसएस के अलावा इंदौर स्कूल ऑफ सोशल वर्क (देवी अहिल्या विश्वविद्यालय), कर्वे इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सर्विस (पुणे विश्वविद्यालय), फैकल्टी ऑफ सोशल वर्क (बड़ौदा विश्वविद्यालय), कॉलेज ऑफ सोशल वर्क (बॉम्बे विश्वविद्यालय), तिरपुड़े कॉलेज ऑफ सोशल वर्क (नागपुर विश्वविद्यालय), इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल वर्क (नागपुर विश्वविद्यालय), सामाजिक कार्य विभाग, ग्रामीण विकास अध्ययन केंद्र, अहमदनगर कॉलेज, (पुणे विश्वविद्यालय), सोश्ल वर्क विभाग (काशी विद्यापीठ) और कॉलेज ऑफ सोशल वर्क (उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद) शामिल रहे हैं।

474 छात्रों और 65 फ़ैकल्टी सदस्यों वाली स्वयंसेवी टीमों ने 1 जनवरी, 1985 से 12 फरवरी, 1985 तक एक विस्तृत सर्वेक्षण किया, जिसमें भोपाल के 10 वार्डों के सभी इलाकों और छह अन्य वार्डों के कुछ इलाकों को शामिल किया गया था और 25,294 परिवारों के साक्षात्कार लिए थे।

राज्य सरकार ने आंशिक रूप से सर्वेक्षण किये गये छह वार्डों में काम पूरा किये बिना या गैस प्रभावित घोषित किये गये भोपाल के अन्य 20 वार्डों में काम शुरू किये बिना ही एक महत्वपूर्ण घरेलू सर्वेक्षण को अचानक समाप्त कर दिया।

किसी अनजान कारण से, राज्य सरकार ने इस महत्वपूर्ण घरेलू सर्वेक्षण को अचानक बंद कर दिया तथा आंशिक रूप से सर्वेक्षण किये गये छह वार्डों में काम पूरा करने या भोपाल के अन्य 20 वार्डों में काम करने का कोई प्रयास नहीं किया, जिन्हें तब गैस प्रभावित घोषित किया गया था।

हालांकि, बाद में भारत सरकार ने रिट याचिका (सिविल) संख्या 843/1988 और 11708/1985 में एक हलफनामे में 12 मार्च 1990 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सामने स्वीकार किया कि, “अनुमानित जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर, ऐसा लगता होता है कि आपदा की रात इलाके में लगभग 5 लाख [500,000] लोग थे और इन सभी लोगों को अंतरिम राहत की योजना के ज़रिए सहायता देने की जरूरत है।”

दूसरे शब्दों में, टिस के नेतृत्व में किए गए सर्वेक्षण में गैस प्रभावित परिवारों में से एक-चौथाई से भी कम को कवर किया गया था। चूंकि सर्वेक्षण के प्रोफ़ॉर्मा शीट राज्य सरकार ने जब्त कर ली थीं, इसलिए आज तक संक्षिप्त सर्वेक्षण का उचित विश्लेषण भी प्रकाशित नहीं किया गया है। यह अविश्वसनीय है कि सरकार आपदा के प्रभाव की वास्तविक भयावहता और गंभीरता को छिपाने के लिए इतनी बेताब थी!

सर्वेक्षण के आंकड़ों के विश्लेषण में मध्य प्रदेश सरकार की ओर से की गई देरी से निराश होकर, 22 जुलाई 1985 को तत्कालीन राहत आयुक्त, श्री ईश्वर दास को संबोधित एक पत्र में, टीआईएसएस के तत्कालीन निदेशक डॉ. ए.एस. देसाई ने लिखा कि:

"मैं आभारी रहूंगा यदि आप हमें जल्द से जल्द बता सकें कि डेटा का विश्लेषण किस हद तक किया गया है और सर्वेक्षण में पहचाने गए खास परिवारों, महिलाओं और बच्चों के लिए कौन से राहत कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। हमने राहत कार्य को लागू करने भी सहायता करने की पेशकश की थी। अब तक उस संबंध में भी कुछ नहीं सुना गया है।"

हालांकि, उनके द्वारा लिखे पत्र पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। राज्य सरकार के पूरी तरह से उदासीन रवैये से निराश होकर, टिस (TISS) ने बाद में गैस राहत कार्य पर एक संक्षिप्त रिपोर्ट तैयार की। 31 मई, 1989 की रिपोर्ट का निष्कर्ष इस प्रकार था: "आज तक, हमें नहीं पता कि डेटा का विश्लेषण और इस्तेमाल किया गया है या नहीं। दस संस्थानों ने अपने शैक्षणिक काम के लिए काफी लागत पर अपना समय दिया था...

