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मारा जा रहा है प्लेटफॉर्म और गिग कर्मियों का हक़ 

डिलीवरी वर्कर, मेकैनिक के कामों से जुड़े सर्विस वर्कर और अन्य कई तरह के कामों से जुड़े कर्मी गिग वर्कर के नाम से जाने जाते हैं। प्लेटफॉर्म कर्मी मुख्य रूप से आईटी क्षेत्र के डिजिटल कर्मी होते हैं, जो कोडिंग से लेकर डाटा एंट्री जैसे काम करते हैं। इन सबके साथ बड़ी कंपनियों ने काम लेने के नाम पर शोषणकारी रिश्ता बनाया है।
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24 फरवरी को यूरोपियन कमिशन ने एक परामर्श पत्र जारी किया ताकि प्लेटफार्म कर्मियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए विमर्श की प्रक्रिया आरंभ हो सके। नीति-निर्माण से जुड़ी कार्यकारी कार्यवाही इसी परामर्श पत्र के साथ शुरू हुई। 

यह इत्तेफाक़ ही है कि पिछले हफ्ते उबर यूके के सर्वोच्च न्यायालय में अपना मुकदमा हार गई। इस ऐतिहासिक फैसले में कोर्ट ने कहा कि उबर चालक, उबर कंपनी के कर्मचारी हैं, न कि स्वतंत्र पेशेवर कर्मचारी, जैसा कि उबर कंपनी दावा कर रही थी। इस कारण उबर को पिछले वेतन का भुगतान करना पड़ सकता है, खासकर इसलिए कि उसने नियमित कर्मचारियों के समस्त हकों का सम्मान नहीं किया। विडम्बना यह है कि यद्यपि उबरीकरण (Uberization) पहले गिग अर्थव्यवस्था माॅडल का पर्याय बन गया था, आज यही माॅडल सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद बुरी तरह हिल गया है।

यूके के सुप्रीम कोर्ट में हासिल की गई यह जीत केवल उबर चालकों की जीत नहीं है, बल्कि यह समस्त गिग वर्करों और प्लेटफार्म कर्मियों के लिए एक महत्वपूर्ण विजय है। गिगवर्करों में शामिल हैं - डिलिवरी वर्कर, मेकैनिक के कामों से जुड़े सर्विस गिग वर्कर और अन्य विविध कर्मी। प्लेटफॉर्म कर्मी मुख्य रूप से आईटी क्षेत्र के डिजिटल कर्मी होते हैं, जो कोडिंग से लेकर डाटा एंट्री जैसे काम करते हैं। यद्यपि दोनों का गुणात्मक फर्क महत्वपूर्ण है क्योंकि श्रम संबंध एक जैसे होते हैं फिरभी गिग कर्मी और प्लेटफॉर्म कर्मचारियों को अधिकतर एक अविभाज्य श्रेणी रखा जाता है। इसलिए इस फैसले का सभी गिग वर्करों के लिए व्यापक प्रभाव होगा, यहां तक कि यूके के बाहर भी।

 विश्व श्रम संगठन की फ्लैगशिप रिपोर्ट ‘द वर्ल्ड एम्प्लाॅयमेंट एंड सोशल आउटलुक रिपोर्ट 2021 ( The World Employment and Social Outlook Report 2021), जो पिछले सप्ताह, यानि 23 फरवरी 2021 को जारी किया गया, डिजिटल प्लेटफॉर्म वर्करों के बारे में ही है।

गिग वर्करों के अधिकारों पर न्यायिक कार्यवाही संबंधी कुछ हलचल यूएस में भी पैदा हुई है। अमेज़न फ्लेक्स नाम के एक ‘गिगर्वकर डिलिवरी आर्म’ को हाल में फेडरल ट्रेड्स कमिशन को यूएस $ 6 करोड़ 20 लाख अदा करने का आदेश मिला, क्योंकि उसने कर्मचारियों को टिप्स न वितरित कर पैसा कम्पनी के खाते में रख लिया था। 

