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बेंगलुरु का जल संकट: मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था का दुष्परिणाम

अंधाधुंध शहरीकरण ने शहर में पेड़-पौधों का बड़े स्तर पर सफाया कर दिया है। शहरों में पेड़-पौधों की गिनती 2010 में 28% थी, जो कम होकर 2023 में 2.9% ही रह गई है। यह सीधा-सीधा रियल एस्टेट पूंजीपतियों और भूमाफ़िया द्वारा अपने मुनाफ़ों की खातिर की गई तबाही है, जिसका नतीजा आज शहर के आम लोग भुगत रहे हैं।
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Photo: PTI

जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे देश में जल संकट गहरा रहा है।‌ क़रीब दो‌ दशक पहले गर्मी के मौसम में केवल कुछ इलाक़ों में ही जल संकट होता था लेकिन अब यह देशव्यापी परिघटना बन गई है। देश के जिन इलाक़ों में आमतौर से यह समस्या नहीं थी अब‌ उन इलाक़ों में भी जल संकट गम्भीर होता जा रहा है। बेंगलुरु; जिसे किसी समय झीलों का शहर कहा जाता था आज पानी के भयानक संकट से जूझ रहा है। ना सिर्फ़ बेंगलुरु बल्कि पूरे कर्नाटक और इसके साथ लगे तेलंगाना और महाराष्ट्र के इलाक़ों में लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। 18 मार्च को आए सरकारी बयान के मुताबिक़ केवल बेंगलुरु शहर इस समय 50 करोड़ लीटर प्रतिदिन पानी की कमी झेल रहा है। इस दौरान वॉटर टैंकरों की मांग लगातार बढ़ रही है, जिससे पानी के कारोबारी बेशुमार पैसा कमा रहे हैं। एक 12000 लीटर के टैंकर की क़ीमत 1200 से बढ़कर 2850 हो गई है। शहर के ही एक निवासी का कहना है, “हमारा छ: सदस्यों का परिवार है, बहुत सावधानी से इस्तेमाल करने पर भी एक टैंकर पां च दिन ही निकालता है। जिसका मतलब है कि हमें एक महीने में छः टैंकर चाहिए। जिसका ख़र्चा दस हज़ार से भी बढ़ जाएगा,हम कितना समय इतने पैसे ख़र्च कर पाएँगे।” कहने की ज़रूरत नहीं कि शहर की ग़रीब बस्तियां इस संकट का सबसे ज़्यादा बोझ झेल रही हैं। उनका 75 प्रतिशत वेतन पानी जुटाने पर ख़र्च हो रहा है।

इस संकट के हालिया कारणों के पीछे एक साल में आम से कम वर्षा होना और भूजल की कमी होना बताए जा रहे हैं। वैल लैबस नामक एक संस्था ने बेंगलुरु की लगभग 1.3 करोड़ आबादी के हिसाब से एक रिपोर्ट जारी की है इसके मुताबिक़ शहर में पानी की प्रति व्यक्ति औसत खपत 150 लीटर प्रतिदिन है। इस हिसाब से शहर में पानी की मांग लगभग 263.20 करोड़ लीटर प्रतिदिन है। 140 करोड़ लीटर पानी कावेरी नदी से पहुचता है और 137.20 करोड़ भूजल से प्राप्त किया जाता है जो कि कुल मांग का लगभग आधा है। कहा जा रहा है कि ‘अल नीनो’ प्रभाव के कारण पिछले साल बेंगलुरु में बारिश कम हुई है,जिसके कारण धरती के नीचे के पानी का स्तर काफ़ी गिर गया है। शहर के किनारे पर रहने वाली ग़रीब आबादी तक कावेरी का पानी कम ही पहुंचता है और यह ज़्यादातर टैंकरों और निजी बोरवैलों पर यानी भूजल पर निर्भर हैं। इन निजी बोरवैलों,टैंकरों और कुओं से भूजल निकालने वालों में बहुसंख्या निजी कंपनियां की ही है। सरकारी काग़ज़ों में केवल 108 बोरवेल दर्ज़ हैं,लेकिन सरकारी निरीक्षण की कमी के कारण हज़ारों बोरवेल रियल एस्टेट वालों, निजी संस्थाओं, आई.टी.पार्कों द्वारा निकाले गए हैं जो कि ग़ैर-क़ानूनी हैं इसलिए भूजल उसी मात्रा में वापस धरती में नहीं जाता,जिस मात्रा में निकाला जाता है। प्राकृतिक तौर पर भूजल के वापस जाने की मात्रा सिर्फ़ 14.8 करोड़ लीटर प्रतिदिन है यानी रोज़ाना प्रयोग का केवल 6-7 %

