छत्तीसगढ़ चुनाव: 'यह ज़मीन मेरी मां है और मैं इसे किसी को भी नहीं दूंगा'
बेलार गांव के किसान बाकचंद बघेल कहते हैं, "यह ज़मीन मेरी मां है और मैं इसे किसी को नहीं दूंगा।"
चित्रकोट के लोहंडीगुडा विकास प्रखंड में बेलार गांव के निवासी 58 वर्षीय बघेल उन किसानों में से एक हैं जिनकी 28 एकड़ ज़मीन का सरकार ने कुछ साल पहले जबरन अधिग्रहण कर लिया था।
बघेल कहते हैं, "अपनी मां को कौन बेचता है। इसी धरती से हमें खाने और रहने को मिल रहा है तो मैं इसे क्यों किसी को बेच दूं? "अगर मैं ये ज़मीन किसी को दे देता हूं तो मेरे बच्चे तो अनाथ हो जाएंगे और ये गांव उजड़ जाएगा।"
आंसू भरी आंखों से वे कहते हैं, इस प्रखंड के गांव के ज़्यादातर लोग आदिवासी हैं जो पिछले 10 वर्षों से लगातार संघर्ष कर रहे हैं और इस क्षेत्र के मौजूदा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के उम्मीदवार लछुराम इस भूमि को टाटा और अन्य कंपनियों को देने के पक्ष में हैं जो इस क्षेत्र में औद्योगिक इकाइयों की स्थापना करना चाहते हैं क्योंकि यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों में समृद्ध है और भूजल का स्तर भी अधिक है।
बघेल का कहना है कि ग्रामीणों को अपनी ज़मीन का पट्टा पाने के लिए संघर्ष करते हुए क़रीब 10 साल हो गए हैं जिसे सरकार द्वारा जबरन अधिग्रहण कर लिया गया था। उन्होंने कहा, "हमें सब्सिडी वाले बीज, यूरिया और अन्य कृषि संबंधी उत्पाद नहीं मिलते हैं जिसे सरकार बस्तर के अन्य क्षेत्रों में किसानों को देती है।"
लोहंडीगुडा बस्तर डिवीजन में एक विकास प्रखंड है जो जगदलपुर डिवीजनल मुख्यालय से अबुझमद की ओर लगभग 40 किलोमीटर दूर स्थित है। यहां क़रीब 3,000 मतदाता हैं जिनमें से ज़्यादातर माडिया और मोरिया आदिवासी हैं, जिनका मुख्य पेशा गेहूं, चावल और इमली के खेती करना है।
लोहंडीगुडा विकास प्रखंड चित्रकूट विधानसभा में आता है जो एक एसटी (अनुसूचित जनजाति) आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र है और इस पर कांग्रेस के दीपक बैज का क़ब्ज़ा रहा है लेकिन अब यह उनके हाथ से फिसलता हुआ नज़र आ रहा है। माना जा रहा है कि ये क्षेत्र भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और अजीत जोगी की जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के संयुक्त उम्मीदवार के पाले में चला जाएगा। वर्ष 2010 में सरकार ने जबरन 10 गांवों- बदनजी, बादे पारोदा, बेलार, बेलियापाल, चींडगांव, दबपाल, धुरागांव, कुमली, सिरिसागुडा और तकरागुडा- में ज़मीन अधिग्रहण किया था।
http://cgvidhansabha.gov.in/english/newmlatable_fourthassembly.htm
इस बीच, कांग्रेस इस प्रखंड के मतदाताओं को फिर से लुभाने की कोशिश कर रही है और पूरे पेज का विज्ञापन करवा रही है। वह इस विज्ञापन में मतदाताओं को विश्वास दिलाने की कोशिश कर रही है कि वह अगर जीत जाती है तो कंपनियों को लोहंडीगुडा पर भूमि अधिग्रहण करने की अनुमति नहीं देगी।
