मोदी-राज में शिक्षा की सर्वांगीण तबाही के दूरगामी नतीजे होंगे
हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्रों के एक प्रतिवाद मार्च को सम्बोधित करते हुए पूर्व DUTA अध्यक्ष प्रो. नन्दिता नारायण ने कहा " हमने इस विश्वविद्यालय की ऐसी तबाही इसके पहले कभी नहीं देखी है। चारों ओर अव्यवस्था और अराजकता ( mismanagement and chaos) व्याप्त है। केवल एक मकसद बिल्कुल साफ है-शिक्षा को सबसे privileged तबकों तक सीमित कर देना।"
प्रो. नारायण राजधानी में स्थित देश के सर्वप्रमुख केंद्रीय विश्वविद्यालय की जब यह हालत बयान कर रही हैं तो देश के दूर-दराज तक फैले उपेक्षित शिक्षण संस्थानों की सेहत कैसी होगी, छात्रों के साथ क्या हो रहा होगा, यह समझा जा सकता है।
एक विशेष विचारधारा के अनुरूप शिक्षा के समूचे ढांचे को ढाला जा रहा है, पाठ्यक्रम बदले जा रहे हैं, शीर्ष नीति-नियामक संस्थानों के प्रमुखों, कुलपतियों की नियुक्ति हो रही है, कैम्पस लोकतन्त्र, शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता खत्म की जा रही है, परिसरों में पुलिस कैम्प बनाये जा रहे हैं, छात्रों के लोकतान्त्रिक आंदोलनों पर पुलिस तथा सत्ता-संरक्षित लम्पटों के हमले बढ़ते जा रहे हैं।
वैसे तो पिछले लगभग 9 साल से राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में विनाश का खेल जारी है, लेकिन सबसे सर्वांगीण ढंग से जिस क्षेत्र को तबाह किया गया है वह शिक्षा जगत है। जिस तरह भाजपा-राज में शिक्षा व्यवस्था को खत्म किया जा रहा है, उसे देखकर लगता है कि शिक्षा को तबाह करने में मौजूदा निज़ाम का निहित-स्वार्थ ( vested interest ) है। दरअसल, जिस अवैज्ञानिक, अतार्किक, अनैतिहासिक प्रोपेगंडा की वैचारिक बुनियाद पर फासीवादी राजनीति की इमारत खड़ी है उसे एक शिक्षित, तर्कशील, विवेकपूर्ण समाज से खतरा है।
सच तो यह है कि इनका वश चले तो पूँजी और कारपोरेट की जरूरत भर उच्च शिक्षित man-power पैदा करने वाली चंद संस्थाओं को छोड़कर पूरे देश के शिक्षण संस्थानों को ये शिशु मंदिर मार्का संघी कार्यशाला में तब्दील कर दें जहां लोग literate तो होंगे पर un-educated ही नहीं de-educated होंगे-जो न सिर्फ वैज्ञानिक ज्ञान से वंचित होंगे, बल्कि जिनका मन-मस्तिष्क अवैज्ञानिक, दकियानूसी विचारों और नफरती, उन्मादी भावुकता के जहर से विषाक्त होगा। जाहिर है यह इनके राज को शाश्वत बनाने का सबसे अचूक नुस्खा होगा !
