सिख नेतृत्व को मुसलमानों के ख़िलाफ़ अत्याचार का विरोध करना चाहिए: विशेषज्ञ
हाल ही में हरियाणा के गुरुग्राम में एक गुरुद्वारा संघ ने उन मुसलमानों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए थे, जिन्हें कुछ हिन्दू समूहों के गिरोहों द्वारा हैरान-परेशान किया जा रहा था और नमाज अदा करने के लिए निर्दिष्ट स्थानों पर भी उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया जा रहा था। इस भाईचारे के भाव को कई हलकों के द्वारा सराहा गया, इसके बावजूद इसने सिख धार्मिक एवं राजनीतिक नेतृत्व के लिए कुछ प्रश्न भी खड़े कर दिए हैं।
कई सिख इतिहासकारों का मानना है कि जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, उसके बाद से पूरे उत्तर भारत में मुसलमानों को हाशिये पर धकेले जाने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी, जिसे चुनौती दिया जाना बेहद आवश्यक था। उनका कहना है कि जिस समुदाय के नेतृत्व को “रक्षक” के तौर पर जाना जाता है, उसे किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय पर होने वाले अत्याचारों पर अपनी चुप्पी तोड़नी चाहिए। उनका यह भी कहना है कि जहाँ पंजाबी नागरिक समाज ने हिन्दू कट्टरपंथियों द्वारा मुस्लिमों को निशाना बनाये जाने के खिलाफ आवाज बुलंद करता रहा है, वहीं अब समय आ गया है कि समुदाय के नेताओं को भी मुस्लिमों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार के खिलाफ अपनी आवाज उठानी चाहिए।
इस बारे में खालसा कालेज अमृतसर के सिख इतिहास एवं अनुसंधान केंद्र के प्रमुख डॉ. जोगिंदर सिंह कहते हैं, “इसे [मुस्लिमों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार] बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए; वे भी भारत के नागरिक हैं।” वे आगे कहते हैं “ऐसा सिर्फ मुसलमानों के बारे में नहीं है। सिख धर्म हमें किसी भी अन्याय के खिलाफ लड़ना सिखाता है और यह संघर्ष हमारे इतिहास का हिस्सा है। हमारे गुरुओं ने न्याय की खातिर अपने और अपने जीवन और परिवारों का बलिदान दिया।” गुरु नानक देव के संदेश के अनुसार, यदि कोई अन्याय होता है, तो सिखों को हर कीमत पर इसके खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। जोगिंदर सिंह कहते हैं, “सटीक शब्द इस प्रकार से हैं, ‘नानक नाम चारदी कला तेरे भाने सरबत दा भला- जिसका अर्थ है ‘सभी के लिए आशीर्वाद और शांति’।”
अगस्त 2019 में, भाजपा नेताओं ने जम्मू कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त किये जाने के बाद से सार्वजनिक तौर पर कश्मीरी महिलाओं के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियां करनी शुरू कर दी थीं। इसके फौरन बाद ही सिखों के शीर्ष फैसला लेने वाले निकाय, अकाल तख़्त के जत्थेदार/प्रमुख, ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने एक जोरदार निंदात्मक बयान जारी किया था। उन्होंने कहा, “कश्मीरी महिलाएं हमारे समाज का हिस्सा हैं। उनके सम्मान की रक्षा करना हमारा धार्मिक कर्तव्य है। सिखों को अपने कर्तव्य और इतिहास की खातिर उनके सम्मान की रक्षा करनी चाहिए।” अकाल तख़्त के बयान का इतना तगड़ा असर देखने को मिला कि इसके बाद किसी भी भाजपा नेता ने कश्मीरी महिलाओं के बारे में एक भी शब्द मुहँ से नहीं निकाला।
सिखों के पवित्र ग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब में ऐसे कई भजन और शबद हैं जैसे कि ‘शोरा सो पहचानिये जोह लड़े दीन के हेत- बहादुर वही है जो वंचितों/असहायों के लिए लड़े।’ इस प्रकार की पंक्तियाँ स्पष्ट रूप से दूसरों के प्रति सिखों के कर्तव्य का स्मरण कराती हैं। यह एक दूसरी वजह है जिसके चलते इतिहासकारों को लगता है कि सिख समुदाय के धार्मिक एवं सामाजिक-राजनीतिक प्रमुखों को देश में कहीं भी मुसलमानों के पक्ष में तत्काल बोलने की जरूरत है। डॉ. जोगिंदर सिंह के शब्दों में, “मेरे विचार में इस विषय में अकाल तख़्त के जत्थेदार का प्रभाव बेहद महत्वपूर्ण है और उनकी ओर से हस्तक्षेप अत्यंत आवश्यक है। किंतु दुर्भाग्यवश, अकाली दल और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के राजनीतिक कामकाज के कारण इस संस्था के कामकाज को हाशिये पर डाल दिया गया है।” वे आगे कहते हैं, “इसके बावजूद, यदि जत्थेदार ज्ञानी हरजीत सिंह इस संबंध में स्वतंत्र पहल लेते हैं, तो उससे भी मुस्लिम समुदाय को कुछ राहत मिल सकती है, जो बेहद स्वागत योग्य होगा और जिसकी आज सख्त जरूरत है।”
