बंपर उत्पादन के बावजूद भुखमरी- आज़ादी के 75 साल बाद भी त्रासदी जारी
कृषि मंत्रालय के हालिया अनुमानों के मुताबिक़ भारत में 2020-21 में करीब़ 309 मिलियन टन (MT) का खाद्यान्न अनाज उत्पादित हुआ है, जो अब तक का सबसे ज़्यादा है। यह आंकड़ा गेहूं (109.5 MT), चावल (122.3 MT), मोटे अनाज (51.2 MT) और दालों (25.7 MT) की बंपर पैदावार के चलते इतना ज़्यादा हो पाया है। इसके अलावा 9 तेल बीजों का उत्पादन भी रिकॉर्ड 36 MT दर्ज किया गया, जबकि गन्ना उत्पादन अब तक दूसरे सार्वकालिक स्तर पर, 399 MT पर रहा।
एक ऐसा देश जो 75 साल पहले अंग्रेजों से आज़ाद होने के बाद बड़े पैमाने पर भुखमरी से ग्रस्त था, उसके लिए यह उत्पादन बड़ी उपलब्धि है। पिछले कुछ सालों में कृषि उत्पादन अच्छी वर्षा और कुछ राज्यों में उत्पादन के बढ़ने से तेज हुआ है। (नीचे चार्ट देखें)। यह किसानों की कड़ी मेहनत और उनके मातहत काम करने वाले कामग़ारों की कड़ी मेहनत का नतीज़ा है, क्योंकि लागत की बढ़ती कीमत और बदले में बहुत कम पैसा मिलने के बावजूद इन लोगों ने यह मुकाम हासिल किया है।
प्रचुर मात्रा में हुए इस उत्पादन से सरकार के अनाज भंडार अपनी क्षमता को पार कर गए हैं। केंद्र सरकार के खाद्यान्न और सार्वजनिक वितरण विभाग के पास उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक़, जुलाई, 2021 में सरकार का भंडार 90.7 MT या 9 करोड़ टन के शानदार स्तर पर था। जैसा नीचे चार्ट में दिखाया गया है, भंडारण का स्तर का स्तर मौसम के हिसाब से ऊपर-नीचे होता रहता है, लेकिन जून-जुलाई में अपने सर्वोच्च स्तर में पिछले कुछ सालों में लगातार तेजी देखने को मिली है।
केंद्रीय और राज्य सरकार की एजेंसियां गेहूं, चावल और कुछ मोटे अनाज को किसानों से खरीदती हैं, ताकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए उन्हें जरूरतमंद परिवारों तक पहुंचाया जा सके। महामारी के दौरान केंद्र सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए नियमित चलने वाले वितरण से अलग, 24 MT चावल और 13 MT गेहूं का वितरण किया। यह वितरण प्रति व्यक्ति 5 किलोग्राम अनाज प्रति महीने के हिसाब से किया गया। लेकिन इसके बावजूद अनाज भंडार भरे हुए हैं।
लोग अब भी भूखे
जब हम आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, तब कुछ चीजों पर ध्यान देने की जरूरत है: खाद्यान्न और कृषि संगठन (FAO) के 2020 के अनुमानों के मुताबिक़ भारत में कम से कम 19 करोड़ लोग गंभीर भुखमरी का शिकार हैं। मतलब हमारी आबादी का 14 फ़ीसदी हिस्सा नियमित तौर पर भूखा रहता है। राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वे, 2015-16 में पाया गया कि 5 साल तक की उम्र के बच्चों में 59 फ़ीसदी और कुल महिलाओं में 53 फ़ीसदी खून की कमी से जूझ रही थीं। 2016 से 2018 के बीच में स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत करवाए गए CNN सर्वे (समग्र राष्ट्रीय पोषण सर्वे) के मुताबिक़ 35 फ़ीसदी से ज़्यादा बच्चों का कद कम विकसित हुआ, वहीं 17 फ़ीसदी बच्चे कमज़ोरी का शिकार थे। यह दोनों ही गंभीर कुपोषण के सूचकांक हैं।
यह सबकुछ मार्च, 2020 में भारत पर महामारी के हमले से पहले की स्थिति है। महामारी के दौरान बिना योजना के लगाए गए 45 दिन के लॉकडाउन और उसके बाद निर्मम दूसरी लहर के चलते क्षेत्रीय स्तर पर लगाए गए लॉकडाउन से लाखों लोग बुनियादी खाद्यान्न से वंचित हो गए। कुछ सर्वे में पता चला है कि पहले लॉकडाउन में लोगों की आय और भत्ते में 80 फ़ीसदी की कमी आई थी। अब तक वे लॉकडाउन के पहले वाले स्तर तक सुधार नहीं कर पाए हैं। बेरोज़गारी बहुत बढ़ी है और ज़्यादातर मामलों में परिवारों को या तो अपनी बचत या फिर उधार लेकर काम चलाना पड़ा है।
पोषण नुकसान का कोई समग्र अनुमान नहीं है, भयावह लॉकडाउन में इसका बहुत ज़्यादा स्तर गिर जाना लाजिमी था। लेकिन सभी तरफ से यह बात पता चलती है कि इस लॉकडाउन में खाद्यान्न ग्रहण करने की मात्रा में बहुत कमी आई है। बच्चों के स्कूल बंद होने से उनके पोषण कार्यक्रम पर बहुत बुरा असर पड़ा है। क्योंकि स्कूलों में मध्यान्ह भोजन उपलब्ध कराया जाता था, जो फिलहाल बंद चल रहा है। शिशुओं, गर्भवती महिलाओं और हाल में बच्चे को हाल में जन्म देने वाली मांओं को जिस आंगनवाड़ी पोषण कार्यक्रम के ज़रिए खाद्यान्न उपलब्ध करवाया जाता था, वह भी रुक गया।
खाद्यान्न की इतनी ज़्यादा उपलब्धता के बावजूद इतनी भुखमरी क्यों?
