क्या बॉलीवुड में अच्छी फ़िल्मों के संकट का समय है?
एक कला के रूप में सिनेमा सामाजिक परिवर्तनों को उनके प्रामाणिक सर्वश्रेष्ठ रूप में दर्शाता है। यह प्रामाणिक इसलिए है क्योंकि मुख्यधारा का सिनेमा वास्तविकता की बारीकियों को चित्रित करता है। पटकथा-लेखक जावेद अख़्तर ने एक बार कहा था कि उन्हें और निर्माता-पटकथा लेखक सलीम खान को नहीं पता था कि वे अपनी फिल्मों से एंग्री यंग मैन की स्थिति पैदा कर रहे हैं। वे एक जैसी आबोहवा में जी रहे थे और उस ज़माने के कई दूसरे लोगों की तरह उन्होंने जो महसूस किया उसे लिखा। लोग चर्चा कर लेते थे क्योंकि उनकी फिल्में उस पल को क़ैद कर लेती थी। उनकी फिल्में महसूस किए गए अनुभवों, भावनाओं और सामूहिक चेतन के साथ समझ में आ जाती थी। सिनेमा को सामूहिक भावनाओं को व्यक्त करने के माध्यम के रूप में देखा जाता था। यह एक बातचीत का हिस्सा होने और भावनाओं को स्पष्ट करने और सही ठहराने का एक तरीक़ा था। फिल्में एक ऐसे रहस्य को उजागर करती थी जिसके सबप्लॉट हम जानते थे लेकिन फिर भी चाहते थे कि कोई और हमें एक अच्छी, आनंददायक कहानी के रूप में बताए।
आक्रामक तकनीकों, सोशल मीडिया और गूगल मैपिंग के साथ हमारे हर क़दम, सामूहिक अनुभव और लोकप्रिय संस्कृति सीरिलाइज्ड (serialized) मोमेंट में समाहित हो गई है। सामूहिक चेतना का निर्माण करना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है क्योंकि हम जो कहते हैं और अनुभव करते हैं - उन दोनों के बीच अंतर बहुत ज्यादा हो गया है, उन दोनों का मकसद बहुत अलग हो गया है। हम जिस हाल से गुजर रहे हैं उसके बारे में हमारे भीतर आत्मविश्वास की कमी है और हम बहुत अधिक अनिश्चित हैं मगर फिर भी हम बहुत अधिक पाखंडी जीवन जीते हैं। जीवन बहुत कम निश्चित और सुरक्षित है फिर भी हम आकलन कर सकते हैं कि हमारे साथ आगे क्या होगा?
अधिक उत्कटता के लिए हमारी तीव्र इच्छा बढ़ रही है, लेकिन रहस्य के लिए नहीं। हम कम सुनते हैं, लेकिन हम अधिक मुखर हो जाते हैं। हमारे पास अधिक बाहरी आक्रामकता है लेकिन हमने आत्म-मीमांसा की अपनी क्षमता पर विराम लगा दिया है। हम दोहराव के लिए असीमित असहिष्णुता के साथ अधिक सुरक्षा चाहते हैं और दीर्घकालिक निरसता से पीड़ित हैं। हम दिखावा कर सकते हैं और खुद को धोखा दे सकते हैं लेकिन प्रासंगिक प्रामाणिकता की तलाश जारी रख सकते हैं।
चूंकि ईमानदारी, वीरता और आदर्शवाद विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के गुण बन गए हैं,इसलिए हम वीर न होने से नफ़रत करते हैं। यह हमारी सतत अतिसंवेदनशीलता को दर्शाता है। इन सभी ने दर्शकों की पसंद को भविष्यवाणी करने के लिए चुनौतीपूर्ण बना दिया है। एक निश्चित बात केवल यह है कि हमारा ध्यान बहुत ही जीवंत और रोजमर्रा की समस्याओं पर केंद्रित हो गया है लेकिन एक बाध्यकारी नैतिक ढांचे के बिना। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई मानक सामग्री नहीं है, लेकिन यह एक संदर्भ के भीतर इसमें शामिल अभिनेताओं की एक मूलभूत पसंद के रूप में न कि कुछ बड़ा करने के लिए हमारी बाहरी प्रतिबद्धता के रूप में उभरना चाहिए। जैसा कि हमारे मौजूदा राजनीतिक विकल्पों में स्पष्ट है, ऐसे में चापलूसी महसूस किए बिना हमारे विकल्पों को बिना मध्यस्थता के और प्रत्यक्ष प्रतीत होना चाहिए। यही कारण है कि फ़िल्में सहज दिखने वाली रोज़मर्रा की समस्याओं के माध्यम से सामाजिक जटिलता का वर्णन करती हैं।
एकमात्र ऐसी फिल्में जिसने कुछ हद तक लगातार अच्छा प्रदर्शन किया है वह छोटे शहरों को चित्रित करती हैं और अन्य विषयों के साथ बेरोज़गारी, वित्तीय सुरक्षा, कामुकता, परिवारों के भीतर पीढ़ी के अंतर, पुरानी परंपराओं और महिलाओं के स्वार्थ जैसे मूलभूत मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती हैं। ऐसी सभी फिल्मों में नायक अपना रास्ता पूर्व-निर्धारित नैतिकता से नहीं बल्कि संदर्भ में सबसे अधिक संभव बनाता है। व्यंग्य, डार्क ह्यूमर और सिचुएशनल कॉमेडी ऐसी विधाएं हैं जो वर्तमान मूड को सबसे अच्छा "कैप्चर" करती हैं। ये रुझान अपेक्षाकृत सफल फ़िल्मों द्वारा चित्रित किए गए कुछ हद तक सुसंगत प्रतीत होते हैं। फंतासी या एक्शन थ्रिलर जैसे बाकी सभी फ़िल्मों में कैमियो की भूमिकाएं हैं।
सिनेमा का मिजाज़ कुछ असाधारण तरीक़े से विद्रोही है लेकिन अपनी सीमा के प्रति सचेत है। यह ऊर्जा "क्रांतिकारी परिवर्तन" में ले जाने के उत्साह के बिना परिवर्तन की संभावना को देखने की क्षमता से आती है। यह कुछ छोटा लेकिन महत्वपूर्ण और दुर्जेय चीज़ हासिल करने के लिए चरम सीमा तक जा सकता है। सोचने के बजाय कुछ करने की चीज़ है। कोई विचार कुछ करने की क्रिया के रूप में आता है। संक्षेप में, यह उन्हें साकार करने के अवसरों के बिना एक निश्चित प्रकार के सामाजिक लोकतंत्रीकरण का प्रतीक है। इसे आकांक्षाओं को साकार करने के तरीक़े के रूप में देखा जा सकता है लेकिन सीमित रूप से। सिनेमा का मिजाज़ नैतिक उदाहरण स्थापित करने का ही नहीं है, बल्कि छोटी संभावनाओं की पहचान करने का कौशल है। यह महिमामंडित किए बिना उपलब्धि को लेकर है। यह बहुत जटिल है क्योंकि इसे रोज़मर्रा की सामान्यता से अर्थ और स्वभाव को निकालने की ज़रूरत होती है।
आज, ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्में केवल वही फ़िल्में हैं जो 1970 के दशक में बनीं और उस समय की घटनाओं को जोड़ती हैं। उनकी फिल्में समकालीन लगती हैं क्योंकि वे आम लोगों के सामने आने वाली छोटी लेकिन वास्तविक समस्याओं को दिखाती हैं। उनकी फिल्में यह कहती प्रतीत होती हैं कि जो अच्छा है वह एक संदर्भ के लिए विशिष्ट है और जो अभी बाक़ी है उसके लिए मददगार स्थान नहीं मिल सकता है। मुखर्जी की फ़िल्मों