बलार गांव के आदिवासी मधु नाग रोते हुए कहते हैं, उनकी 28 एकड़ ज़मीन सरकार ने जबरन अधिग्रहण कर ली और अब उन्हें कृषि के लिए केवल दो एकड़ ज़मीन है।
मधु कहते हैं, "मेरी 30 एकड़ ज़मीन बहुत उपजाऊ है और सभी सड़क के किनारे है। सरकार ने ज़मीन के बदले 20 लाख रुपये क्षतिपूर्ति के तौर पर हमें देने की कोशिश की, लेकिन हमने इनकार कर दिया, तब उस ज़मीन को हमसे जबरन ले लिया गया।" उन्होंने आगे कहा, जबरन ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ विरोध करने चलते उनके पिता को जेल भेज दिया गया था और उसके बाद से वे बीमार हैं।
एक किसान विमलेंदू झा जो स्थानीय समाचार पत्रों में स्ट्रिंगर के रूप में जुड़े हैं, इसकी पुष्टि करते हैं। वे कहते हैं, सरकार ने उनकी भी 50 एकड़ ज़मीन अधिगृहीत कर ली है, और वे अभी तक पट्टा नहीं ले पाए हैं।
वह आगे कहते हैं, "न सिर्फ मेरा 50 एकड़, बल्कि लोहंडीगुडा प्रखंड में 5,000 एकड़ बेहद उपजाऊ ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया गया है। सरकार ने उनकी इच्छा के विपरीत 285 भू-मालिकों पर मुआवज़े के लिए दबाव डाला है। इस क्षेत्र के निवासी अपनी भूमि वापस पाने के लिए विरोध कर रहे हैं, और इस बार बीजेपी को क्षेत्र से बाहर करने और सीपीआई को कमान सौंपने की क़सम खाई है, क्योंकि यह एकमात्र पार्टी है जो उनके संघर्ष के दिनों से उनके साथ खड़ी है।"
झा कहते हैं कि उनके विरोध में सीपीआई के समर्थन के कारण टाटा को लोहंडीगुडा से अपनी परियोजना वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, और अब ग्रामीणों ने यह फैसला किया है कि वे अब किसी भी कॉर्पोरेट कंपनियों को कोई भी भूमि हासिल करने की अनुमति नहीं देंगे।
जब बीजेपी के उम्मीदवार लछुराम से संपर्क किया तो उन्होंने औद्योगिकीकरण के ख़िलाफ़ विरोध करने वाले सभी लोगों को "मूर्ख" बताया।
सरकार के ख़िलाफ़ ग्रामीणों के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले स्थानीय सीपीआई नेता 58 वर्षीय कमलेश गजभिए कहते हैं, आदिवासियों की कुछ मांगें हैं और अगर सरकार उनसे सहमत हो जाती है तो लोग अपनी ज़मीन दे देंगे।
गजभिए कहते हैं, "मांग यह है कि उद्योग में 40% हिस्सेदारी हो और जो अनुपजाऊ ज़मीन है उसके लिए मुआवज़ा प्रति एकड़ 7 लाख रुपये और जो उपजाऊ ज़मीन है उसके लिए मुआवज़ा 10 लाख रुपये प्रति एकड़ मिले, वहीं विदेशी निवेश और प्रबंधन में 20% की हिस्सेदारी हो। ये हमारी 14 मांगों के कुछ बिंदु हैं।” वह आगे कहते हैं, सरकार को पिछले 10 वर्षों से ग्रामीणों को खेती को लेकर हुए नुकसान के लिए प्रति वर्ष 1 लाख रुपये का मुआवजा सुनिश्चित करना चाहिए।
कुल मिलाकर अब गेंद सरकार के पाले में है, लोहंडीगुरा प्रखंड के ग्रामीण "जल, जंगल और ज़मीन" को लेकर संघर्ष करने के लिए दृढ़ संकल्प हैं।
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