यह मुख्य सवाल है। पिछले कुछ सालों में रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन हो रहा है। अनाज़ भंडार रिकॉर्ड स्तर पर भरे चल रहे हैं। यह बेहद बुरी स्थिति है कि मौजूदा सरकार उपलब्ध अनाज भंडारों का पूरी तरह सदुपयोग नहीं कर पा रही है और लोगों की बढ़ती भूख में राहत नहीं पहुंचा पा रही है।
इसकी पहली वज़ह सरकार की लोगों को राहत पहुंचाने के लिए धन खर्च ना करने की जिद्दी अनिच्छा है।
PM गरीब किसान कल्याण योजना (PMGKY) का ही उदाहरण देख लीजिए, जिसमें राशन कार्ड रखने वाले लोगों और कुछ जरूरतमंदों को 2020 में 8 महीने तक 5 किलोग्राम खाद्यान्न अनाज़ दिया गया। दूसरी लहर के बाद पिछले तीन महीनों से भी यह योजना जारी है।
इस 5 किलोग्राम की दर को 10 किलोग्राम बढ़ाने की लगातार मांग की गई, यहां तक कि विरोध प्रदर्शन भी हुए। लेकिन सरकार इसे मानने से इंकार करती रही। जैसा चार्ट बताता है कि सरकार के पास भंडार था। लेकिन सरकार अतिरिक्त पैसा ख़र्च करना नहीं चाहती थी। न्यूज़क्लिक में पहले अनुमान लगाया गया था कि इस अतिरिक्त अनाज वितरण में 1.2 लाख करोड़ रुपये और ख़र्च होते। यह भारत की कुल जीडीपी के एक फ़ीसदी हिस्से से भी कम है, लेकिन इससे भारत के लोगों को बहुत राहत मिलती।
सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दायरा बढ़ाने से भी इंकार कर दिया। लोगों को महामारी और इसके चलते लगाए गए लॉकडाउन में इसकी विशेष जरूरत थी। फिलहाल इस ढांचे के तहत 79 करोड़ लोगों को सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती हैं। सरकार के अपने थिंक-टैंक नीति आयोग ने अनुमान लगाया था कि 2011 के बाद से हुई आबादी के चलते, इस व्यवस्था के तहत खाद्यान्न पाने वाले जरूरतमंदों में 10 करोड़ की वृद्धि और हुई होगी। लेकिन अपनी विचारधारा की तरह रंग दिखाते हुए आयोग ने उन्हें राशन कार्ड धारकों में डालने पर चिंता जताई। लेकिन इसका मतलब यह हुआ कि इन लोगों को 5 किलोग्राम अनाज, जो अपर्याप्त था, वह भी नहीं मिला।
फिर यहां तकनीकी बाधा भी है। राशन कार्ड धारकों के लिए जरूरी है कि उनका कार्ड आधार नंबर से लिंक हो और राशन दुकानों पर उनका बॉयोमेट्रिक सत्यापित होना चाहिए। ऐसी और भी कई बाधाएं हैं। इससे भी कई जरूरतमंद वंचित रह जाते हैं।
इस सबको को जब हम महामारी के प्रभावों से निपटने में असफल नीतियों और लॉकडाउन से मिलाकर देखते हैं, तो पता चलता है कि बंपर फ़सल उत्पादन और रिकॉर्ड अनाज भंडार की भारत की भूख मिटाने में कोई उपयोगिता नहीं है।
आज जब हम आज़ादी के 75वें साल में प्रवेश कर चुके हैं, तो हमें इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
Hunger Amidst Plenty—Tragedy Continues 75 Years After Independence
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