इस फैसले में एक बात की स्वीकृति निहित है कि डिलिवरी वर्कर कम्पनी के ही कर्मचारी हैं। इस फैसले के गिग वर्करों के श्रम अधिकारों के संदर्भ में अमेरिकी श्रम विधिशास्त्र के भावी विकास की दृष्टि से व्यापक निहितार्थ हैं। यूएस का संपूर्ण श्रम परिदृश्य उलट-पुलट हो जा सकता है क्योंकि आईएलओ के अनुसार 2017 में यूएस में 5 करोड़ 50 लाख गिग वर्कर थे, यानि अमेरिका के पूरे वर्कफोर्स का 34 प्रतिशत और अमेरिकन ब्यूरो ऑफ लेबर स्टैंडर्ड (American Bureau of Labour Standards) के प्रोजेक्शन के अनुसार अब यह 2020 तक 43 प्रतिशत तक पहुंच गया होगा।

और भी महत्वपूर्ण यह बात है कि नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपने वक्तिगत वेबसाइट में कहा है,‘‘गिग अर्थव्यवस्था कर्मचारियों की मालिकों द्वारा स्वतंत्र ठेकेदारों के रूप में गलत गणना इन श्रमिकों को उनके न्यायोचित लाभों और सुरक्षाओं से वंचित करता है।’’ अपने चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने वायदा किया कि वे ऐसे न्यायिक कदम उठाएंगे जिनके माध्यम से इन्हें नियमित कर्मचारियों के बराबर वैधानिक अधिकार मिल सकेंगे। बाइडेन ने कैलिफाॅर्निया जैसे राज्यों का हवाला दिया, जिन्होंने यह चेक करने के लिए कि श्रमिकों की कोई श्रेणी किसी कम्पनी के कर्मचारी हैं या नहीं, ‘एबीसी टेस्ट’ का प्रयोग किया। ‘एबीसी टेस्ट’, जैसा कि मास मीडिया में लोकप्रिय रूप से इसे जाना जाता है मानता है कि कोई भी तब तक कर्मचारी माना/मानी जाएगी, जब तक कि वह निम्नलिखित क्राइटेरिया को पूरा नहीं करता/करतीः

वह काम करने के मामले में, चाहे व्यवहारिक काम हो या पार्टियों के बीच काॅन्ट्रैक्ट हो, कम्पनी के नियंत्रण व निर्देश से मुक्त हो; और

वह ऐसा काम करता/करती हो जो कम्पनी के बिज़नेस की आम प्रक्रिया से बाहर हो;

वह प्रथानुसार स्वतंत्र रूप से स्थापित व्यापार, पेशा अथवा उसी प्रकृति का काम करता/करती है, जैसा कि कंपनी के लिए करता/करती है

यदि कैलिफाॅर्निया के इस ‘एबीसी टेस्ट’ को संघीय सरकार द्वारा पूरे अमेरिका के लिए आधिकारिक मानदंड के रूप में अपनाया जाता है, तो 90 प्रतिशत से अधिक कर्मी, जो वर्तमान समय में गिग वर्कर माने जाते हैं, स्वतः नियमित कर्मचारियों का दर्ज़ा पा जाएंगे।

जहां तक गिग वर्करों का प्रश्न है, भारत भी प्रमुख विकासक्रम के शीर्ष पर है। एक छोटी शुरुआत 1 फरवरी 2021 को हुई थी, जब निर्मला सीतारमन ने अपने केंद्रीय बजट में पेंशन की धोषणा कर गिग वर्करों और प्लेटफॉर्म वर्करों को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में ला दिया था। 

