अब हाथ में तिरंगा बगल में भगवा
अपराध मनोविज्ञान की एक ख़ास प्रवृत्ति "करें गली में कत्ल बैठ चौराहे पर रोयें" की होती है। ह्त्या जैसे गंभीर अपराधों में पुलिस जाँच आमतौर से उनकी शिनाख्त से शुरू होती है जो बेवजह कुछ ज्यादा ही शोकाकुल घूमते और विलाप करते दिखते हैं, जो मौकाए वारदात पर कुछ ज्यादा ही टहल करते दिखाई देते हैं। जाग्रत असामान्य बर्ताव अमूमन सुप्त ग्लानिभाव की उपज होता है। आरएसएस - भाजपा की तिरंगा मुहिम इसी सिंड्रोम का ताजा नमूना है। वे बड़े जोर शोर से तिरंगा की खुदरा और थोक बिक्री की दुकानें खोले बैठे हैं, बस्तियों में जा जाकर तिरंगे बेचने और बांटने में लगे हैं। उसी तिरंगे के लिए आकाश पाताल एक किये हैं जिसको जिसे संघ ने कभी भारत का राष्ट्रध्वज ही नहीं माना - इतना ही नहीं उसे "अशुभ और अपशकुनी" तक बताया।
स्वयं आरएसएस के दस्तावेजों में दर्ज है कि तिरंगे झंडे को राष्ट्रीय ध्वज बनाने के बारे में आम राय बनने के बाद संघियों ने बाकायदा इसके खिलाफ देश भर में अभियान चलाया। आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ के 14 अगस्त 1947 के अंक में ‘भगवा ध्वज के पीछे रहस्य’' के सनसनीखेज शीर्षक के साथ छपे एक लेख में दिल्ली के लाल किले की प्राचीर पर भगवा ध्वज के फहराए जाने की खुली मांग करते हुए राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे के चयन पर अपमानजनक टिप्पणियां और राष्ट्रध्वज के रूप में इसे कभी स्वीकार न करने की घोषणाएं तक की गयीं। इस लेख में लिखा है कि ;
" “जो लोग किस्मत के दांव से सत्ता में आ गए हैं, वे हमारे हाथ में तिरंगा दे सकते हैं, लेकिन इसको हिंदुओं द्वारा कभी अपनाया नहीं जाएगा और न ही इसका कभी हिंदुओं द्वारा सम्मान होगा। तीन का अंक और शब्द ही अपने आप में एक बुरा अपशकुन है। इसलिए तीन रंगों वाले झंडे का निश्चित रूप से एक बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव होगा और यह देश के लिए हानिकारक साबित होगा।”
खुद आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक और उस संगठन के अब तक के एकमात्र "विचारक" गोलवलकर ने इसे तीन रंगों वाला और अशुभ बताया था। गोलवलकर के लिखे-बोले के संग्रह "विचार नवनीत" (बंच ऑफ़ थॉट) में इस बारे में उनका कहा दर्ज है। वे लिखते हैं कि
"हमारे नेताओं ने जो राष्ट्रीय ध्वज दिया है वह नकल का भौंडा नमूना है। इसमें ये तीन रंग कहाँ से आये ? फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान उनके झंडे पर तीन रंग की पट्टियां उनके "समता, भाईचारे और स्वतन्त्रता" के तीन नारों की अभिव्यक्ति थीं। अमरीकी झंडे में भी थोड़े बहुत बदलाव के साथ इन्हे आजादी की लड़ाई में कुर्बानी देने वालों के प्रतीक के रूप में लिया गया था। भारत के झण्डे में ये सिर्फ उनकी नक़ल है। "
वे यहीं तक नहीं रुके उन्होंने इस झंडे को साम्प्रदायिक तक करार दिया और दावा किया कि "इसमें जो हरा रंग है वह मुसलमानों का है - इसलिए आरएसएस इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकता। " जबकि झण्डे की राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकृति के साथ ही यह स्पष्ट किया गया था कि इसका केसरिया रंग कुर्बानी, सफ़ेद पवित्रता तथा हरा उर्वरता और शान्ति का प्रतीक है। झंडे के बींचोबीच बने 24 तीलियों वाले अशोक चक्र को अनवरत गति और प्रगति का प्रतीक बताया गया था।
