झारखंड : “डिलिस्टिंग” के विरोध में “आदिवासी एकता महारैली” का ऐलान
यूं तो झारखंड राज्य में दिसंबर का अंतिम सप्ताह उत्सव भरा बीतता रहा है। प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में ‘क्रिसमस का त्यौहार’ धूमधाम से मनाया जाता है। यह एक प्रकार से सबका सामाजिक लोकोत्सव बन जाता है। लेकिन हाल ही में, जब से संघ परिवार के सामाजिक-धार्मिक संगठनों द्वारा “आदिवासियों की धर्मांतरण राजनीति” तेज़ की जा रही है, सामाजिक सौहार्द की स्थितियां लगातार तनावपूर्ण बनती जा रहीं हैं। क्रिसमस के ऐन मौके पर 24 दिसंबर को विगत तीन वर्षों से आयोजित होनेवाली “डिलिस्टिंग आदिवासी रैली” से सामाजिक विभाजन की स्थितयां कितनी तीखी बनायी जा रही है, स्पष्ट देखी जा सकती है।
लेकिन इस बार मामला इसलिए और भी जटिल होता जा रहा है क्योंकि कई आदिवासी संगठनों और सामाजिक जन संगठनों के साथ साथ भाकपा माले व अन्य वाम दल मुखर होकर ‘डिलिस्टिंग” के ख़िलाफ़ खड़े हो रहे हैं। सब का स्पष्ट आरोप है कि संघ-भाजपा द्वारा “डिलिस्टिंग” मुद्दे की आड़ में 2024 की चुनावी फ़सल काटने के लिए झारखंडी व आदिवासी समाज में सांप्रदायिक विभाजन पैदा कर वोट ध्रुवीकरण की सुनियोजित साजिश की जा रही है।
क्या है डिलिस्टंग?
यह भी विडंबना ही है कि जिस “डिलिस्टिंग” शब्द का इस्तेमाल इन दिनों राजनीति और समाज में धड़ल्ले से किया जा रहा है अब तक इसका इस्तेमाल आर्थिक कारोबार की दुनिया में होता रहा है। मसलन, किसी शेयर कंपनी ने स्टॉक एक्सचेंज से अपने सूचीबद्ध (लिस्टेड) शेयर्स को हिस्सा लेने से हटा लेती है यानि असूचीबद्ध (डिलिस्ट) कर देती है तो उसे डिलिस्टिंग कहा जाता है। क्या यह अफसोसनाक नहीं है कि “धंधे की दुनिया” में इस्तेमाल होने वाले शब्द से “राजनीति” किये जाने को देख, कोई भी जागरूक नागरिक सवाल उठा ही सकता है कि - उक्त शब्द का इस्तेमाल अब ‘राजनीति को धंधा” बनाने के लिए किया रहा है?
प्रदेश के चर्चित आदिवासी नेता बंधू तिर्की ने तो अपने संगठन झारखंड जन अधिकार मंच की ओर से “डिलिस्टिंग” एजेंडे के ख़िलाफ़ आदिवासियों के शक्ति प्रदर्शन के लिए “आदिवासी एकता महारैली” का आह्वान कर दिया है। वहीँ कई आदिवासी संगठनों ने डिलिस्टिंग-विरोध के तहत “लोकतंत्र बचाओ अभियान 2024” शुरू करने की घोषणा की है। संघर्ष मोर्चा ने भी झारखंड में संघ-भाजपा संचालित आदिवासी समाज में “सरना-ईसाई” का सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने की कोशिशों के विरोध में ज़मीनी सामाजिक जन अभियान चलाने की बात कही है।
क्या ही विडंबना है कि एक ओर, देश के प्रधानमंत्री खुद जाकर क्रिश्चन समुदाय के लोगों के सर्वप्रिय त्यौहार में जाकर कहते हैं कि - “ईसाई समुदाय के योगदान को गर्व से स्वीकारता है देश। ईसाई समुदाय ने देश के स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।” ये बातें उन्होंने इसी 24 दिसंबर को कहीं।
दूसरी ओर, 24 दिसंबर के दिन ही इन्हीं की पार्टी के पूर्व सांसद व झारखंड भाजपा के वरिष्ठ नेता के संरक्षण में आयोजित “डिलिस्टिंग आदिवासी रैली” करके ईसाई समाज को राजनीतिक निशाना बनाया गया। संघ-भाजपा निर्देशित कतिपय आदिवासी नेताओं द्वारा कार्यक्रम के मंच से आदिवासी के 'हिंदू' होने का दावा करते हुए कहा गया कि जो भी आदिवासी, ईसाई अथवा अन्य किसी धर्म में धर्मांतरित हो चुके हैं उन्हें आदिवासी श्रेणी से “डिलिस्ट” यानी बाहर कर दिया जाय। साथ ही उन्हें दिया जानेवाला आरक्षण समेत सारे संवैधानिक विशेषाधिकारों से भी बाहर रखा जाय।