टीआईएसएस द्वारा किए गए सर्वेक्षण में गैस प्रभावित परिवारों में से एक-चौथाई से भी कम को कवर किया गया था।

“छात्रों और शिक्षकों ने खुद की मर्ज़ी से यह वक़्त दिया था और छुट्टियों को छोड़ दिया था क्योंकि उन्हें लगा कि वे एक उद्देश्य के लिए काम कर रहे थे…वे [छात्र] और साथ ही शिक्षक बहुत निराश हैं और [मध्य प्रदेश] सरकार पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि दो महीने तक की कड़ी मेहनत के बावजूद कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है। इस कड़ी में 25,295 परिवारों को द्वितीय श्रेणी के रियायती रेलवे किराए, साधारण भोजन और उनके रहने की अपर्याप्त व्यवस्था न्यूनतम लागत पर कवर की गई थी।

"किसी को इससे ज़्यादा कुछ और उम्मीद नहीं थी, सिवाय इसके कि इस शानदार जनगणना काम में वे खुद जुड़े थे जिससे लोगों को फ़ायदा होना था। जिस तरह से इस मामले को संभाला गया है, उससे लोगों में जो निराशा है, उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है।"

सार्वजनिक जांच को रोका गया

इस आपदा के तुरंत बाद, भारत सरकार ने 5 दिसंबर, 1984 को वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर-भारत में औद्योगिक अनुसंधान के लिए प्रमुख राष्ट्रीय संस्थान) के तत्कालीन महानिदेशक डॉ. एस. वरदराजन की अध्यक्षता में एक वैज्ञानिक समिति गठित की, जिसे आपदा के वैज्ञानिक और तकनीकी पहलुओं का अध्ययन करने और एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए नियुक्त किया गया।

एक दिन बाद, मध्य प्रदेश सरकार ने 6 दिसंबर, 1984 को इस आपदा की न्यायिक जांच शुरू की और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.के. सिंह को भोपाल जहरीली गैस रिसाव (1984) जांच आयोग का एकल सदस्य नियुक्त किया।

उसी दिन, यूसीसी, अमरीका के विशेषज्ञों की एक टीम भी गैस रिसाव के कारणों की जांच करने के लिए भोपाल पहुंची थी। पर्यावरण संरक्षण और विष विज्ञान में विशेषज्ञता रखने वाले भारतीय वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं की कई टीमें भी राहत कार्य में मदद के लिए आगे आईं।

इनमें दिल्ली साइंस फोरम (डीएसएफ) की एक टीम भी शामिल थी। इसके बाद 18 दिसंबर 1985 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पूर्व प्रधान सचिव और डीएसएफ के तत्कालीन अध्यक्ष श्री पीएन हक्सर ने दिल्ली में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में आपदा पर डीएसएफ की रिपोर्ट जारी की।

न्यायमूर्ति एन.के. सिंह आयोग ने अपनी बैठकें शुरू कीं और 26 मार्च, 1985 को राज्य सरकार को मामले का विवरण दाखिल करने का निर्देश दिया। कार्यवाही में भाग लेने वालों में मध्य प्रदेश सरकार, यूसीआईएल, यूनियन कार्बाइड वर्कर्स यूनियन, यूनियन कार्बाइड कर्मचारी यूनियन, जहरीली गैस खंड संघर्ष मोर्चा (जेडजीकेएसएम), लॉयर्स कलेक्टिव, डीएसएफ, भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस), भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई), भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), और कई व्यक्ति शामिल थे, जिनमें रफत अली खान और अनीस चिश्ती जैसे पत्रकार शामिल थे।

यह अविश्वसनीय है कि सरकार आपदा के प्रभाव की वास्तविक भयावहता और गंभीरता को छिपाने के लिए इतनी व्याकुल थी!

