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बजट 2021-22: अमीरों पर टैक्स लगाने, निवेश और कल्याण पर ख़र्च बढ़ाने की ज़रूरत

भारतीय अर्थव्यवस्था को पूंजी की बहुत अधिक ज़रूरत है। लेकिन राजकोषीय घाटे से जुड़ा कानून एक तरफ़ जहां उधार को सीमित करता है, वहीं बेलगाम मुद्रास्फीति का ख़तरा भी कम नहीं दिखता। तो एक ही रास्ता बचता है- अमीरों पर टैक्स बढ़ाओ!
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अर्थव्यवस्था में किसी प्रकार का पुनर्जीवन या रिवाइवल दो बातों पर निर्भर हैः विकास को प्रोत्साहित करने के लिए अधिक निवेश, और मांग बढ़ाना ताकि उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के लिए वृहद् बाज़ार का सृजन हो। यह अवश्य ही मांग करता है कि सामाजिक क्षेत्र में कल्याणकारी व्यय हो।

 पर आखिर इसके लिए जिस पूंजी की जरूरत है, वह आएगा कहां से? हमारे देश में भयंकर राजस्व संकट है और उधार लेने की भी सीमा नहीं है; पर इस बहादुरी की भी एक सीमा है। सरकार को पूंजी का संकट हो सकता है। परंतु भारत के अमीरों के पास अथाह पूंजी है, तो पैसों की कमी कहां है? इसलिए बीमार अर्थव्यवस्था की प्राणरक्षा के लिए एक ही रास्ता बचता है-पैसों की उगाही वहां से करो जहां वह है! यानी अमीरों पर कर बढ़ाओ।

पिछले बजट से चार माह पूर्व हमारी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने सितम्बर 2019 में 1.45 लाख करोड़ का कॉरपोरेट कर रियायत या टैक्स कन्सेशन दिया था। उसमें से 70 प्रतिशत से अधिक तो 200 बड़े कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने वाला था।

इससे क्या बात बनी यानी इसके बाद निजी कॉरपोरेट निवेश में कुल कितना अधिक इज़ाफ़ा हुआ? फरवरी 2020 के आरबीआई बुलेटिन के अनुसार 2018-19 में कुल 988 निवेश परियोजनाएं थीं, जिनमें कुल निवेश 2,53,705 करोड़ रुपये का था। वाणिज्य मंत्रालय की संस्था आईबीईएफ (इंडिया ब्राण्ड इक्विटी फाउंडेशन) के अनुसार 2019-20 में 1012 निजी कॉरपोरेट निवेश परियोजनाएं थीं (निजी इक्विटी और उद्यम पूंजी दोनों), जिनमें 2,61,360 करोड़ का निवेश था, पर 2020-21 में निवेश परियोजनाओं की संख्या घटकर 814 हो गई, जिसका मूल्य 2,82,240 करोड़ था। तो हम कह सकते हैं कि टैक्स कटौति के बाद निवेश में सालाना बढ़ोत्तरी काफी कम है। 

मतलब सरकार 1.45 लाख करोड़ की ताज़ा टैक्स छूट देती है और काॅरपोरेट जगत की प्रतिक्रिया महज इतनी होती है कि वह 20,000 करोड़ अधिक निवेश करता है। यदि आप विदेश से आए एफडीआई को छोड़ दे तो भारतीय व्यापार घरानों का निवेश नगण्य है। आखिर ये सारा पैसा जा कहां रहा है?

(निजी इक्विटी वह फंड है जो संस्थागत और खुदरा निवेशक सार्वजनिक कम्पनियों का अधिग्रहण करने या निजी कम्पनियों में निवेश करने हेतु उपयोग करते हैं

उद्यम पूंजी वह पूंजी है, जो उच्च विकास और लाभप्रदता की प्रबल संभावना वाले नए व्यवसाय के वित्तपोषण के लिए दिया जाता है।)

यहां पर एक विरोधाभास भी है। अर्थव्यवस्था की बुरी दशा है पर शेयर बाज़ार उछाल पर है और 21 जनवरी 2021 को सेंसेक्स 50,000 के ऐतिहासिक रिकाॅर्ड को छू गया। मतलब स्पष्ट है-पूंजीखोर अपनी पूंजी को शेयर बाज़ार में सट्टेबाज़ी में लगा रहे हैं, न कि उत्पादक निवेश की ओर बढ़ रहे हैं। इसलिए अधिक रोजगार नहीं पैदा हो रहा। यह एक दुश्चक्र बन गया है-कम रोज़गार के मायने हैं। कम क्रय शक्ति और तब मार्केट भी संकुचित होगा, जिसकी वजह से विकास के लिए प्रोत्साहन कम होता जाएगा।