उक्त प्रसंग में आदिवासी नेता बंधु तिर्की फिलहाल सबसे अधिक “मोर्चा” लेते हुए नज़र आ रहें हैं। जो ये खुलकर कह रहें हैं कि - झारखंड में गोडसे-सावरकर की विचारधारा नहीं चलेगी। “जनजातीय सुरक्षा मंच” को संघ-भाजपा का खुला संगठन बताते हुए उसके संरक्षक प्रदेश के वरिष्ठ भाजपा नेता कड़िया मुंडा की नीति और नीयत पर सवाल उठाते हुए पूछा है कि - झारखंड के आदिवासियों के हित का वास्ता देकर “डिलिस्टिंग” का सवाल उठाने से पहले उन्हें इस सवाल का जवाब देना होगा कि जिस आदिवासी समाज के लोगों ने उन्हें आठ बार देश के संसद में जिताकर भेजा तो उनके लिए उन्होंने आज तक किया क्या है? दूसरे, क्या वे नहीं जानते हैं कि झारखंड में आदिवासी समाज की यह खूबसूरती रही है कि गांव हो अथवा शहर, आदिवासी समाज के लोग हमेशा से आपसी मतभेदों को भुलाकर परस्पर सौहार्द के साथ निवास कर रहे हैं। हमारे अंदर धर्म के आधार पर कोई भेद नहीं रहा है। जितने भी आदिवासी समुदाय हैं सबकी अपनी अपनी पारंपरिक मान्यताएं अलग-अलग हैं लेकिन भाषा-संस्कृति सबकी एक रही है।
ऐसे में आज हमारे आदिवासी समाज में जब सांप्रदायिक विभाजन का ज़हर घोलने की कोशिश होगी तो क्या हमलोग चुप बैठकर तमाशा देखेंगे? ऐसा बिलकुल नहीं होगा। हमने पहले भी देखा है कि हर चुनाव से पहले संघ परिवार के निर्देश पर “वोटों के ध्रुवीकरण” के लिए सामाजिक विभाजन का ज़हर फैलाया जाता रहा है। इस बार भी जब 2024 में लोकसभा का चुनाव होना है तो अपने पक्ष में वोटों के ध्रुवीकरण करने के लिए ही पूरे ज़ोर-शोर से “डिलिस्टिंग” का मुद्दा उछाला जा रहा है।
अपने संगठन झारखंड जनाधिकार मंच के आह्वान पर आगामी फ़रवरी माह में की जानेवाली “आदिवासी एकता महारैली” का एकमात्र फोकस होगा - आदिवासी समाज के परंपरागत मुद्दों समेत जल, जंगल व ज़मीन जैसे सवालों पर जो कि आज अस्तित्व का संकट झेल रहे आदिवासी समाज के जीवन-मरण से जुड़ा सवाल है। झारखंड की मूल भावना से खिलवाड़ करने का अधिकार किसी भी संगठन अथवा नेता को नहीं दिया जा सकता है।
आदिवासी अधिकार संघर्ष मोर्चा ने भी सवाल उठाया है कि - डिलिस्टिंग का हौव्वा खड़ा करने वाले कतिपय आदिवासी संगठन-नेता बताएंगे कि आदिवासियों के “हिंदूकरण पर चुप्पी, ईसाइयत पर कोहराम” क्यों? पिछले दिनों जब प्रदेश भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रघुवर दास शासन द्वारा आदिवासी समुदायों के अधिकार-अस्तित्व-अस्मिता के प्रतीक “छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट” (सीएनटी) में असंवैधानिक संशोधन किया गया था तब ये जनजातीय सुरक्षा मंच कहां खड़ा था?
ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम की झारखंड इकाई समेत कई अन्य सामाजिक जन संगठनों ने भी आदिवासी समुदाय के लोगों से “डिलिस्टिंग चालों” के बहकावे में नहीं आने की अपील की है। साथ ही हाल ही में छत्तीसगढ़ में संपन्न हुए विधान सभा चुनाव में बस्तर जैसे आदिवासी बाहुल्य इलाकों में संघ-भाजपा द्वारा आदिवासी समुदाय का सांप्रदायिक फूट डालकर कर वोट की फ़सल काट लेने के हादसों से सावधान रहने को भी कहा है। कुछेक संगठनों ने तो राज्य के पुलिस प्रशासन को लिखित आवेदन देकर आदिवासी समाज में सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने की जारी गतिविधियों पर तत्काल रोक लगाने की भी मांग की है।
खबर यह भी है कि कई स्थानों पर भाजपा के आदिवासी नेताओं द्वारा आदिवासी को हिंदू घोषित किये जाने के ख़िलाफ़ काफी आक्रोश फ़ैल रहा है और वे जगह जगह विरोध-मार्च निकालकर उनके पुतले जला रहे हैं।
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