23 जुलाई 1985 को न्यायमूर्ति एन.के.सिंह आयोग की नौवीं बैठक के बाद जारी आदेश में आयोग ने फैसला सुनाया: "यूसीआईएल... प्रथम दृष्टया दोषी पक्ष है, जो दुर्घटना के लिए जिम्मेदार है, जिसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में भारतीय लोग मारे गए और विकलांग हो गए..." हालांकि, राज्य सरकार के उदासीन रवैये के कारण जांच में ज्यादा प्रगति नहीं हुई।

अंततः, काफी टालमटोल के बाद 28 नवम्बर 1985 को मध्य प्रदेश सरकार ने गवाहों की सूची और दस्तावेजों की सूची के बिना ही न्यायमूर्ति एन.के.सिंह आयोग के सामने मामले का विवरण दाखिल कर दिया।

जबकि राज्य सरकार द्वारा जांच हेतु प्रस्तावित गवाहों की सूची 29 नवम्बर 1985 को दाखिल की गई थी, सरकारी वकील ने दस्तावेजों की सूची दाखिल करने के लिए कुछ और समय का अनुरोध किया।

यूसीआईएल ने यूसीआईएल के गवाहों की सूची और दस्तावेजों की सूची दाखिल करने के लिए और समय मांगा। न्यायमूर्ति सिंह ने सभी पक्षों को सभी जरूरी दस्तावेज दाखिल करने के लिए 11 दिसंबर, 1985 तक का समय दिया। अगली बैठक 12 दिसंबर, 1985 तक स्थगित करने से पहले न्यायमूर्ति सिंह ने निम्नलिखित टिप्पणी की:

"हालांकि, विदा लेने से पहले मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि आयोग की कार्यवाही में अब तक देरी हुई है, जिसका मुख्य कारण राज्य सरकार द्वारा मामले का बयान दाखिल करने में देरी और स्थिति का फायदा उठाकर कुछ पक्षों द्वारा विलंब करने की रणनीति अपनाना है।

"इस बात पर जोर दिया जाता है कि दलील का चरण 13 दिसंबर, 1985 तक पूरा हो जाना चाहिए था, ताकि अगले साल जनवरी महीने में सबूत के ऊपर कार्यवाही तय की जा सके। इस संबंध में अब कोई देरी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।"

12 दिसंबर 1985 को राज्य सरकार ने उन दस्तावेजों की सूची दाखिल की जिन पर भरोसा किया गया था। उसी दिन यूसीआईएल ने भी गवाहों की सूची और उन दस्तावेजों की सूची दाखिल की जिन पर भरोसा किया गया था। लेकिन गैस पीड़ितों और सभी संबंधित लोगों के लिए यह बेहद निराशाजनक था कि मध्य प्रदेश सरकार, जिसने 12 दिसंबर 1985 तक (यानी आयोग के गठन के एक साल से भी ज़्यादा समय तक) अपने दावों को टाला था, ने 17 दिसंबर 1985 को धोखाधड़ी से आयोग को समाप्त कर दिया, जिससे जांच में देरी हुई।

आज तक, भोपाल गैस रिसाव आपदा की भयावहता, गंभीरता और जीवों तथा पर्यावरण पर इसके प्रभाव की गहन जांच नहीं की गई है।

गैस रिसाव के कारणों की जांच के लिए यूसीसी, अमेरिका के विशेषज्ञों की एक टीम भी भोपाल पहुंची।

वरदराजन समिति की रिपोर्ट

इस बीच, वरदराजन समिति को शेष बची एमआईसी (लगभग 23 टन) को निष्क्रिय करने के पर्यवेक्षण का अतिरिक्त कार्य सौंपा गया था, जिसे उस टैंक के निकटवर्ती दो अन्य भंडारण टैंकों में संग्रहित किया गया था, जहां से एमआईसी गैस निकाल गई थी।

यूसीआईएल के गिरफ्तार अधिकारियों की सहायता से, जिन्हें इस उद्देश्य के लिए जमानत दी गई थी, 16-22 दिसंबर, 1984 तक निष्प्रभावीकरण प्रक्रिया सफलतापूर्वक संचालित की गई।

इसके बाद, व्यापक जांच के बाद, वरदराजन समिति, जिसने भोपाल आपदा के वैज्ञानिक और तकनीकी पहलुओं की जांच की थी, ने 20 दिसंबर, 1985 को केंद्र सरकार को भोपाल जहरीली गैस रिसाव से संबंधित कारकों पर वैज्ञानिक अध्ययन पर अपनी रिपोर्ट सौंपी

रिपोर्ट में निम्नलिखित डिजाइन, रखरखाव और परिचालन संबंधी दोषों की ओर ध्यान दिलाया गया:

1. "एमआईसी एक ऐसा रसायन है जी बहुत अधिक प्रतिक्रियाशील, विषैला, वाष्पशील और ज्वलनशील है... चूंकि प्रतिक्रिया एक्ज़ोथिर्मिक/ऊष्माक्षेपी है, इसलिए मुख्य स्रोत/उत्प्रेरक के बचे अंशों से एमआईसी का कोंटामिनेषन/संदूषण हिंसक प्रतिक्रियाओं का कारण बन सकता है... उपर्युक्त विशेषताओं वाले एमआईसी को अत्यधिक विषैला रसायन होने के अलावा विस्फोटक भी माना जाना चाहिए।" (पैरा 4.1, पृष्ठ 75)।