कुछ माह  पहले 15 नवम्बर 2020 को, जो सामाजिक सुरक्षा नियम 2020 निर्मित किये गए थे, ये संसद में सितंबर 2020 को संसद में पारित किये गए सामाजिक सुरक्षा कोड के तहत बनाए गए। इसके अनुसार सभी गिग वर्करों को श्रम मंत्रालय द्वारा चालू किये जाने वाले पोर्टल में पंजीकृत होना होगा; और सभी गिग कंपनियों को गिग वर्करों की सामाजिक सुरक्षा की गारंटी करने के लिए सालाना एक राशि का भुग्तान करना होगा। पर पेंशन की वास्तविक राशि के बारे में निर्णय राज्यों पर छोड़ दिया गया। अब पता चल रहा है कि मालिक केवल एक सांकेतिक राशि देंगे और उनके सामाजिक सुरक्षा की कीमत को मुख्यतः कर्मियों को ही वहन करना होगा। ये नियम जल्द ही लागू किये जाएंगे। परंतु श्रमिकों के निर्णय के अधिकार को केवल पेशन तक सीमित कर देना और बाकी हकों के बारे में कुछ न करना और न ही उनपर कानून बनाना उनके प्रति अन्याय है। पर उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है; साथ ही उनके काम के स्वरूप की अनिश्चितता भी बनी हुई है। इसलिए स्थितियां उनके पक्ष में प्रमुख श्रम-बाज़ार हस्तक्षेप के लिए परिपक्व हैं। मीडिया की धारणा है कि मोदी सरकार इस मुद्दे पर सक्रिय है, जबकि संगठित ट्रेड यूनियन अपेक्षाकृत रूप से निष्क्रिय हैं, मोदी सरकार अपने संकेतवाद के साथ अपनी वैधानिक व कार्यकारी दायित्व को पूरी तरह त्याग रही है।

कुछ चौंकाने वाले तथ्यों पर नज़र डालें। हाल में यानि 2019 में 1 करोड़ के आधार से गिग वर्करों की संख्या प्रति वर्ष 25 फीसद की रफ्तार से बढ़ रही है और 2023 आते-आते यह दूनी, यानि 2 करोड़ हो जाएगी। महामारी और लाॅकडाउन, 2019 के स्लोडाउन, और अब मंदी के बावजूद भारत में रोजगार का यही भाग है जो तेज़ गति से विकास कर रहा है।

आखिर कौन हैं ये गिग व प्लैटफाॅर्म वर्कर और उनके काम का स्वरूप ठोस रूप से क्या है? गिग वर्कर भारत में नया नहीं है। पाठक जानते हैं कि निर्माण मज़दूरों के लिए बाज़ार कैसे शहरों में काम करता था। ग्रामीण क्षेत्रों के प्रवासी सहित निर्माण कार्य करने को तैयार अनौपचारिक श्रमिक, पार्कों या चैराहों जैसे खास स्थानों पर प्रतिदिन एकत्र होते हैं। निमार्ण-संबंधी कार्य करने वाले ठेकेदार और मिस्त्री, जो ज्यादातर प्राइवेट पार्टियों के लिए काम करते हैं, वहां जाकर एक या अधिक दिनों के लिए, अपसी समझौते के आधार पर उन्हें नियुक्त कर लेते। काम की शर्तें श्रमिकों की आजीविका की बुनियादी जरूरतों और श्रम के सप्लाई-डिमांड के श्रम-बाजार मानकों द्वारा नियंत्रित होते हैं। काम हो जाने के बाद मालिक और श्रमिक के बीच कोई रिश्ता नहीं रह जाता। अगले रोजगार के लिए श्रमिक नए मालिक ढूंढते हैं, और मालिक नए ठेके के लिए नए श्रमिकों को काम पर लेते हैं।

गिग वर्क  और प्लेटफॉर्म वर्क इससे मिलते-जुलते काम हैं। केवल एक ही फर्क है-प्लैटफाॅर्म वर्क में श्रमिक किसी खास चैराहे या निर्धारित स्थान पर एकत्र न होकर अमेज़न टर्क जैसे डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर जाते हैं, जिस पर वे कंपनियां या मालिक, जो जाॅबवर्क कराने के इच्छुक हैं, आते हैं, और अपने विज्ञापन डालते हैं। यदि दोनों पार्टियों के बीच समझौता हो जाता है तो प्लेटफ़ॉर्म वर्कर काम करके डिजिटल विधि से अपने बैंक खाते में सेवा का भुग्तान प्राप्त करते हैं। दोनों पक्ष एक-दूसरे के लिए अज्ञात होते हैं और एक दूसरे से परिचय नहीं करते। वर्कर के लिए मालिक महज एक वेबसाइट होता है, जहां उसे पंजीकृत होना पड़ता है और मालिक के लिए कर्मी भी केवल एक पंजीकरण संख्या व बैंक खाता नंबर होता/होती है।

