बीच बहस: नेगेटिव या पॉजिटिव ख़बर नहीं होती, ख़बर, ख़बर होती है
अच्छी ख़बर... बुरी ख़बर...नेगेटिव ख़बर... पॉजिटिव ख़बर कुछ नहीं होती। ख़बर, ख़बर होती है।
जो लोग वास्तव में ख़बर नहीं दिखाते वही लोग नेगेटिव ख़बर, पॉजिटिव ख़बर का शोर मचाए हैं। ये नेगेटिव, पॉजिटिव सब सत्ता का नरेशन (narration) है।
कोरोना से लड़ने के लिए वैक्सीन आ गई, बेशक ये अच्छी ख़बर है, लेकिन कोरोना से कितने लोग संक्रमित हुए या कितने लोगों की मौत हुई, उसका सही आंकड़ा देना या मांगना भी बुरी या नकारात्मक (negative) ख़बर नहीं है। बल्कि कोरोना से लड़ने के लिए ये सकारात्मक (positive) ख़बर कहलाएगी।
अस्पताल में बेड, इंजेक्शन और ऑक्सीज़न की कमी बताना बुरी या नेगेटिव ख़बर दिखाना नहीं है। बल्कि अगर यह न बताया-दिखाया जाए तो इसकी किल्लत हमेशा इसी तरह बनी रहे।
इसी तरह गंगा में बहती लाशें दिखाना नेगेटिवटी (negativity) फ़ैलाना नहीं, बल्कि शासन को आईना दिखाना है। उसके झूठ का पर्दाफ़ाश करना है। यही काम है मीडिया का, एक पत्रकार का। इसके अलावा जो और कोई काम करता है वह वास्तव में नेगेटिवटी फ़ैलाता है।
कल एक दोस्त से यही बातें हो रहीं थी। उन्होंने कहा कि जब से उन्हें कोरोना हुआ तब से उन्होंने टीवी नहीं खोला। टीवी खोलते ही डर लगता है कि फिर वही नेगेटिव, डराने वाली ख़बरें देखने को मिलेंगी।
बड़े भाई ने भी यही बताया कि वह काफी समय से न्यूज़ चैनल नहीं देख रहे थे। वरना कोरोना के इतने आंकड़े बढ़े, इतनी मौतें बढ़ीं यह सुन-सुनकर डर लगता था। अब मामले कुछ कम हुए हैं तो फिर टीवी देखने का हौसला जगा।
ये सच है कि अब आम आदमी न्यूज़ चैनल खोलते हुए डरता है। ज़्यादातर जितने लोग बीमार हुए उन्होंने निश्चित ही बीमारी के दिनों में कम से कम 14 दिन तो टीवी यानी न्यूज़ चैनल तो नहीं ही देखा होगा।
रवीश कुमार तो बहुत दिनों से न्यूज़ चैनल न देखने की सलाह दे रहे हैं, उनके व्यापक संदर्भ, चिंताएं और व्याख्याएं हैं, लेकिन इन दिनों कोरोना काल में वास्तव में लोगों ने न्यूज़ चैनल देखना कम कर दिया है या छोड़ दिया है।
मैंने और मेरे परिवार ने खुद कोविड होने पर बहुत दिन टीवी नहीं देखा। लेकिन इसका मतलब क्या है!
आप अगर कुछ दिन आराम की गरज से इस सबसे दूर हैं तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर आप इस डर से टीवी नहीं देख रहे कि फिर वही हाहाकार सुनने को मिलेगा, फिर वही कोरोना का रोना, दूसरी लहर... तीसरी लहर... की बातें, ब्लैक फंगस, व्हाइट फंगस की बातें डराएंगी तो ऐसा ठीक नहीं हैं। ख़बरें देखकर अगर हमारा हौसला टूटता है, विश्वास डगमगाता है तो ये अच्छी बात न हुई।
जबकि होना इसका उलटा चाहिए था। यानी ख़बरें मिलने और देखने से हमारा हौसला बढ़ना चाहिए कि हमारे पास सही जानकारियां पहुंच रही हैं। जो सही है वो तो है ही, जो ग़लत है वह भी सही हो जाएगा। कोई है जो हमारे लिए खड़ा है, अब शासन-प्रशासन अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं भाग पाएगा। लेकिन ऐसा नहीं होता...