2 “यूसीसी ब्रोशर के अनुसार, भंडारण तापमान 15oC से नीचे और अधिमानतः लगभग 0oC पर बनाए रखा जाना चाहिए था।” (पैरा 4.1, पृष्ठ 75)

3. “टैंक की सामग्री को एम्बिएंट/परिवेशी तापमान पर इकट्ठा किया जा रहा था, जो भोपाल में लगभग +15oC से +40oC तक भिन्न होता है। (पैरा 4.4, पृष्ठ 77)

4. "पीछे मुड़कर देखने पर, ऐसा लगता है कि जहरीली गैस के रिसाव और उसके भारी नुकसान के लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार कारक एमआईसी की बहुत अधिक होने वाली प्रतिक्रियाशीलता, अस्थिरता और साँस के ज़रिए उसकी विषाक्तता को अंदर जाने वाले गुण थे। यह बताने की जरूरत नहीं कि, बहुत बड़ी मात्रा में सामग्री को लंबे समय तक बहुत बड़े आकार के कंटेनरों में अनावश्यक रूप से इकट्ठा करना साथ ही उसका डिजाइन, निर्माण की सामग्री का चयन और मापन और अलार्म उपकरणों के प्रावधान में अपर्याप्त सावधानी का होना, साथ ही भंडारण प्रणालियों और इकट्ठा की गई सामग्रियों की गुणवत्ता पर अपर्याप्त नियंत्रण होना और अस्थिरता वाली सामग्री के जल्द और प्रभावी निपटान के लिए जरूरी उपकरणों/सुविधाओं की कमी के कारण यह दुर्घटना हुई थी।" (पैरा 4, पृष्ठ 82)

आपदा की भयावहता और जीवन प्रणालियों और पर्यावरण पर इसके प्रभाव की गंभीरता का आकलन करना या दोषियों की पहचान करना वरदराजन समिति के कार्यक्षेत्र में नहीं था। दूसरी ओर, न्यायमूर्ति एन.के.सिंह आयोग के गठन का कथित उद्देश्य इन्हीं मुद्दों को संबोधित करना था।

हालांकि, राज्य सरकार ने आयोग को समय से पहले ही भंग कर दिया था, ताकि वह आपदा के प्रभाव की सीमा और गंभीरता का निष्पक्ष आकलन कर सके और घटना के अभियुक्त को जिम्मेदारी ठहरा सके। जाहिर है, केंद्र और राज्य सरकारें केवल मामले को किसी तरह से दबाने में रुचि रखती थीं और गैस पीड़ितों के लिए न्याय सुनिश्चित करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

जबकि राज्य सरकार ने जांच के लिए गवाहों की सूची को 29 नवम्बर 1985 को दाखिल किया, सरकारी वकील ने दस्तावेजों की सूची दाखिल करने के लिए कुछ और समय का अनुरोध किया।

कृष्ण मूर्ति आयोग

1 अगस्त 1985 को, लॉयर्स कलेक्टिव की इंदिरा जयसिंह ने डॉ. निशित वोहरा और अन्य की ओर से भारत के सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका संख्या 11708/1985 दायर की, जिसमें गैस पीड़ितों के लिए बेहतर चिकित्सा और आपदा के कारण हुई चोटों के प्रभाव की भयावहता और गंभीरता का निर्धारण करने के लिए एक उचित महामारी विज्ञान सर्वेक्षण की मांग की गई।

इसके बाद ही भारत सरकार ने 8 अगस्त, 1885 के एक गेजेट अधिसूचना के जरिए डॉ. सी.आर. कृष्णमूर्ति (तत्कालीन निदेशक, भारतीय विष विज्ञान अनुसंधान संस्थान, लखनऊ) के नेतृत्व में एक उच्च स्तरीय आयोग गठित करने का निर्णय लिया, जिसे भोपाल और उसके आसपास के इलाकों में मानव, पशु और पौधों की जीवन प्रणालियों पर एमआईसी (और यूसीआईएल संयंत्र से निकलने वाली अन्य जहरीली गैसों) के दीर्घकालिक प्रभावों का अध्ययन करना था।

कैबिनेट सचिवालय द्वारा स्थापित किए गए, इस आयोग को जीवन प्रणालियों पर भोपाल गैस रिसाव के प्रभावों पर सतत अध्ययन के लिए वैज्ञानिक आयोग कहा गया था।