इसी तरह एक ड्राइवर, जो किसी टैक्सी का मालिक होता है, किसी निश्चित स्थान पर नहीं खड़ा होता; वह उबर या ओला कंपनी के जीपीएस वायरलेस नेटवर्क पर जुड़ जाता है। टेलिफोन ऐप के जरिये मांग भेजने पर एग्रीगेटर कम्पनी का कंट्रोल रूम सबसे नज़दीक के चालक को सेवा प्रदान करने की हिदायत देता है और कंपनी को 20 प्रतिशत तक का ‘कट’ मिल जाता है। बाकी राशि ड्राइवर के पास जाती है। यह कमिशन इसलिए वैध माना जाता है क्योंकि कंपनी टेलिफोन ऐप के द्वारा ड्राइवर को उपभोक्ता से संपर्क कराती है। क्योंकि लाखों की संख्या में टैक्सी उपभोक्ता होते हैं, कंपनी की तिजोरी में अरबों डाॅलर आते हैं, पर कंपनियां दावा करती हैं कि उनके और ड्राइवरों के बीच मालिक-कर्मचारी का संबंध नहीं है। स्विग्गी और ज़ोमैटो जैसे फूड डिलिवरी चेन भी ऐसे ही कार्य करते हैं। वे पंजीकृत रेस्त्रां से उभोक्ता को खाना पहुंचाने को कहते हैं और हर ऑर्डर के लिए ‘कट’ लेते हैं। इन डिलिवरी वर्करों को स्वेतंत्र ‘डिलिवरी एक्ज़िक्यूटिव’ कहा जाता है, जो कीमत के लिए डिलिवरी करते हैं। यद्यपि ये कंपनी की वर्दी पहनते हैं और रोज कंपनी के डिलिवरी स्थलों पर जमा होते हैं, उपभोक्ताओं की मांग की संख्या के आधार पर ही उन्हें काम मिलता है। न उन्हें न्यूनतम वेतन और न ही वेतन की गारंटी होती है, बल्कि उन्हें प्रति डिलिवरी पैसा मिलता है। कई कर्मियों का कहना है कि ऐसा भी हो सकता है कि किसी दिन कमाई बहुत कम हो या शून्य हो!

गिग वर्कर श्रमिक तो हैं पर कानूनी तौर पर नहीं। मालिक आसानी से उनसे अपनी कंपनी के संबंध को नकार देते हैं। एक तरह से यह एक ठेका होता है जो काम खत्म होने पर समाप्त हो जाता है। पर वे काॅन्ट्रैक्ट लेबर (रेगुलेशन एंड ऐबोलिशन) ऐक्ट 1970 (Contract Labour ( Abolition and Regulation Act 1970) द्वारा नियंत्रित नहीं होते हैं, यद्यपि 50 से अधिक कर्मी एक ही प्रकार का गिग वर्क कर रहे होते हैं। उनके काम का स्वरूप अनियत श्रम का होता है और वे अस्थायी कार्य करते हैं। फिर भी वे पारंपरिक अनियत श्रमिक या अस्थायी कर्मी की भांति नहीं होते, क्योंकि न उन्हें ईएसआई सुविधा मिलती है न ही कार्यसमय नियंत्रण सहित वैधानिक वैतनिक अवकाश् मिलता है। गिग वर्कर फ्लेक्सी वर्क करते हैं, यानि उनके काम का कोई निश्चित समय नहीं होता। साथ ही वह कई अलग-अलग किस्म के काम करते हैं। यह परंपरागत फ्लेक्सी वर्क भी नहीं है, जहां एक ही मालिक के लिए काम किया जाता है और एक दिन या सप्ताह के काम के घंटे तय होते हों और वर्कर की पसंद के अनुसार लचीले ढंग से किये जाते हों।