दूसरा अंधाधुंध शहरीकरण ने शहर में पेड़-पौधों का बड़े स्तर पर सफाया कर दिया है। शहरों में पेड़-पौधों की गिनती 2010 में 28% थी, जो कम होकर 2023 में 2.9% ही रह गई है। यह सीधा-सीधा रियल एस्टेट पूंजीपतियों और भूमाफ़िया द्वारा अपने मुनाफ़ों की खातिर की गई तबाही है, जिसका नतीजा आज शहर के आम लोग भुगत रहे हैं। पेड़-पौधों की कमी के कारण पानी के वापस धरती में जाने में दिक़्क़त आती है,जिसके नतीजा आज हमारे सामने है कि तक़रीबन 45% वर्षा का पानी बहकर नदियों और फिर झीलों में चला जाता है,परंतु ये झीलें कारख़ानों से निकले ज़हरीले रसायनों या गंदे पानी से भरी होती हैं। पूँजीवादी व्यवस्था की तबाही का नतीजा है कि इन झीलों और जलस्रोतों में बड़ी मात्रा में रसायन और दूसरा ओद्यौगिक कचरा फेंक-फेंककर इन्हें इतना प्रदूषित कर दिया गया है कि इनमें से ज़्यादातर का पानी पीने लायक नहीं रहा है।

जैसा कि मैंने प्रारंभ में बताया था कि किसी समय बेंगलुरु को ‘झीलों का शहर’ कहा जाता था। शहर में किसी समय हज़ार झीलें थीं। 1970 के दशक में भी 285 झीलें थी परंतु आज पूंजीपतियों की हवस और लुटेरी सरकारों की मिलीभगत का नतीजा है कि बेंगलुरु में झीलों की गिनती केवल 173 रह गई है। बाक़ी सभी को रियल एस्टेट के पूंजीपतियों ने मिट्टी से भरकर ऊंची इमारतें और कालोनियों में बदल दिया बना है। पहले ये झीलें भारी वर्षा के दौरान बाढ़ रोकने में मददगार साबित होती थीं और ऊपर तक भर जाती थीं, जिससे पानी भी भविष्य के लिए स्टोर हो जाता था परंतु आज इन झीलों में जा रहा आधे से ज़्यादा पानी गंदा और रासायनिक होता है जो पीने लायक नहीं। इससे सीधा-सीधा पीने वाले पानी का धंधा भी जुड़ गया है। पहले प्राकृतिक जलस्रोतों के रूप में मुफ़्त में मिलने वाले इस प्राकृतिक तोहफ़े पर अब बड़ी कंपनियों का क़ब्ज़ा हो चुका है जो बोतल बंद पानी बेचकर करोड़ों-अरबों रुपया कमा रही हैं।

पूंजीवादी शहरीकरण की बेंगलुरु जैसे शहर पर दोहरी मार पड़ी है – झीलें बंद कर देने के कारण बरसातों में शहर में भारी बारिश के समय बाढ़ जैसी स्थिति बन जाती है और दूसरी तरफ़ प्राकृतिक पानी के स्रोत सूखने के कारण गर्मियों में पीने वाले पानी की भारी किल्लत हो जाती है। ये बिलकुल दो तरह की परिघटनाएं सीधा-सीधा पूंजीवादी शहरीकरण की ग़ैर-योजनाबंदी और बेतरतीबी का नतीजा है।

आज कर्नाटक; ख़ासकर बेंगलुरु में जो पानी की किल्लत आ रही है इसका मुख्य कारण यह मौजूदा आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था है। पूंजीपतियों की मुनाफ़े की होड़ दिनों-दिन तेज़ हो रही है जिसने पानी, हवा, ज़मीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों को भी बर्बाद करके रख दिया है। इस संकट का सबसे ज़्यादा बोझ तो ग़रीब मेहनतकश आबादी पर ही पड़ता है जिस तक अकसर ना तो शुद्ध पानी पहुंचता है और ना ही उनके पास पानी के टैंकर ख़रीदने के लिए पैसे होते हैं लेकिन दूसरी तरफ़ प्रशासन शहर के अमीर‌ इलाक़ों, बड़े होटलों-रेस्टोरेंटों आदि के लिए पानी की पूर्ति सबसे पहले करता है। कारख़ानों के ज़रिए होती पानी की बर्बादी के अलावा मुट्ठी-भर धन्नासेठ गाड़ियां धोने के लिए,पूल पार्टियों आदि के लिए अंधाधुंध पानी बर्बाद करते हैं। हालात ये हो गए हैं कि अगर मुनाफ़े के पगलाए दैत्य को नकेल नहीं डाली गई तो जल्द ही भारत के छः और बड़े शहरों मुंबई,जयपुर, भटिंडा,लखनऊ,चेन्नई और दिल्ली को भी ऐसे संकट का सामना करना पड़ सकता है। लाज़िमी तौर पर इसकी सबसे ज़्यादा मार तो मेहनतकश जनता पर ही पड़ेगी। इस तरह यह पूंजीवादी ढांचा आम लोगों को शुद्ध हवा-पानी से भी वंचित बना रहा है। इस ढांचे को ख़त्म करके ही सबके साझे प्राकृतिक स्रोत-संसाधनों को बचाया जा सकता है।

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