भागवत के लिंचिंग पर दिए भाषण से पैदा हुए मिथकों पर तस्वीर साफ़ हो
दूरदर्शन के उद्घोषक ने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के विजयादशमी भाषण पर जो सारांश दिया, दरअसल वह एक टिप्पणी थी। सरकारी भाषा में बोलते हुए उद्घोषक ने कहा कि भागवत का भाषण ''अर्थव्यवस्था'' से लेकर ''मॉब लिंचिंग'' पर आधारित था। बिना सोचे-समझे उद्घोषक ने लिंचिंग की जो बात कही, वो बताती है कि भागवत द्वारा लिंचिंग शब्द की निंदा से कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा।
भागवत के लिंचिंग का विदेशी होने वाले दावे का सरकार समर्थक मीडिया कमेंटेटर भी आलोचना कर रहे हैं। शायद उन्हें इंदिरा गांधी का वक्त याद आ जाता हो, जब असहमति और विरोध को दबाने के लिए ''विदेशी हाथ'' का लगातार जिक्र किया जाता था। भागवत की बात को जिस निराशा से लिया गया है,शायद उसका इसी एहसास से कुछ लेना-देना है।
लेकिन हम भागवत के "विदेशी विचार" वाली बात का "हाथ" को "भौतिक बाहरी ताकत" बताकर अपमान कर रहे हैं। भागवत के लिए लिंचिंग भौतिक और सांस्कृतिक, दोनों तरीके से विदेशी है। उनका मानना है कि भारत में ऐसा कभी हुआ ही नहीं, इसलिए हमारे पास लिंचिंग के लिए वैचारिक शब्दावली नहीं है। पर इस बात में शक है। भारत के प्राचीन ग्रंथों, जिनका आरएसएस प्राचीन जीवन की वास्तविकता बताने के लिए इस्तेमाल करता है, उनमें भी एक जगह ब्राह्मण एक अनाधिकृत राजा वेणा को मारने के लिए झुंड बनाते हैं।
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भले ही इन कारनामों के लिए कोई संस्कृत शब्द न रहा हो, लेकिन इनमें लिंचिंग की सारी विशेषताएं मौजूद थीं। नए ज़माने में खैरलांजी जैसी जगहों पर आम लोगों के लिए अनौपचारिक सज़ाओं की बात न भी करें, तो भी दंगों में लिंचिंग बहुत आम रही है। कम से कम 20वीं शताब्दी से यह जारी हैं। लेकिन हो सकता है भागवत का यह मतलब भी न हो।
2014 से हिंदू धार्मिक भावनाओं को बचाने के नाम पर दिनों-दिन लोगों की जो पिटाई और हत्याएं हो रही हैं, वे हमारी हिंसक परंपरा में नया जुड़ाव है। इससे भागवत के भाषण में एक अहम मुद्दा उठता है। परंपराओं को देशी और विदेशी में आसानी से बांटा जा सकने वाले भागवत के दावे से उलट परंपराएं लोचदार होती हैं। वह लगातार बाहर से नए तत्व लेती हैं और खुद को नए सिरे से तैयार करती हैं।
खुद विजयदशमी के मंच पर उन्होंने जो आरएसएस का अधिकृत गणवेश पहना था, दरअसल यह ब्वॉय स्कॉउट से लिया गया है। केवल शिव नादर भारतीय गणवेश में थे, जो आरएसएस के सदस्य नहीं हैं। ख़ुद भाषण में कई अंग्रेजी समानार्थकों की बात की गई थी। उदाहरण के लिए भागवत ने घोषित किया कि वे "भारत" को "इंडिक" कहने के विरोधी नहीं हैं। तो अगर ब्वॉय स्कॉउट का देशीकरण हो सकता है, भारत का नाम दूसरे तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है, तो लिंचिंग को भारतीय शब्दकोश से क्यों हटाया जाए।
बड़ी संख्या में लोगों पर आरएसएस की पकड़ बन चुकी है। वे लोगों को छवियों के बारे में सहमत करा सकते हैं। यह हिंदुत्व के लिए हमेशा अहम था। आरएसएस हिंदुओं की छवि और एक बड़ी संख्या के लोगों को अपने तरीके से भारतीय होने के एहसास को महसूस कराने को लेकर जुनूनी हैं। जैसे ही आरएसएस की सियासी वारिस बीजेपी सत्ता में आई, संगठन ने अपने लक्ष्य में बदलाव की घोषणा कर दी।
अब यह पूरे भारतीय समाज को इस पहचान के साथ बदलने की कोशिश कर रहा है। इसके लिए ज़रूरी है कि खुद की छवि को बदला जाए। इसलिए भागवत ने आरएसएस को सहिष्णु और सभी के लिए खुले संगठन के तौर पर दिखाने की कोशिश की है। ऐसा तब तक होगा जब तक लोग एक-दूसरे को चुनौती न दें या ऐसा मुद्दा उठाएं कि जिस पर हिंदुओं में विवाद पैदा हो।