गिग वर्करों को यह छूट जरूर रहती है कि वे किसी भी मालिक के लिए काम करें, किसी भी प्रकार का काम हाथ में लें, कितने भी समय के लिए काम करें व कितने भी पैसों के लिए काम करें जो उन्हें और मालिक दोनों को उचित लगे, पर यहां कोई लचीलापन नहीं होता। 

इसलिए, भले ही हम उन्हें ‘डिलिवरी एक्सिक्यूटिव’ कहें और उनके मेहनताने को डिलिवरी/सर्विस चार्ज कहें, पर वास्तव में वे केवल महिमामंडित दिहाड़ी मजदूर हैं। उनको मिलने वाला मेहनताना भी दिहाड़ी मजदूरी है। मार्क्सवादी भाषा में कहें तो ‘अतिरिक्त मुनाफा’ कंपनी को ही जाता है। उनकी तुलना हम फ्रीलांसरों से कर सकते हैं पर अंतिम विश्लेषण में तो वे पूंजीपतियों के गुलाम बने रहते हैं।

फ्रीलांसर के रूप में कार्य करते हुए वे इस मुगालते में रह सकते हैं कि वे स्वयं अपने मालिक हैं। गिग वर्कर दावा भी करता है कि उसने सूपरवाइज़रों और अधिकर्मियों की श्रेणी को हटा दिया गया है, पर नज़दीक से देखने पर समझ आता है कि पूंजी ही उनका ‘बिग बाॅस’ है। बाह्य तौर पर लगता है कि वे अपने पसंद का काम अपने हिसाब से कर रहे हैं पर आधुनिक टेक्नाॅलाॅजी यह संभव बना चुकी है कि पूंजीपति उनपर हर मिनट निगरानी रखे और उनके काम को माॅनिटर करे। उनके लोकेशान से लेकर उनकी प्रत्येक कार्यवाही को ऑनलाइन नियंत्रित किया जा सकता है। वे भले ही घर से काम करें और कितने भी घंटे काम करें, पर उनकी आजीविका की स्थिति उन्हें मजबूर करती है कि वे 10-12 और कभी-कभी इससे भी अधिक समय तक काम करें। किसी भी समय कर्मी को ऑनलाइन मीटिंग पर बुलाया जा सकता है। टीम के सहकर्मियों के साथ समय का तालमेल बैठाने के लिए भी कई बार ऐसी स्थिति पैदा होती है कि न मुंह धोने, न चाय पीने और न ही नित क्रिया के लिए समय मिल पाता है।

भारत में लाॅकडाउन के दौरान गिग वर्करों की संख्या में काफी इज़ाफ़ा हुआ, खासकर फूड डिलिवरी वर्कर और अमेज़न व फ्लिपकार्ट या बिग बास्केट के वर्करों में, क्योंकि आम इस्तेमाल का सामान कोरोना से सुरक्षा की दृष्टि से घर पर ही पहुंचाया जा रहा था। 

महामारी की वजह से गिग वर्करों की संख्या करीब 1 करोड़ 50 लाख तक पहुंच गई, जैसा कि सेंटर फाॅर इंटरनेट एंड सोसाइटी (Center For Internet and Society) तथा अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के सेंटर फाॅर सस्टेनेब्ल एम्प्लाॅयमेंट (Center for Sustainable Employment) ने आंकलन किया है। यद्यपि लाॅकडाउन समाप्त हो गया है, काम-पर-वापसी अभी भी आम नहीं बन पायी है, क्योंकि वायरस का खतरा अभी भी बना हुआ है। जहां आईटी कम्पनियां कर्मियों को वापस बुला भी रही हैं, सुरक्षा की दृष्टि से कई कर्मचारी प्लेटफॉर्म वर्क की ओर जाना चाह रहे हैं। ऐप-आधारित कैब सेवाएं रिपोर्ट कर रही हैं कि कैब्स की मांग लाॅकडाउन-पूर्व दौर की ओर पहुंच रही है। दूसरी ओर स्विग्गी और ज़ोमैटो जैसी बड़ी फूड-डिलिवरी कंपनियों का दावा है कि उनकी बिक्री लाॅकडाउन-पूर्व समय से कई गुना बढ़ गई है।