को परंपराओं के समर्थक या आलोचनात्मक के रूप में प्रस्तुत करना मुश्किल था। चाहे वे बदलाव चाहते हों या हमें चीज़ों के साथ तालमेल बिठाने के लिए कहा हो, वह एक समान रूप से अनिश्चित क्षेत्र था। लेकिन उनकी एक निश्चित शांत गति थी और साथ ही मधुर संगीत पर सेट की गई साधारण बातचीत जैसे गीतों के साथ गीत थे। यह एक ऐसी शैली है जिसे हासिल करना उतना ही मुश्किल है जितना कि यह स्थायी है।
छोटे शहरों के पात्रों पर बनी फ़िल्मों में स्थिति की जटिलता का मज़ाक उड़ाकर, खुद पर या नायक की नैतिक दुविधाओं का मज़ाक उड़ाकर मुक़ाबला करने की एक जैसी नज़र होती है। ये उस समय को जोड़ने वाले के प्रतीत होते हैं क्योंकि ये हमें हमारे द्वारा चुने गए तरीक़े से सोचने और कार्य करने की अनुमति देते हैं। ऐसा करने के लिए हमें मूर्ख -लाल सिंह चड्ढा-होने की ज़रूरत नहीं है। हम अधिक सजग तरीक़ों से संचालन कर सकते हैं। हम शक्ति और बुराई का विरोध करने के लिए तैयार हैं, लेकिन इस जागरूकता के साथ जो इसे बदल सकता है वह काल्पनिक नहीं होगा, बल्कि केवल प्रासंगिक और क्षणिक रूप से बेहतर होगा। यह हमें बेहद खुल्लमखुल्ला उल्लंघनों के साथ रहने और मेल-मिलाप करने की सामूहिक क्षमता भी देता है। हम बुराई को ख़त्म करने की जल्दी में नहीं हैं क्योंकि अच्छाई का जश्न मनाने में हमारी आंखों पर पट्टी नहीं बंधी है। हम ज़रूरी सहमति के बिना साथ खेलने को तैयार हैं।
मुझे संदेह है कि सूक्ष्म और जटिल इस संवेदनशीलता को समाहित करने वाली फिल्मों को एक अनुक्रियाशील दर्शक मिलेंगे। हमारी बुद्धि प्रतिबद्ध न रहने की हमारी क्षमता में निहित है। हम विवरण (जैसे नेटफ्लिक्स श्रृंखला के सेक्रेड गेम्स में) को रखने के लिए तैयार हैं यदि वे हमें कठोर वास्तविकता के बारे में बताते हैं और अगर यह मनोरंजन कराते हैं तो हम अपरंपरागत चीजों के साथ पूरी तरह से सही हैं। हम अभी भी उत्कटता चाहते हैं लेकिन उसमें खो जाने को तैयार नहीं हैं।
फ़िल्में और साहित्य सामूहिक अवचेतन के साथ गुंजायमान होने के सबसे क़रीब आते हैं। इन शैलियों में एक संकट बहुत महत्वपूर्ण अर्थ रखता है। इसलिए, हमें इनमें नई संवेदनशीलताओं को स्वीकार करना चाहिए। संस्कृति का बहिष्कार या रद्द करना कोई समस्या नहीं है क्योंकि यह प्रोपगैंडा संस्कृति के ख़िलाफ़ आक्रोश का परिणाम है। प्रोपगैंडा ने हमें एक अच्छा संशयवादी बना दिया है। हमने पिछले कुछ समय से टेलीविजन देखना बंद कर दिया है। अब बॉलीवुड की बारी है।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उनकी पुस्तक, पॉलिटिक्स, एथिक्स एंड इमोशंस इन 'न्यू इंडिया', 2022 में रूटलेज, लंदन द्वारा प्रकाशित की जाएगी। विचार व्यक्तिगत हैं।)
मूल रूप से अंग्रेज़ी प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः
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