सर्वोपरि, वे देश की युवा पीढी और कारपोरेट-लूट के शिकार समाज के कमजोर तबकों को वैज्ञानिक शिक्षा से वंचित कर फ़ासिस्ट propaganda से brain-wash करना चाहते हैं।
शायद, इसी रणनीति के तहत आज सरकार ने आम गरीब परिवार के छात्रों को शिक्षा से वंचित करने का अभियान छेड़ दिया है।
एक फैसले में सरकार ने SC, ST, OBC तथा अल्पसंख्यक समुदाय के सभी गरीब ( ढाई लाख वार्षिक से कम आमदनी वाले ) छात्रों को कक्षा 1 से 8 तक मिलने वाली pre-matric छात्रवृत्ति शैक्षणिक वर्ष 2022-23 से बंद कर दिया है। इस छात्रवृत्ति में केंद्र और राज्य 75 : 25 के अनुपात में अंशदान करते थे, जिसके तहत डे स्कॉलर को 225/- और छात्रावासियों को 525/- मासिक मिलता था तथा किताबों व अन्य ad hoc खर्चों के लिए क्रमशः 750/- तथा 1000/- वार्षिक मिलता था। फलस्वरूप इस साल करोड़ों छात्रों की application खारिज कर दी गयी।
इस सन्दर्भ में सरकार का यह तर्क बेमानी है कि 1 से 8 तक की शिक्षा क्योंकि RTE Act 2009 के तहत सरकार का दायित्व है, इसलिए अलग से छात्रवृत्ति की जरूरत नहीं है। यह एक्ट तो केवल सरकारी स्कूलों तथा EWS के तहत प्राइवेट स्कूलों में प्रवेश पाने वाले छात्रों पर लागू होता है। लेकिन, सभी छात्र न तो सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, न EWS श्रेणी में प्राइवेट स्कूल में दाखिला पाते हैं, उन छात्रों का क्या होगा ? सच्चाई यह है कि यह छात्रवृत्ति हाशिये के समुदायों के बच्चों की शिक्षा के लिए बहुत बड़ा incentive थी। इसके बंद होने का छात्रों के एनरोलमेंट पर भारी असर पड़ेगा और ड्राप-आउट रेट बढ़ेगा।
इसी तरह नए नियमों का हवाला देकर तेलंगाना में post-matric दलित छात्रों को मिलने वाली छात्रवृत्ति तथा tuition fees के मद में केंद्र सरकार ने 2021-22 और 2022-23 का अपना 60% शेयर नहीं दिया। केंद्र का यह कहना है कि वह अपना हिस्सा तभी देगी जब राज्य अपना share दे देगा। केंद्र का यह कहना है कि वह अभिभावकों के खाते में Direct Benefit Transfer ( DBT ) करेगी जबकि राज्य का यह कहना है कि अभिभावक से वह पैसा दूसरे मद में खर्च हो जायेगा और फीस जमा नहीं हो पायेगी, फलस्वरूप छात्र की शिक्षा प्रभावित होगी। बहरहाल केंद्र राज्य की इस लड़ाई में छात्र suffer कर रहे हैं।
अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षण संस्थानों और छात्रों पर तो सरकार टूट ही पड़ी है। इन समुदायों के ( जिसमें मुस्लिम, ईसाई के अतिरिक्त जैन, बौद्ध,पारसी, सिख भी शामिल हैं ) M Phil, Ph D के छात्रों को मिलने वाली छात्रवृत्ति मौलाना आज़ाद नेशनल फेलोशिप ( MANF ) बंद होने से इन समुदायों से आने वाले छात्रों की उच्च शिक्षा पर पड़ने वाले असर को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि पिछले 7 साल में ( 2014-15 से 2021-22 तक ) लगभग 7 हजार ( 6722) छात्रों ने इसकी बदौलत उच्च शिक्षा प्राप्त की। जाहिर है यह छात्रवृत्ति बंद होने से इतनी बड़ी तादाद में उच्चतम शिक्षा प्राप्त युवाओं से देश हर साल वंचित रह जायेगा, उन छात्रों और समुदायों की शिक्षा के प्रसार पर जो असर पड़ेगा वह अपनी जगह है। लेकिन इसके लिए 7 साल में लगभग 700 करोड़ की कीमत भी मोदी सरकार को बर्दाश्त नहीं हुई ! दरअसल इसमें कटौती तो पहले ही कर दी गयी थी, अब इसे पूरी तरह बंद कर दिया गया है। बताया जा रहा है कि इस छात्रवृत्ति से सर्वाधिक लाभान्वित होने वाले कश्मीर, केरल और UP के छात्र थे। जाहिर है इसके बंद होने से कश्मीर के छात्रों पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव खासतौर से चिंताजनक है, लेकिन मोदी सरकार को इसकी शायद ही कोई परवाह हो।
