डार्लिंग्स: घरेलू हिंसा के साथ ही औरतों के ज़िंदगी की कश्मकश को समझने का मौका देती है
''प्यार नहीं करता तो मैं मारता क्यों? तुम प्यार न करती तो सहती क्यों?''
ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज फिल्म 'डार्लिंग्स' का यह डायलॉग हर उस महिला की कहानी बयां करता है जो घरेलू हिंसा का शिकार होकर भी चुप है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की मानें, तो देश में तमाम कानूनों के बावजूद हर तीन में से एक महिला घरेलू हिंसा की शिकार है। ऐसे में फिल्म की कहानी अच्छी है या बुरी ये सोचना तो बेईमानी हो जाता है क्योंकि ये एक बेहद जरूरी मुद्दे की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। ये एक शादीशुदा औरत को प्यार, विश्वासघात, गुस्सा, हिंसा और बदले की भावना से आगे जाकर सोचने पर मजबूर कर देती है।
बता दें कि डार्लिंग्स' कहानी है बदरू यानी आलिया भट्ट की। बदरू एक ऐसी लड़की है जो उस इंसान से शादी करती है जिससे वह बेहद प्यार करती है। लेकिन शादी के तीन साल बाद के सीन में प्रेमी से पति बना लड़का हमज़ा (विजय वर्मा) एकदम बदल जाता है। वह जिस बदरू के लिए सरकारी नौकरी करता है उसे ही एक नौकरानी की तरह ट्रीट करता है। हमज़ा शराब पीता है और अपनी बीवी को पीटता है, भयंकर क्रूरता से पीटता है। फिर सुबह होते ही उसे मनाता है और मार खाई पत्नी बदरू मान भी जाती है। कुल मिलाकर फिल्म में हर हिंसा भरी रात के बाद एक नयी सुबह दिखाई जाती है। एक पल में हमज़ा बदरू का गला घोंटता, उसे मारता दिखता है। तो वहीं दूसरे पल उसे सीने से लागाए रखता है। लेकिन हर बार बदरू अपने पति को इस उम्मीद में गले लगाती कि 'वो एक दिन बदल जाएंगे।'
पितृसत्ता और पति परमेश्वर
फिल्म का एक डायलॉग है, "जोरू कौन?, शौहर (पति) की परछाई।'' यह बात तो हमारे समाज में बचपन से लड़की को समझा दी जाती है। उसे पति को परमेश्वर और खुद को कमतर मानने को मज़बूर कर दिया जाता है। खैर, बदरू की मां शमशु (शेफाली शाह) उसे कई बार समझाती है और हर नई चोट के निशान देखकर उसे घर वापस आने की सलाह भी देती है पर बदरू एक के बाद एक तमाम मौके हमज़ा को देती है और सोने से पहले खाना नहीं, मार खाती है। फिर अचानक कुछ ऐसा होता है कि बाज़ी पलट जाती है और मार खाती पत्नी अपनी रिस्पेक्ट यानी इज्जत के लिए आवाज़ उठाती है।
हमारे आस-पास रह रही लाखों औरतों की कहानी इस फिल्म में कही गई है, जो एक अपमानजनक शादी में बरसों-बरस रहती हैं। कई और पहलू जैसे पड़ोसी सब देखकर भी चुप हैं, पुलिस की सहायता मौजूद है, फिर भी बीवी केस नहीं करना चाहती, एक बच्चे का आ जाने के बाद सब ठीक हो जाएगा जैसी मान्यताओं को बखूबी दिखाया गया है। बदरू सोचती है कि हमज़ा उसे प्यार करता है और उसका प्यार उसे बदल देगा। वह प्यार और हिंसा के व्यवहार में भरोसा रखकर उसके ख़िलाफ पुलिस शिकायत को वापस ले लेती है। वह हमज़ा से बच्चे का वादा कर एक बार फिर उस शादी में बनी रह जाती है।
फिल्म में बदरू कहीं-कहीं अपने साथ होने वाली हिंसा को सही भी ठहराती नज़र आती है, उसे लगता है उसका पति उससे प्यार करता है और केवल शराब की वजह से उसे मारता है। लेकिन मिसकैरेज के बाद उसे असली हिंसा का एहसास ज्यादा होता है। बच्चे की मौत और मां की ममता वाले पुराने एंगल को यहां दिखाया गया है जिसमें उसे यह महसूस होता है कि जो हो रहा है वह गलत हो रहा है।