यूपीए शासन के दौर में, पी चिदम्बरम ने सालाना बजट के विशेष खण्ड में काॅरपोरेट घरानों को टैक्स की छूट के कारण परित्यक्त कुल राजस्व (total revenue forgone) के आंकड़े देना शुरू किया था। पर अरुण जेटली ने, अपनी बढ़ी वर्ग-वफादारी के चलते आगामी बजटों में इस खण्ड को छलपूर्वक बदल दिया और काॅरपोरेट्स को दी गई टैक्स की भारी छूट के आंकड़े दबा दिये। दुर्भाग्यवश निर्मला जी इस हेराफेरी को वापस पटरी पर नहीं लाईं। फिर भी, अर्थशास्त्रियों ने आंकलन करके दिखाया है कि मोदी राज के प्रथम कार्यकाल में काॅरपोरेटों को प्रति वर्ष औसतन 5 लाख करोड़ की टैक्स छूट दी गई है। बावजूद इसके मोदी के दूसरे कार्यकाल के प्रथम वर्ष में अर्थव्यवस्था को बर्बाद होने से बचाया न जा सका।

सार्वजनिक निवेश बढ़ाना आवश्यक तो है पर विकास प्रोत्साहित करने के लिए काफी नहीं है। अब मोदी सरकार के रिकाॅर्ड को ही ले लें। 31 दिसम्बर 2019 को एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए निर्मला सीतारमन ने दावा किया था कि मोदी सरकार ने अपने दो कार्यकाल के प्रथम 6 वर्षों में 50 लाख करोड़ का निवेश अवसंरचना या इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में निवेशित किया। नितिन गडकरी तो सड़क निर्माण में ही जुट गए। ये पैसा मजदूरों के बजाए ठेकेदारों के जेब में गया क्योंकि वे मजदूरों के बजाए पोक्लेन और मिट्टी हटाने वाली बड़ी मशीनों का प्रयोग करते हैं। इसकी वजह से भी विकास में घटाव जारी रहा। सार्वजनिक निवेश केवल हाईवे बनाने के लिए नहीं, बल्कि ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य व शिक्षा मूलढांचा (rural health and education infrastructure) में होता तो बेहतर विकास लाभांश प्राप्त होते।

इसी प्रकार बेहतर आय केवल चंद ठेकेदारों के हाथों में नहीं, बल्कि हज़ारों-हज़ार श्रमिकों और गरीब मज़दूरों के हाथ आता तो उनकी क्रय शक्ति बढ़ती और इससे आनुपातिक रूप से विकास को प्रोत्साहन मिलता। यही काम यूपीए के समय छठे वेतन आयोग ने किया था और मोदी के अपने कार्यकाल में भी सातवें वेतन आयोग ने किया था। इसमें निर्मला जी के लिए एक सीख है। ट्रेड यूनियनों की मांग के अनुसार 9000 रु प्रति माह के अत्यधिक कम न्यूनतम वेतन को यदि 18000 रु कर दिया गया होता तो विकास को बेहतर प्रोत्साहन मिलता। 

विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के इतिहास से जो शिक्षा मिलती है वह यह है कि अर्थव्यवस्था के कम वेतन वाले क्षेत्र विकास में बाधा बनते हैं। इसीलिए यूरोज़ोन संकट के दौरान जो पहला काम उन्होंने किया था वह था न्यूनतम वेतन बढ़ाना। यही कारण है कि जो बाइडेन ने जब चुनाव में वायदा किया कि वह 15 डाॅलर न्यूनतम वेतन की गारंटी करेंगे तो न केवल उन्हें जनसमर्थन मिला, बल्कि यह भविष्य में यूएस अर्थव्यवस्था में भारी स्टिमुलस का काम करेगा।

(यूरोज़ोन संकट 2010 में यूनान से शुरू हुआ ऋण संकट है जो तमाम यूरोपीय देशों को गिरफ्त में ले लिया; इन देशों में बजट घाटा बेलगाम है।)