विशेषज्ञों ने इस ओर भी इंगित किया है कि पंजाबी नागरिक समाज और समूहों ने नियमित रूप से हिन्दू कट्टरपंथियों के द्वारा मुसलमानों को निशाना बनाये जाने का विरोध किया है। चंडीगढ़ के गुरु गोविंद सिंह कालेज में इतिहास के प्रोफेसर हरजेश्वर पाल सिंह कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि सिख इस मुद्दे [मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार] पर नहीं बोल रहे हैं। वे आगे कहते हैं, “पंजाब में नागरिक समाज इस बारे में बेहद मुखर है।” उनके अनुसार, पजाबियों ने दिल्ली में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) विरोधी विरोध-प्रदर्शनों में भाग लिया और कुलमिलाकर देखें तो पंजाबी सिख समुदाय मुसलमानों के साथ खड़ा रहा है। उनका कहना था, “लेकिन मुझे लगता है कि सिख धार्मिक संस्थानों को भी अपने साथी अल्पसंख्यक समुदाय के पक्ष में बात रखनी चाहिए। इसके बावजूद, इस मुद्दे पर हम इसे सिख समुदाय की विफलता नहीं कह सकते हैं।”
अभी भी उम्मीद है कि सिख राजनीतिक और धार्मिक नेता भी अपनी चुप्पी को उसी प्रकार से तोड़ेंगे, जिस प्रकार से व्यक्तियों और नागरिक समाज की ओर से देखने को मिली है। ऐसा दृष्टिकोण बन रहा है कि सिखों को ऐसी किसी भी परिस्थिति के निर्माण का मुखर विरोध करना चाहिए, जैसा कि इन्हीं लोगों और पुलिस की वजह से सिख समुदाय को अस्सी के दशक में जूझना पड़ा था।
सिखों के बारे में एक और धारणा यह है कि अतीत में मुगलों द्वारा किये गए अत्याचारों और विशेषकर सिख गुरुओं को मृत्युदंड दिए जाने की वजह से वे खामोश हैं। यह एक धारणा है जिसे हिन्दू दक्षिणपंथी ताकतों द्वारा जमकर प्रचारित किया है। हालाँकि, विशेषज्ञों ने इस तर्क को ठोस ऐतिहासिक संदर्भों के साथ ख़ारिज किया है। जगतपुर बाबा सेंटर फॉर इंटरफेथ हार्मोनी, पटियाला के निदेशक सरबजिंदर सिंह का तर्क है, “सिखों के खिलाफ मुगलों का अत्याचार कोई मुद्दा नहीं है। सिख इतिहास में, दो मुस्लिम भाइयों, गनी खान और नबी खान ने गोविन्द सिंह जी को पंजाब के माछीवाड़ा से मुगलों के कब्जे से निकल भागने में मदद की थी। सिख पंथ हमेशा से ही क्रूर, आतताई हुकूमत के खिलाफ रहा है। उस जमाने में मुगल ‘ज़ालिम’ [उत्पीड़क] थे। यदि कोई दूसरा समुदाय भी ऐसी ही चीजें कर रहा होता तो गुरु निश्चित रूप से उनके खिलाफ भी लड़ रहे होते।
ऐसे कई ऐतिहासिक घटनाएं हैं जिसमें मुसलमानों ने सिखों के लिए लड़ाईयां लड़ी हैं, यहाँ तक कि अपने जीवन को भी बलिदान कर दिया था। दिल्ली के चांदनी चौक पर भाई सती दास, भाई मति दास और भाई दयाला दास के साथ गुरु तेग बहादुर की शहादत के बाद दिल्ली के चांदनी चौक कोतवाली स्थित जेल की देखरेख करने वाले अब्दुल्ला ख्वाजा ने मुगलों के खिलाफ बगावत कर दी थी। सर कलम किये जाने की सूचना के साथ आनंदपुर साहिब पहुँचने वाले वे पहले व्यक्ति थे।
सिख गुरुओं को मौत के घाट उतार दिया गया था, लेकिन अन्य गुरुओं ने मुसलमानों के साथ बातचीत करना बंद नहीं किया था और मुगल शासकों के साथ अपने व्यापार को जारी रखा। 18वीं शताब्दी में भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया, जब सिख शासक सत्ता में थे। उदाहरण के लिए, मालवा क्षेत्र के अधिकाँश सिख शासकों ने अफगान राजा अहमद शाह अब्दाली के नाम पर सिक्के जारी किये थे। डॉ. जोगिंदर सिंह का इस बारे में कहना है, “यह एक गलत धारणा है कि सिखों और मुसलमानों के बीच में एक सतत संघर्ष चल रहा था। आप पीर बुद्धू शाह का भी उदाहरण ले सकते हैं। उन्होंने गुरु गोविन्द सिंह की ओर से लड़ाई लड़ी थी। इसलिए, सिख इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमें मुसलमानों ने सिखों की तरफ से लड़ाई लड़ी थी।”
यहाँ तक कि 18वीं सदी में बंदा बहादुर सिंह के नेतृत्व वाले खालसा सेना का संयोजन भी काफी हद तक मुस्लिम थी। डॉ. जोगिंदर सिंह के मुतबिक, “मेरे विचार में सिख नेतृत्व ने एक मौका गंवा दिया है जब इस सरकार द्वारा कश्मीरियों के लिए संविधान के एक विशेष अनुच्छेद को वापस ले लिया गया था।” उनका आगे कहना था, “सिख नेताओं को अल्पसंख्यक समुदाय को संदेश देना चाहिए था। उन्हें लगता है कि दिल्ली में उनकी अच्छी साख है, इसलिए वे सुरक्षित हैं, लेकिन यहाँ पर कोई भी सुरक्षित नहीं है।”
उन्होंने निष्कर्ष के तौर पर कहा, “देखिये कैसे सरकार और मीडिया ने तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारी किसानों को खालिस्तानी और अलगाववादियों के तौर पर वर्गीकृत करने का काम किया था।”
लेखक स्वतंत्र खोजी पत्रकार हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।
Experts Say Sikh Leadership Must Oppose Atrocities Against Muslims
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