राष्ट्र ध्वज के बारे आरएसएस की यह धारणा कोई पुरानी पड़ चुकी बात नहीं है। 2018 में आरएसएस के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने नई दिल्ली के विज्ञान भवन में एक कार्यक्रम में इसे गोलमोल अंदाज में फिर दोहराया और कहा कि “यह सवाल अक्सर उठता है कि शाखा में भगवा ध्वज क्यों फहराया जाता है राष्ट्रध्वज क्यों नहीं?" इस बारे में कुछ स्पष्टीकरण देने या सुधारने की बात कहने की बजाय उन्होंने दावा किया कि ".... पर संघ तिरंगे के जन्म से ही उसके सम्मान से जुड़ा हुआ है।” कितना जुड़ा हुआ है यह ऊपर की पंक्तियों - जिनका संघ ने आज तक कभी खंडन नहीं किया - से स्पष्ट हो ही गया है। इसके पहले 2015 में चेन्नई में एक संगोष्ठी में आरएसएस ने कहा था कि “राष्ट्रीय ध्वज पर भगवा ही एकमात्र रंग होना चाहिए था क्योंकि अन्य रंग एक सांप्रदायिक विचार का प्रतिनिधित्व करते हैं।”
ध्यान रहे कि आजादी के बाद भी आरएसएस ने तिरंगे को राष्ट्रीय झंडा महात्मा गांधी की ह्त्या के बाद लगे प्रतिबंध को हटवाने के लिए सरदार पटेल द्वारा लगाई गयी शर्तों के तहत मजबूरी में ही माना था। इन शर्तों में भारत के ध्वज और संविधान के प्रति वफादार रहने की शपथ लेना, हिंसा और गोपनीयता का त्याग कर संघ का संविधान बनाकर उसे सार्वजनिक करना, अपने संगठन में लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव कराना, देश की लोकतांत्रिक प्रणाली में विश्वास रखना और राजनीतिक गतिविधियों से पूरी तरह से दूर रहते हुए सिर्फ सांस्कृतिक गतिविधियों में ही लिप्त रहना, अपनी गतिविधियों तथा शाखाओं में बच्चों को नहीं लाना आदि प्रमुख हैं। कहने की जरूरत नहीं कि बाद में आरएसएस ने इनमे से एक भी वचन का पालन नहीं किया। देश के राष्ट्रध्वज के बारे में भी उसका नजरिया नहीं बदला ,
ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ कहने भर की बात थी। तिरंगे से असहमति और विरोध को आरएसएस ने अपने आचरण और व्यवहार में भी उतारा। नागपुर के आरएसएस मुख्यालय पर पांच दशकों तक तिरंगा नहीं फहराया गया। 26 जनवरी 2001 को, राष्ट्रप्रेमी युवा दल के तीन सदस्यों द्वारा संघ मुख्यालय में घुसकर जबरदस्ती तिरंगा फहराया गया था। 14 अगस्त 2013 की प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, “परिसर के प्रभारी सुनील कथले ने पहले उन्हें परिसर में प्रवेश करने से रोकने की कोशिश की और बाद में उन्हें तिरंगा फहराने से रोकने की कोशिश की।”
इतना ही नहीं उसके बाद इन तीनो युवाओं को गिरफ्तार भी करवा दिया । इन युवाओं पर यह मुकदमा 13 वर्षों तक चला। बहरहाल इस घटना से कुछ ज्यादा ही छीछालेदर हुयी तो अगली साल 26 जनवरी 2002 को आधी सदी बाद संघ कार्यालय पर राष्ट्र ध्वज फहराया गया। मगर यह भी सिर्फ दिखावा है। इसी साल मोदी के जर्मनी दौरे के समय उनके स्वागत में ब्रांडेनबर्ग गेट पर हुयी कथित भारतीयों की रैली में राष्ट्रध्वज तिरंगा नहीं भगवा ध्वज लहराया गया था। इसका वीडियो खुद प्रधानमंत्री के आधिकारिक ट्विटर अकाउंट पर पोस्ट किया गया था। यही निरंतरता आज भी जारी है। इन दिनों जब आजादी की 75वीं सालगिरह पर प्रधानमंत्री मोदी हरेक नागरिक से अपनी प्रोफाइल फोटो पर तिरंगा लगाने को कह रहे हैं किन्तु - इन पंक्तियों के लिखे जाने तक - आरएसएस और इसके सरसंघचालक मोहन भागवत की डीपी पर अभी भी भगवा ही लटका हुआ है।