महिलाओं के हाथों में अधिक पैसे आने के मायने भी होंगे विकास को प्रोत्सहन। यही कारण है कि आद्योगिक रूप से विकसित राज्य तमिलनाडु में प्रमुख विपक्षी दल डीएमके अपने चुनावी घोषणापत्र में वायदा करने जा रहा है कि प्रत्येक गृहिणी को प्रतिमाह 2000रु मानदेय दिया जाएगा; यह उसके अदृश्य श्रम के प्रति सम्मान का एक संकेत होगा। ऐसे राज्य से आने वाली श्रीमती निर्मला को लोक-हितकारिता के विकास-मूल्य की समझदारी होनी चाहिये।

परंतु इसके लिए पैसे चाहिये। वह कहां से आएगा? यह स्पष्ट है कि उधार की एक सीमा होती है। विकल्प के तौर पर क्या अमीरों पर टैक्स बढ़ाना वहनीय (sustainable) होगा?

भारत की आय विषमता विश्व में सबसे अधिक है। एक ख्यातिप्राप्त अमेरिकी अर्थशास्त्री थाॅमस पिकेटी और फ्रांस के अर्थशास्त्री लूकस चांसेल द्वारा किये 2019 के संयुक्त अध्ययन में बताया गया कि भारतीय जनसंख्या के शीर्ष 1 प्रतिशत लोग जिनकी संख्या 2015 में 125 लाख थी, समस्त भारतीयों द्वारा कमाई गई आय का 21 प्रतिशत हिस्सा निर्मित करते थे। शीर्ष 10 प्रतिशत जनसंख्या यानि 12.5 करोड़ लोग समस्त भारतीयों द्वारा कमाए गए पैसों का 56 प्रतिशत हिस्सा निर्मित करते थे। निचले 50 प्रतिशत हिस्से का योगदान केवल 14.7 प्रतिशत था। तो ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों के कर को क्यों न दूना कर दिया जाए?

लेकिन केवल 8600 भारतीयों की घोषित आय 5 करोड़ से अधिक है और केवल 3,16,000 भारतीयों ने अपनी आय 50 लाख प्रति वर्ष से ऊपर घोषित की है। वर्ल्ड वेल्थ रिपोर्ट ने आकलन किया है कि जिन लोगों के पास 1 मिलयन डाॅलर या अधिक का निवेश-योग्य धन है (वर्तमान एक्सचेंज रेट के अनुसार यह 22 जनवरी 2021 को 7.30 करोड़ रुपये था) उनकी संख्या 2019 में 2.63 लाख थी।

आधार लिंकेज व एक खास सीमा से अधिक के लेन-देन के अनिवार्य डिजिटलाइज़ेशन (digitalization) के बावजूद टैक्स चोरी व्यापक पैमाने पर जारी है। इसलिए अमीरों पर टैक्स-नेट को बढ़ाने की काफी गुंजाइश है।

 प्रमुख वामपंथी विचारक प्रभात पटनायक ने भी इंगित किया है कि भारत में कोई ‘वेल्थ टैक्स नहीं है (अरुण जेटली ने 2016 में इसे खत्म कर दिया था) और न ही उत्तराधिकार कर है। उन्होंने हाल में प्रकाशित अपने एक लेख में अधिक राजस्व की उगाही करने हेतु अमीरों पर टैक्स लगाने की आवश्यकता पर जोर दिया है।

अमीरों पर अधिक टैक्स लगाना एक कमज़ोर सरकार के लिए राजनीतिक तौर पर वहनीय नहीं भी हो सकता है, पर आर्थिक दृष्टिकोण से यह बुद्धिमान और वहनीय कदम है। पर हमारे ‘56-इंच सीने वाले’ अपने काॅरपोरेट आकाओं से काफी भयभीत लगते हैं।

बजट में फिर से प्राथमिकताओं को सही ढंग से तय करने के लिए आइये हम देखें कि आने वाले बजट के समक्ष क्या-क्या चुनौतियां हैं?

किन चुनौतियों का सामना करेगा आगामी बजट?

आर्थिक सिद्धान्त में वित्तीय घाटे और विकास के बीच संबंध है, और विकास व रोजगार के बीच भी। तो साधारण स्थितियों में वित्तीय अनुशासन अनिवार्य होता है। पर गतिहीनता की स्थिति में जैसा कि वर्तमान समय में है -वित्तीय घाटे व मुद्रस्फीति के बीच और मुद्रास्फीति तथा विकास के बीच एक प्रयोगसिद्ध (empirical) संबंध है। आप इस तरह समझ सकते हैं कि जब अर्थव्यवस्था विकास नहीं कर रही है और जहां लाभकारी निवेश के रास्ते चोक हो गए हैं, सीमा से अधिक उधार लेते जाना और खर्च करते जाना मुद्रास्फीति को ही बढ़ाने का काम करेगा; यह विकास को अवरुद्ध करेगा और आर्थिक रिकवरी को लम्बित करेगा।

 परंपरागत अर्थशास्त्र के तहत उधार लेना भी वहनीय होना चाहिये। और जब अर्थव्यवस्था बिल्कुल भी बढ़ नहीं रही हो, बल्कि संकुचित हो रही हो और नकारात्मक विकास (negative growth) के रास्ते पर अग्रसर हो, तो हमें क्या करना चाहिये? 