आरएसएस को लगता है कि उन्होंने भारत में सांस्कृतिक एकरूपता हासिल कर ली है। पर एक दूसरे से जुड़ी वैश्विक दुनिया में भारत की छवि पर नियंत्रण अहम हो जाता है। अब मुद्दा यह है कि किन विदेशी तत्वों को लिया जा सकता है और किन्हें नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो विदेश का मुद्दा केवल विचारों पर नियंत्रण करने का हथियार है।
लिंचिंग पर इस खोज के बाद भागवत ने आर्थिक मंदी की बात की। हालांकि उन्होंने आर्थिक मंदी पर जन विमर्श से इंकार कर दिया। क्योंकि अर्थव्यवस्था 5 फीसदी की दर से बढ़ रही है और अभी बहुत गंभीर स्थिति में नहीं है। इसलिए उन्होंने लिंचिंग की तरह आर्थिक मंदी के होने से ही इंकार कर दिया। भागवत का कहना है कि मंदी पर कोई चर्चा नहीं होनी चाहिए क्योंकि इससे भारत की आर्थिक ताकत कमजोर दिखती है। मंदी पर चर्चा से निवेशक घबरा सकते हैं और सच में आर्थिक गिरावट आ सकती है। इसलिए इस पर विमर्श रोका जाना चाहिए ताकि भारत की सही तस्वीर दुनिया के सामने पेश हो।
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आरएसएस जानता है कि बड़ी संख्या में लोगों के बीच छवि निर्माण आज वैश्विक ताकत है। आरएसएस को भारत को दुनिया, खासकर प्रभावशाली अप्रवासी भारतीयों के सामने सहिष्णु और उदार दिखाना है। इसलिए लिंचिंग शब्द विदेशी हो जाता है, क्योंकि इससे भारत की सामंजस्यपूर्ण और विवादों से परे होने वाले समाज के उलट तस्वीर सामने आती है।
आरएसएस के लिए ज्यादा जरूरी है कि वो अब “नॉट-इन-माय-नेम’’ आंदोलन और बढ़ते असहमत लोगों को नियंत्रण में करे क्योंकि इससे भारत की ‘विदेशों’ में छवि खराब हो रही है। आरएसएस इंदिरा गांधी की वो गलती नहीं दोहरा रहा, जिसमें उन्होंने बिना नैतिक आधार के तानाशाही नियंत्रण को लागू कर दिया था। लिंचिंग के विरोध पर लांछन लगाकर आरएसएस विरोध को आपराधिक बना देना चाहता है। यह विरोधियों को सज़ा देने से पहले आरएसएस की नैतिक सहमति बनाए जाने वाला कदम हो सकता है।
सरकारों के सामने याचिका लगाना गुलाम भारत तक में बर्दाश्त किया जाता था और इसे 20वीं शताब्दी के राष्ट्रवादी एक नरम तरीका मानते थे। लेकिन अब आज़ाद भारत में प्रधानमंत्री से मॉब लिंचिंग के ख़िलाफ़ गुहार लगाने पर राजद्रोह का मामला दर्ज हो जाता है। विश्वविद्यालयों में कई छात्रों को एक साथ निकाल दिया जाता है।
भागवत के लिंचिंग पर दिए बयान से प्रतिनिधित्व की राजनीतिक शक्ति का पता चल जाता है। लिंचिंग के ईसाई धर्म से संबंध होने की मीडिया रिपोर्टों के उलट, भागवत ने सिर्फ इतना कहा कि बाईबिल में लिंचिंग का संदर्भ है। उन्होंने आगे कहा कि यीशु ने बातचीत से एक महिला को लिंचिंग से बचाया था। इसमें यह मंशा थी कि लिंचिंग ईसाई धर्म से पहले की परंपरा है, यह पश्चिम एशिया की एक (जिसे हम सभी समझ सकते हैं) परंपरा है, जिसमें महिलाओं को पत्थरों से मारा जाता है।
इस तरह भागवत के संदर्भ ने लिंचिंग का असली स्रोत बदल दिया। लिंचिंग शब्द एक आदमी (दरअसल दो ने दावा किया था) के नाम पर है। विलियम और चार्ल्स लिंच नाम के दो श्वेत अमेरिकियों ने सज़ा देने वाले इस अतिरिक्त-कानूनी शब्द की खोज की। 1890 के आखिर तक इसका इस्तेमाल काले लोगों को श्वेत सर्वोच्चतावदियों द्वारा मारे जाने वालों के संदर्भ में होने लगा।
भागवत के दावे में शब्द के इतिहास और नस्लभेद के मूल स्रोत को छोड़ दिया गया है। क्या ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि मध्य-पूर्व की किसी बेनाम संस्कृति के नाम पर इसे थोपा जा सके? ‘भारतीय’ लेखक राजीव मल्होत्रा की भागवत से बातचीत के वीडियो में जिस अरब संस्कृति की जमकर आलोचना हो रही है, क्या यह वही है? या फिर ऐसा इसलिए हो रहा है कि आज जब प्रवासी भारतीय और प्रेसिडेंट ट्रंप की नस्लभेदी नीतियों में सामंजस्य बन रहा है, तब रूढ़िवादी अमेरिकियों को अपनी वंशावली याद दिलाकर नाराज़ नहीं किया जाए?
(लेखक जेएनयू में इतिहास के शिक्षक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
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