इसे बंद करने का संसद में ऐलान करते हुए अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री स्मृति ईरानी का overlapping का तर्क भ्रामक है। अव्वलन तो एक छात्र एक ही स्कालरशिप हासिल करता है, ऐसा थोड़े ही है कि जिसे JRF मिल रही है, वह मौलाना आज़ाद नेशनल फेलोशिप (MANF) भी ले लेगा। दूसरे इसका लाभ अल्पसंख्यक समुदाय के उन गरीब छात्रों को मिलता था जो जातिगत कारणों से OBC National Fellowship नहीं पा सकते थे। अब उनकी उच्च शिक्षा इससे सीधे प्रभावित होगी।
न्यूज़क्लिक में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प. बंगाल के मुर्शिदाबाद में बने AMU के 2nd कैम्पस के लिए स्थापना के बाद से अब तक जहाँ 1000 करोड़ केंद्रीय मदद मिलनी थी, वहाँ उसे अब तक मात्र 60 करोड़ मिला है। ज्ञातव्य है कि अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों के लिए गुणवत्तापूर्ण आधुनिक शिक्षा के केंद्र के बतौर AMU के रेकॉर्ड को देखते हुए यहां उसका कैम्पस खोलने के प्रस्ताव को 2010 में तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार ने स्वीकृति दी थी और इसके लिए जमीन मुहैया कराई थी। उम्मीद थी कि आसपास के अल्पसंख्यक बहुल जिलों मुर्शिदाबाद, मालदा, साथ ही बीरभूम, बर्दवान के इलाके के छात्र इससे लाभान्वित होंगे। लेकिन अब यह पूरी परियोजना केंद्र सरकार की भारी उपेक्षा का शिकार है।
राजनीतिक रूप से संघ-भाजपा की आंख में चुभने वाले JNU और जामिया को तो systematic ढंग से ध्वस्त करने की कोशिश लगातार जारी ही है, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से लेकर BHU तक पिछले दिनों 400% तक की भारी फीस बढोत्तरी हुई, जिसके खिलाफ छात्र लगातार लड़ रहे हैं और संसद में यह सवाल उठा।
पिछले दिनों संसद में पेश एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 5 साल में उच्च शिक्षण संस्थानों में शोध के क्षेत्र में केंद्र सरकार के आर्थिक व्यय ( spending ) में भारी गिरावट हुई है। आगामी बजट में वित्तीय घाटा कम करने के नाम पर शिक्षा समेत तमाम लोककल्याणकारी मदों पर सब्सिडी खत्म करने के लिये कारपोरेट लाबी का जबरदस्त दबाव है।
सवाल उठता है कि तर्क और विज्ञान पर आधारित आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के ध्वंस की कीमत कौन चुकाएगा? क्या ऐसा समाज कभी भी तरक्की कर सकता है ? कारपोरेट लूट से संचालित ऐसे समाज में क्या आम जनता के जीवन में कोई खुशहाली, बेहतरी आ सकती है ? क्या ऐसा समाज सभ्य, मानवीय, लोकतान्त्रिक समाज बन सकता है ? यह अनायास नहीं है कि पिछले 9 साल में देश हर पैमाने पर गिरावट और क्षय का शिकार है। सारे सूचकांकों पर, चाहे वह hunger index हो या human development index, मानवाधिकार का पैमाना हो या प्रेस की आज़ादी-सब पर हम फ़िसड्डी होते जा रहे हैं। बेशक dollar billionaires की संख्या बढ़ रही है, अशिक्षा, गरीबी, भूखमरी , कुपोषण, बेकारी में हम अव्वल होते गए हैं।
अर्थव्यवस्था की बिगड़ती हालत के दौर में जरूरत थी कि बड़े business houses और कारपोरेट पर टैक्स बढ़ा कर लोककल्याण के मदों के लिए धन की व्यवस्था की जाती, लेकिन सरकार उल्टी राह पर चल रही है। वह उन्हें तो लाखों करोड़ की छूट दे रही है और शिक्षा जो राष्ट्रीय प्रगति के लिए सर्वाधिक महत्व का क्षेत्र है, उसे जरूरी आर्थिक संसाधन से वंचित करके तबाही की ओर धकेल रही है।
शैक्षणिक समुदाय, छात्र-युवाओं तथा नागरिक समाज को इसे 2024 के चुनावों का प्रमुख एजेंडा बनाना होगा तथा विपक्ष को GDP के कम से कम 6% खर्च समेत शिक्षा के लोकतांत्रीकरण के वैकल्पिक एजेंडा के प्रति वचनबद्ध होने के लिए बाध्य करना होगा।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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