जुलाई 1987 में प्रस्तुत कृष्णमूर्ति आयोग की रिपोर्ट की कुछ सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणियां, निष्कर्ष और सिफारिशें इस प्रकार थीं:

1. “भारतीय वैज्ञानिक समुदाय की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह भोपाल आपदा पर वैज्ञानिक हित की सभी सूचनाओं का दस्तावेजीकरण करे और उन्हें दुनिया भर में अपने साथियों के साथ साझा करे।” (पृ.1)

[इस सिफारिश के उलट, आईसीएमआर द्वारा किए गए चिकित्सा अनुसंधान की रिपोर्टें 1994 के अंत में ही सार्वजनिक कर दी गई थीं।।]

2. "2-3 दिसंबर, 1984 को 2,566 गर्भवती महिलाओं (2,894 में से) के गर्भावस्था के आंकड़ों के परिणाम से 24.2 प्रतिशत की सहज गर्भपात दर दिखाई गई (राष्ट्रीय औसत 6-7 प्रतिशत बताया गया है)... आपदा के बाद मृत जन्म की दर 33.7 प्रति हजार थी, जबकि राष्ट्रीय आंकड़ा 11.3 प्रति हजार प्रसव है।" (पृष्ठ 7)

3. “शुरू से ही यह महसूस किया गया कि स्वास्थ्य निगरानी कार्यक्रम में उन इलाको की पूरी आबादी को शामिल किया जाना चाहिए जो विषाक्त साए के सीधे प्रभाव को झेल रहे हैं।” (पृष्ठ 8)

4. "इसलिए, वयस्कों और बच्चों दोनों की प्रतिरक्षात्मक स्थिति की निगरानी, उन लोगों का मूल्यांकन करना हेल्थ का अंदाज़ा लगाना जरूरी है जो पीड़ित हैं और साथ ही पर्यावरणीय संक्रमणों और खतरों के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता की निगरानी भी जरूरी है।" (पृष्ठ 11)

5. "आईसीएमआर के खोजपूर्ण अध्ययनों से पता चला कि भोपाल में विभिन्न क्लीनिकों में आने वाले 22 प्रतिशत मरीज मानसिक विकारों से पीड़ित थे। दो तरह की जांच के ज़रिए 6,000 लोगों के सर्वेक्षण में प्रति हजार 66-133 की व्यापकता दर दिखाई गई, जबकि गैस के संपर्क में न आने वाली आबादी में यह दर प्रति हजार 25 थी। अधिकांश मरीज महिलाएं थीं और 80 प्रतिशत से अधिक मामले 45 वर्ष से कम आयु वर्ग में देखे गए। 90 प्रतिशत से अधिक मामलों को न्यूरोटिक्स के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।" (पृष्ठ 11)

6. "भोपाल में महामारी विज्ञान कार्यक्रम की प्रगति धीमी रही है और इसके डिजाइन और लागू करने में बुनियादी ढांचे में कई कमियाँ रही हैं। काम का मूल्यांकन करने और बीच में सुधार लागू करने में सहकर्मी समीक्षा प्रणाली के संचालन की कोई सुविधा न होने के कारण ऐसा हुआ लगता है।" (पृष्ठ 11)

7. “अतः यह सिफारिश की जाती है कि स्वास्थ्य मंत्रालय आईसीएमआर और अन्य एजेंसियों की सहायता से भोपाल गैस पीड़ितों के दीर्घकालिक स्वास्थ्य अध्ययनों के उच्च-स्तरीय समन्वय और निगरानी के लिए जरूरी तंत्र बनाए।” (पृष्ठ 26)

कृष्णमूर्ति आयोग की इन टिप्पणियों और सिफारिशों के उलट, न तो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय, न ही आईसीएमआर या राज्य सरकार ने आज तक गैस से प्रभावित संपूर्ण आबादी की उचित चिकित्सा निगरानी या उनके पूर्ण कम्प्यूटरीकृत चिकित्सा रिकॉर्ड को बनाए रखने के लिए कोई तंत्र बनाया है।

इतने वर्षों में समुचित और पूर्ण चिकित्सा रिकॉर्ड के अभाव में, गैस पीड़ितों को न केवल समुचित और पर्याप्त चिकित्सा देखभाल से वंचित रखा गया, बल्कि उन्हें लगी चोट की गंभीरता और उन्हें झेलनी पड़ी परेशानियों के अनुसार पर्याप्त मुआवजा भी नहीं दिया गया।

सौजन्यद लीफ़लेट

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