सबसे बेहतर दिनों में 40 लाख ऐप-आधारित कैब चालक थे और ओला अकेले 25 लाख का दावा कर रहा था। फ्लिपकार्ट के पास भी 1 लाख डिलिवरी श्रमिक हैं, जबकि अमेज़न के पास 50,000 हैं। लाॅकडाउन के कारण मांग बढ़ी तो दोनों कम्पनियों ने कम-से-कम अतिरिक्त 50-50 हज़ार वर्कर भर्ती किये होंगे। डिलिवरी सेवाएं भी कई प्रकार की हैं-कुछ तो एक व्यक्ति द्वारा संचालित हैं और उनके पास कुछ ही श्रमिक होते हैं-ये दवाएं, दूध के उत्पाद, सब्ज़ियां आदि किसी स्थानीय क्षेत्र में पहुंचाते हैं। फ्लिपकार्ट जैसी बड़ी कंपनियों के पास राष्ट्रीय स्तर पर 1 लाख तक श्रमिक होते हैं। सबसे बड़ा डिजिटल प्लेटफार्म वर्क कंपनी है अमेज़न एमटर्क या एमटर्क, जिसके 100,000 से अधिक वर्कर हैं और इनमें से 70 प्रतिशत से अधिक भारत से हैं; इनका बड़ा हिस्सा दक्षिण भारत में केंद्रित है। लाॅकडाउन के कारण डिजिटल प्लेटफार्म वर्क करवाने वाली कंपनियां देश भर में कुकुरमुत्तों की भांति उग रही हैं; इनमें मानदेय या पेमेंट की किसी प्रकार की न्यूनतम वैधानिक गारंटी नहीं है। यहां तक कि भारत में काम कर रहे अमेज़न वर्कर केवल 3-4 यूएस डाॅलर प्रतिदिन की आमदनी कर पाते हैं, जो बंगलुरु के एक नगरपालिका कर्मचारी के पगार का आधा होगा।

उबर एकाधिकार जमा चुकी है और उसका राजनीतिक दबदबा भी है। उसने पिछले सप्ताह एक श्वेत पत्र जारी किया है कि यूके सर्वोच्च न्यायलय के चालकों के श्रम अधिकारों के पक्ष में फैसले के बाद भी यथास्थिति बनी रहे। अमेज़न के राजनीतिक हाथ भी बहुत लम्बे हैं और मुकेश अंबानी का रिलायंस रिटेल और उसके सब्सिडियरी, जिनके ब्रान्ड नाम हैं रिलायंस फ्रेश और जियो मार्ट, अपने व्यापार को व्यापक पैमाने पर फैलाने का इरादा है ताकि भारत में ऑनलाइन रिटेल मार्केट पर एकाधिकार जमा सकें। सरकार तीन किसान कानून बनाकर अंबानी का पक्ष ले रही है, पर किसान इसके विरोध में डटे हैं। रिलायंस ग्रुप के वकील ने कोर्ट में कहा है कि यदि अमेज़न के विरोध की वजह से उसका बिग बज़ार के फ्यूचर्स ग्रुप के साथ समझौता रद्द किया जाता है तो 11 लाख वर्कर काम से निकाल दिये जाएंगे। वैसे भी यदि रिलायंस, अमेज़न और फ्लिपकार्ट के एकाधिकार को बिना नियंत्रण बढ़ने दिया जाता है, सभी छोटे ऑनलाइन बिज़नेस नष्ट हो जाएंगे और कई लाख लोगों की नौकरियां जाएंगी। यदि 2020-21 के इकनाॅमिक सर्वे गिग व प्लैटफाॅर्म वर्करों के सामाजिक सुरक्षा की जरूरत पर जोर देता है, यूरोपियन कमिशन कन्सल्टेशन पेपर *European Commission Consultation Paper) उनकी दयनीय स्थिति का विस्तार से वर्णन करता है। अब समय आ गया है कि उन्हें रिलायंस जैसी एकाधिकार कंपनी और फ्लिपकार्ट व अमेज़न जैसे विदेशी कंपनियों से कानूनी सुरक्षा मिले। 

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