मां की दोस्ती, बेटी की हिम्मत
बदरू के अलावा शमशु के किरदार को देखें, तो वह बॉलीवुड की उस माँ के किरदार से अलग है जो डरी, सहमी रहती है। शमशु अपने दर्द और अपने साथ हुई हिंसा को भुलाने के लिए आगे बढ़ने का ही रास्ता चुनती है। शमशु का किरदार स्वतंत्र है, वह लोगों की परवाह करे बगैर खुद का जीवन जी रही है। लेकिन वह तलाक लेने को गलत मानती भी दिखती है। वह अपनी बेटी की एक दोस्त की भूमिका में ज्यादा नज़र आती है जो उसके शराबी पति को छोड़ने के लिए मनाने की कोशिश करती रहती है। वह उसे हमज़ा से अलग होने के लिए कई तरह के सुझाव देती है।
फिल्म के दूसरे हाफ में हमज़ा के किरदार की कुछ बातें जब बदरू दोहराती है तो आशा और निराशा के बीच लंबे वक्त तक झूलती दिखाई देती है। वह तमाम लड़ाइयों के बाद हर बार बात सुलह पर ले जाती है और आखिर में अपने साथ और अपने हाथों से हो रही हिंसा को समझती है और अपनी माँ से कहती है, “मैं चाहती हूं कि वह मेरी इज्जत करे पर इज्जत तो मेरी है तो मैं उससे क्यों मांगती हूं।”
मालूम हो कि ये फिल्म रिलीज़ से पहले ही विवादों में घिर गई थी। फिल्म से पुरुषवादी समाज के सेंटीमेंट्स हर्ट हो गए हैं। सोशल मीडिया पर फिल्म को बॉयकाट करने का एक ट्रेंड चला दिया गया था। फिल्म पर हिंसा को बढ़ावा देने, पुरुषों के ख़िलाफ़ साजिश का चलन बढ़ाने, जैसी बातें कही जा रही थीं। कई ट्वीट्स में आलिया भट्ट को भारत की एंबर हर्ट कहकर बुलाया जा रहा है। ट्विटर पर पुरुषों के अधिकारों को बात करने वाले संगठन आलिया भट्ट के ख़िलाफ़ अनुचित भाषा का इस्तेमाल कर, उनका मज़ाक बनाते भी नज़र आए।
हिंसा का जवाब हिंसा नहीं
दरअसल, फिल्म एक बार को 'जैसे को तैसा' के प्लॉट पर हिंसा के बदले हिंसा की ओर ले जाती नज़र आती है लेकिन फिल्म के अंत में ये साफ तौर से संदेश देने की कोशिश की गई है कि जो भी हो हिंसा का जवाब हिंसा कभी नहीं हो सकती। खासकर कानून अपने हाथ में लेकर तो कतई नहीं। अच्छी बात ये है कि फिल्म कहीं भी हिंसा को ना जायज़ ठहराती है और ना ही किसी भी प्रकार की हिंसा का प्रचार करती है।
गौरतलब है कि घरेलू हिंसा के कई प्रकार हैं, इसमें शारीरिक हिंसा, भावनात्मक हिंसा, आर्थिक हिंसा, यौन हिंसा, ये सब आते हैं। इससे निपटने के लिए लिए कानून है, साथ ही सामाजिक स्तर पर तरह-तरह के तरीके खोजे जा रहे हैं। लेकिन कई बार महिलाएं खुलकर सामने नहीं आती या सबूतों के अभाव में हिंसा करने वाले को सज़ा नहीं हो पाती और पीड़िता को न्याय नहीं मिल पाता। नेशनल फैमिली हेल्थ रिपोर्ट के अनुसार सख्त घरेलू हिंसा कानून- 2005 होने के बावजूद देश में हर तीन महिलाओं में से एक महिला घरेलू हिंसा की शिकार हैं। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि 79.4% महिलाएं कभी अपने पति के जुल्मों की शिकायत ही नहीं करती। वहीं सेक्सुअल हिंसा की शिकार 99.5% महिलाएं कभी खुलकर बात तक नहीं करती। ऐसे में न्याय की आस दूर ही नज़र आती है।
कवि रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की पंक्तियां वास्तव में हमारे देश में नारी की कहानी है….
औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं
औरतें रोती हैं, मरद और मारते हैं
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं।
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