इस तिरंगा मुहिम में भी यह वितृष्णा दिखाई दे रही है। राष्ट्रध्वज के निर्धारित और वैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। देश भर से ऐसी अनेक तस्वीरें सामने आयी हैं, लगातार आ रही हैं, जहां तिरंगे के ऊपर भगवा लहरा रहे हैं , अनेक मामलों में तो भाजपा का झंडा तिरंगे के ऊपर है। राष्ट्रीय झंडा नियमों के अनुसार झंडा सिर्फ खादी के कपडे से ही बनना चाहिए, अधिकतम अपवाद रेशमी कपड़ा हो सकता है। मगर "खून में व्यापार" वाले कुनबे ने इसे भी पॉलिस्टर का बनवा कर खुद ही बेचना शुरू कर दिया है।
तिरंगे के प्रति आरएसएस का यह रुख अस्वाभाविक नहीं है। तिरंगा, भले राष्ट्र ध्वज के रूप में भारत की संविधान सभा ने 22 जुलाई 1947 को अपनाया हो, यह उससे कोई चौथाई सदी से भी पहले से, 1921 से भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का झंडा था। पहले इसमें केसरिया की जगह लाल रंग था। 1931 में कांग्रेस के कराची अधिवेशन में केसरिया, सफ़ेद और हरे तीन रंगों से बने इस ध्वज को सर्वसम्मति से स्वीकार किया। यह पिंगली वैंकैया की परिकल्पना थी या सुरैया तैय्यबजी की, ये विवादित विषय है जो कि अभी तक नहीं सुलझा. क्योंकि इस संबंध में ठोस ऐतिहासिक दस्तावेज मौजूद नहीं है इसलिए दावे और प्रतिदावे सामने आते रहते हैं। मगर यह सर्वमान्य तथ्य है कि यह आजादी के आंदोलन का झंडा था। अब जो आरएसएस आजादी की इस पूरी लड़ाई से अलग रहा हो, जिसने और जिसके नायकों ने अंग्रेजों की सेवा की हो, चाकरी के लिए माफीनामे लिख लिखकर गुहार लगाई हो, इस सबके लिए आज तलक खेद तक नहीं जताया हो (देखें ; तमाशा वे कर रहे हैं जो तमाशबीन भी न थे") उसका इस झंडे के प्रति लगाव हो ही नहीं सकता। असल में तो उसका सिर्फ इस झंडे से ही नहीं स्वतंत्रता संग्राम के हरेक हासिल से दुराव है। संविधान सभा के गठन और संविधान बनाने का संघ ने खुला विरोध किया, संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ. बी आर आंबेडकर के खिलाफ निम्नतम दर्जे का विषवमन किया। उनके शूद्र जाति से होने को भी मुद्दा बनाया। भारतीय गणराज्य के राज्यों का संघ होने की फैडरल ढाँचे की अवधारणा को कभी नहीं माना। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के लिखे राष्ट्रगान के प्रति लगातार झूठे प्रचार की मुहिम छेड़ रखी। इस झण्डा अभियान का असली मकसद भी देरसबेर उसकी जगह पर भगवा को स्थापित करना है। यह उसी का ड्रैस रिहर्सल है।
भारत की आजादी की 75वीं सालगिरह ऐसी ही दुरूह उलट बाँसियों के उत्तरोत्तर तेज होते हुए विपरीत राग के बीच आयी है। इस पचहत्तरवीं साल में भले मंजिल उन्हें मिली दिख रही है जो शरीके सफर न थे। मगर देश इसे कबूल करने को तैयार नहीं है। देश के मेहनतकश इसका प्रतिकार और प्रतिवाद कर रहे हैं ।मेहनतकशों के तीन प्रमुख तथा अनेक अन्य संगठनो ने पखवाड़े भर तक आरएसएस और साम्प्रदायिक तत्वों की इस महान लड़ाई के साथ की गयी गद्दारी को जनता के बीच बेनकाब किया है और इस 14 अगस्त की अर्धरात्रि में गाँव-गाँव, शहर-शहर में रतजगा करते हुए स्वतंत्रता संग्राम के वास्तविक मूल्यों की बहाली और आजादी को हर तरह की वास्तविक आजादी में बदलने का मंसूबा बनाया है।
(लेखक लोकजतन के संपादक हैं और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। )
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