इसके अलावा ख़बर जब ख़बर की तरह पेश नहीं की जाती तो वो एक प्रहसन बन जाती है। वो या तो हँसाती है या डराती है। हमारे देश में आजकल ख़बर की प्रस्तुति बेहद फूहड़ और भयावह हो गई है। असल बात यही है कि आजकल सीधी सच्ची बात को भी बेहद नाटकीय और भौंडे-डरावने अंदाज़ में पेश किया जाता है। अपने यहां तो हिंदी-अंग्रेज़ी का भी भेद मिट गया है। पहले अंग्रेज़ी चैनल ज़रा सीरियस माने जाते थे, लेकिन अब तो वो भी सबको मात कर रहे हैं।
आप कभी ज़रा बीबीसी या सीएनएन देखिए या अलज़ज़ीरा। एनडीटीवी पर ही रात दस बजे आने वाले बीबीसी के हिंदी बुलेटिन को ही देख लीजिए। कितने कम समय में कितने सहज तरीके से कितनी बड़ी-बड़ी ख़बरें बता देते हैं।
हमारे यहां दिक्कत ये है कि हर बात में अति हो जाती है। कभी हमारा मीडिया बिल्कुल खुशी में मगन होकर ताली-थाली बजाने लगता है और कभी बेहद नाटकीय अंदाज़ में हाहाकार मचा देता है। यही वजह है कि जब भी टीवी खोलिए एक शोर सुनाई देता है। इस शोर में, मारामारी में असल ख़बर कहीं नीचे दब जाती है, दबा दी जाती है।
इसके साथ ही फ़र्ज़ी ख़बर (fake news), आधी-अधूरी सूचना (incomplete information), ग़लत सूचना (misinformation) या दुष्प्रचार (disinformation) का भी बहुत तेज़ प्रवाह है। ख़बरों में झूठ या दूसरी बातों का इस क़दर घालमेल हो जाता है कि आम आदमी के लिए कुछ भी समझना मुश्किल हो जाता है।
दरअसल आपका सही ख़बरों को न जानना, उस तक पहुंच न होना ही सत्ता के पक्ष में है। इसलिए वह नेगेटिविटी-पॉजिटिविटी का आख्यान रचता है। यह तो वही बात हुई जैसे बिल्ली को देखकर कबूतर आंखें बंद कर ले और सोचने लगे कि जब मुझे बिल्ली नहीं दिखाई दे रही तो बिल्ली को भी मैं (कबूतर) नहीं दिखाई दे रहा होउंगा। और फिर इसका परिणाम क्या होता है! परिणाम यह होता कि बिल्ली एक ही झपट्टे में कबूतर का काम तमाम कर देती है।
इसलिए हम अगर डर की वजह से टीवी बंद कर रहे हैं तो हमको यह नहीं समझना चाहिए कि समस्या टल गई।
टीवी बंद कर लेने का मतलब आंखें बंद कर लेना नहीं होना चाहिए।
अगर हम टीवी बंद कर किसी और सोर्स से सही ख़बरें हासिल कर रहे हैं और किसी न किसी माध्यम से सत्ता से लगातार सवाल कर रहे हैं, अपनी आवाज़ उठा रहे हैं तब तो ठीक है। आपको जागरूक नागरिक कहा जाएगा, लेकिन आप केवल टीवी बंद करके यह समझ ले रहे हैं कि हालात बदल जाएंगे तो इससे तो हालात नहीं बदलने वाले। बल्कि और बिगड़ जाएंगे।
हालांकि यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि इस कोविड काल में कुछ मीडिया संस्थानों ख़ासकर कुछ अख़बारों और उनके रिपोर्टरों ने बेहतरीन काम किया है। उन्होंने न सिर्फ़ रात-दिन मेहनत करके बल्कि अपनी जान का भी जोखिम लेकर सरकार की बदइंतज़ामी और आपराधिक लापरवाहियों को रिपोर्ट किया है। कोरोना से मरने वालों के सही आंकड़े प्रकाशित कर सत्ता का झूठ उजागर किया है। पीड़ितों की व्यथा-कथा सबके सामने रखी है। कुछ चैनलों पर भी कभी-कभी कोई अच्छा कार्यक्रम, बहस देखने को मिल जाती है। कुछ एंकर भी सरकार के प्रवक्ता से सवाल पूछ लेते हैं। लेकिन इससे यह भ्रम पालना ठीक नहीं कि कॉरपोरेट मीडिया बदल गया है और वो सच दिखाने लगा है। ग़रीबों का हमदर्द हो गया है। सत्ता से सवाल पूछने लगा है।
हमारे वरिष्ठ साथी बृज बिहारी पांडे ने बहुत साल पहले मीडिया को लेकर हुई एक चर्चा में कहा था कि तथाकथित मेन स्ट्रीम मीडिया कभी सर्वहारा का नहीं होता। जब कभी दो बुर्जुआ घरानों या सत्ता प्रतिष्ठानों में सत्ता के लिए टकराव या खींचतान होती है तो बीच में कुछ स्पेस निकलता है, कुछ ऐसी ख़बरों के लिए जगह बनती है जिससे ऐसा भ्रम होता है कि मीडिया बड़ा निष्पक्ष हो गया है, सच दिखाने लगा है। लेकिन हक़ीक़त में ऐसा होता नहीं है।
मेरा भी भी यही मानना है।
लेकिन यह भी मानना है कि जो भी है, जितना भी है, जनता के लेखक-पत्रकारों को व्यापक जनहित में इस स्पेस का फ़ायदा उठाने से चूकना नहीं चाहिए।
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