जाहिर है हमें हर कीमत पर विकास को प्रोत्साहित करना चाहिये और थोड़ी मूल्य वृद्धि के बारे में चिंता करना छोड़ देना चाहिये। समझौताकारी समन्वयन (trade off) तो होना जरूरी ही होगा। ये असाधारण दौर है, जिसमें असाधारण प्रयास करने  होंगे।

वित्त मंत्री ने 2020-21 के लिए वित्तीय घाटे का टार्गेट जीडीपी का 3.5 प्रतिशत पर रखा था और राजस्व घाटा 2.7 प्रतिशत पर। पर अब इन आंकड़ों ने अपने अर्थ खो दिये हैं। वास्तविक वित्तीय घाटा दूना से अधिक होगा और 8 प्रतिशत पार कर सकता है। राजस्व घाटा भी बहुत अधिक होगा। ऐसी मंदी की स्थिति में अर्थव्यवस्था को सबसे बेहतर कैसे चाक-चौबंद किया जाए?

यह देखने के बाद कि काॅरपोरेटों को लाखों करोड़ सौगात देने के बाद भी इन्हें निवेशित करने की जगह बढ़े लाभांश के रूप में जेब भरने के लिए प्रयोग किया गया; फिर सट्टेबाजी (speculation) में लगाया गया, वित्त मंत्री ने 2020-21 के बजट में मनरेगा के लिए आवंटन 30,000 करोड़ रु बढ़ाया है। इसके अलावा आगे के आत्मनिर्भर अभियान प्रोत्साहन पैकेज को एमएसएमईज़ (MSMEs) को हस्तांतरित कर दिया है। एमएसएमईज़ को पुनर्जीवित करने के लिए क्रेडिट बढ़ाने हेतु 3 लाख करोड़ की क्रेडिट गारंटी स्कीम घोषित की गई। केवल इसकी वजह से अर्थव्यवस्था, जो वित्तीय वर्ष 2021 के प्रथम त्रिमासे (1st quarter) में -23.9 प्रतिशत तक गोता लगा चुकी थी, कुछ हद तक रिकवर करके द्वितीय त्रिमासे में -7.5 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज की। तीसरे त्रिमासे के बारे में अब तक आंकड़ा नहीं मिला। वरना यह गिरावट जारी दिखाई पड़ती। 

पूरे देश को मालूम है कि अर्थव्यवस्था प्रथम त्रिमास (1st quarter) में 2.9 प्रतिशत संकुचित हुई थी। पर बहुतों को नहीं मालूम कि वित्तीय घाटा 2020-21 के पहले त्रिमास में ही टार्गेट के 5.3 प्रतिशत से अधिक विस्तारित हुआ और शुद्ध कर राजस्व (उस हिस्से को काटकर, जो राज्यों को सौंपा जाता है) प्रथम त्रिमास में 46.4 प्रतिशत घटा जबकि बढ़त का टार्गेट 20.6 प्रतिशत था।

अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करना तो दूर रहा, सरकार के पास पहले से प्रतिबद्ध व्यय के लिए तक पैसे नहीं थे। वित्तीय वर्ष के दौरान इस बोझ को आंशिक रूप से सरकारी कर्मचारियों के कंधों पर डाल दिया गया क्योंकि डीए फ्रीज़ कर दिया गया।

धौंसिये के माफिक केंद्र ने राज्यों के हिस्से के जीएसटी को देने से इंकार कर दिया और इसके लिए महामारी का बहाना प्रस्तुत किया। वित्त मंत्रालय ने यह आदेश तक पारित कर दिया कि कम से कम एक साल के लिए किसी भी नए ‘पब्लिक फंडेड स्कीम’ के लिए धन नहीं दिया जाएगा। कई मंत्रालयों और राज्यों को वंचित रखा गया। आत्मनिर्भर भारत को छोड़कर कोई नयी योजनाएं नहीं थीं, और वह भी असफल रहा। बहुत से जारी स्कीम, जैसे उज्ज्वला, प्रधानमंत्री आवास योजना और स्वच्छ भारत या तो बंद किये गए, स्थगित हुए या फिर उनका फंड काटा गया। जारी सुधार जैसे केंद्र के सहयोग से राज्यों में पावर सेक्टर सुधार अनिश्चय की स्थिति में पड़े। लाॅकडाउन खुला पर शासन बंदी की हालत में बना रहा।

 इस बीच और ढेर सारी वित्तीय चुनौतियां खड़ी हुईं। कोविड मरीजों की टेस्टिंग और इलाज के खर्चे के बाद कोविड वैक्सीन कार्यक्रम के लिए भी काफी बड़ी मात्रा में पूंजी की जरूरत होगी। रक्षा बजट में भी काफी इज़ाफ़ा करना होगा, क्योंकि चीन के साथ तनाव चल रहा है। बहुत सारे आवश्यक कार्यक्रम जैसे खाद्य और पोषण के कार्यक्रम मसलन आंगनवाड़ी कार्यक्रम और स्कूलों में चलने वाले मिड डे मील कार्यक्रम लाॅकडाउन के चलते स्थगित थे और बच्चों के लिए कोई वैकल्पिक कार्यक्रम नहीं था। निर्मला सीतारमन संशोधित बजट में इन प्रश्नों को कैसे संबोधित करेंगी यह देखना बाकी है। यह भी देखना होगा कि मनरेगा और प्रधानमंत्री आवास योजना का क्या हश्र होता है।

पूंजी की सख्त आवश्यकता है। पर फिस्कल रेस्पाॅन्सिबिलिटी ऐण्ड बजट मैनेजमेंट ऐक्ट (Fiscal Responsibility and Budget Management Act) एक तरफ जहां उधार को सीमित करता है, वहीं बेलगाम मुद्रास्फीति का खतरा भी कम नहीं दिखता। तो एक ही रास्ता बचता है-अमीरों पर टैक्स बढ़ाओ!

3 मार्च 2020 को यूएस स्थित थिंक-टैंक ग्लोबल फाइनैन्सियल इंटिग्रिटी (GFI) ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसने दिखाया कि व्यापार-संबंधी अवैध वित्तीय प्रवाह (illicit financial flow) के मामले में भारत का स्थान 135 से अधिक देशों में तीसरा है। यह अवैध वित्तीय प्रवाह 83.5 अरब यूएस डाॅलर है, जो सरकारी कर जाल से बाहर है। सरकार इसके पीछे क्यों नहीं लगती?

(अवैध वित्तीय प्रवाह में अवैध रूप से अर्जित, हस्तांतरित या उपयोग किये गए धन शामिल होते हैं। इसके प्रभावों में शामिल है - गरीबी उन्मूलन, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार सृजन जैसे कार्यक्रमों को कम करना)

SEBI यानि द सिक्युरिटीज़ ऐण्ड एक्सचेंज बोर्ड आॅफ इंडिया (The Securities and Exchange Board of India) के अनुसार 2010 तक भी 1 करोड़ 80 लाख भारतीय लोग स्टाॅक एक्सचेंज में सीधे इक्विटीज़ में निवेश करते हैं। म्यूच्वल फन्ड्स के पास अब 3.47 करोड़ एसआईपी (SIP) खाते हैं (वाॅयस या विडियो काॅल द्वारा संचालित खाते) जिसके 2 करोड़ निवेशक हैं। 


भारत का कुल स्टाॅक बाज़ार मूल्य 2.2 खरब यूएस डाॅलर है। डेरिवेटिव बाज़ार कारोबार (derivative markets turnover) 2017-18 में ही 116 लाख करोड़ पार कर चुका था। इस वित्तीय पूंजी का बड़ा हिस्सा उत्पादन में किसी सीधी गतिविधि से जुड़ा ही नहीं है बल्कि अन्य वित्तीय यंत्रों व लेन-देन के ऊपर सट्टेबाज़ी (speculation over other financial instruments and transactions) पर निर्भर है। इन वित्तीय सौदों पर छोटे उपकर (cess) लगाने से भी भारत के वित्तीय संकट का काफी हद तक समाधान हो सकता है। पर इसके लिए 56 इंच की छाती ही नहीं, राजनीतिक इच्छाशक्ति और हिम्मत की जरूरत है।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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