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हमारा समाज मंदिर के लिए आंदोलन करता है लेकिन अस्पताल के लिए क्यों नहीं? 

हम ढंग से न अपनी जिंदगी के प्रति सोचते हैं और न ही उस संस्था के प्रति जिसे हमारी जिंदगी को संवारने की जिम्मेदारी सौंपी गई है।
हमारा समाज मंदिर के लिए आंदोलन करता है लेकिन अस्पताल के लिए क्यों नहीं? 

मेरे गांव में कुछ दिन पहले सांप काटने की वजह से नौजवानी में कदम रख रहे एक साथी की असमय मौत हो गई। इस जीवन को बचाया जा सकता था। अगर नौजवान को सांप काटने के बाद जितनी जल्दी झाड़-फूंक करने वाले किसी ओझा के पास ले जाने की बजाय डॉक्टर के पास ले जाया गया होता। तब उसे मौत के मुंह से बचाने की संभावना बहुत अधिक होती। उसकी मौत के बाद भी परिवार के लोगों को संतोष नहीं हुआ तो वे लोगों के बताए उन जगहों पर भी लाश को लेकर पहुंचे, जिन जगहों के बारे में सुनी सुनाई बात है कि वहां जाने से मरे हुए व्यक्ति में भी जान आ जाती है।

जिंदगी बचाने की इन सारी कोशिशों को मैं अपनी आंखों से लगातार देख रहा था। कई मौकों पर यह कहा भी कि इसका कोई फायदा नहीं है तो कई मौकों पर यह सोचकर चुप भी रहा कि यह ढंग की सलाह देने का सही मौका नहीं है। लेकिन इस दौरान मैंने उस नौजवान और उसके परिवार को सांत्वना देने आए हर बड़े-बूढ़े से यही बात सुनी कि जब उसे यानी भगवान को बुलाना होता है, तब वह बुला लेता है। मौत अगर आनी है तो आनी है, इसे कोई नहीं रोक सकता। चाहे लाख दिमाग हो लेकिन उस समय दिमाग भी काम करना बंद कर देता है। मौत आती है और ले कर चली जाती है। वह जो ऊपर बैठा है, उससे ऊपर कोई नहीं। उसकी माया कोई नहीं जानता।

यह सारी बातें केवल वही नहीं कह रहे थे जिनकी जिंदगी का अधिकतर हिस्सा बीसवीं शताब्दी के अंतिम सालों में बीता है बल्कि वह भी कह रहे थे जिनके हाथों में मोबाइल है, जो 21वीं शताब्दी के मानवीय पता का हिस्सा है, जिन्होंने दसवीं और बारहवीं तक की स्कूली पढ़ाई की है।

कोई कह सकता है कि सारी बातें सांत्वना के लिहाज से सही है लेकिन 21वीं शताब्दी के लिहाज से सोचा जाए तो सांत्वना के इन्हीं शब्दों में समाज का बहुत बड़ा अपराध भी छिपा रहता है। लोग चुपचाप हकीकत के तौर पर इसे मानकर अपनाते रहते हैं, उन्हें पता भी नहीं चलता लेकिन सांत्वना के शब्द उनकी जिंदगी की आदत का हिस्सा बन जाते हैं। जब यह आदत बन जाती है तो लोग मरते रहते हैं लेकिन सवाल नहीं करते।

भारत की बहुत बड़ी आबादी में लोग इलाज की कमी से मर जाते हैं। महंगी दवाई और महंगा इलाज जान ले लेता है। संतुलित भोजन ना मिलने की वजह से शारीरिक और मानसिक कमजोरी से जूझते हुए उनकी जिंदगी एक दिन इस दुनिया को अलविदा कह देती है।

एनीमिया की कमी से भारत में हर तीन में से एक लड़की जूझती है। इन सब का दोष सरकार के माथे नहीं पड़ता किस्मत और ईश्वर के माथे पड़ता है। यह सब हमारे समाज का रोजाना का चलन है।

कोरोना के दौर में यह खुलकर सामने आ गया है। करोड़ों लोग यह कहते मिल जाएंगे कि मौत से कौन बचा सकता है, जब आएगी तब जाना पड़ेगा। इसका मतलब यह है कोरोना हमारे लिए इसलिए भी खतरनाक हुआ है क्योंकि हम पहले से ही एक ऐसी जिंदगी जीने के आदि हो चुके हैं, जिसमें कोरोना जैसी महामरियो से लड़ने के लिए न तो समाज की तरफ से कोई तैयारी है और न ही सरकार की संस्थाओं की तरफ से।

हम ढंग से न अपनी जिंदगी के प्रति सोचते हैं और न ही उस संस्था के प्रति जिसे हमारी जिंदगी को संवारने की जिम्मेदारी सौंपी गई है।

शिक्षाविद प्रोफेसर कृष्ण कुमार कहते हैं कि अपनी जिंदगी में घट रही घटनाओं के लिए किसी ऐसे विषय की इच्छा मानना जिसका कोई अस्तित्व नहीं है। इस किस्म की तर्क पद्धति घातक किस्म की अभिव्यक्ति होती है। जीवन के प्रति ऐसा नजरिया मानव जीवन की बारीकियों को समझने में नाकामयाब बना देता है। हमारी जिंदगी अचानक घटने वाली घटनाओं और खासकर दुर्घटनाओं से निपटने के लिए मानव जीवन के अर्थ की वृहद ढांचे की समझ की मांग रखती है। अगर ऐसा नहीं है तभी हमारी तरफ से सही प्रतिक्रिया नहीं हो पाती। 

शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र का पब्लिक सिस्टम के तौर पर न चलने की वजह से कोरोना के समय में हमारे समाज में घुली हुई अनगिनत दिक्कतें सतह पर तैरने लगी हैं। आजादी के शुरुआती दशकों में प्राथमिक स्तर पर विज्ञान की पढ़ाई करवाने का यही मकसद था कि लोगों में बीमारी की रोकथाम और स्वास्थ्य के प्रति बुनियादी समझ विकसित की जा सके।

लेकिन विज्ञान की पढ़ाई का मतलब यह नहीं होता कि केवल विज्ञान की पढ़ाई करवाई जाए, यह बताया जाए कि ऐसा क्या करना चाहिए कि परीक्षा में अच्छे से अच्छे अंक हासिल हो बल्कि इसका मतलब यह है कि इस तरह से पढ़ाया और समझाया जाए कि बच्चों में विज्ञान पर भरोसा हो सके। वैज्ञानिक मानसिकता उनकी आदत का हिस्सा बन सके। यह नहीं होता है। परीक्षा के लिए पढ़ा जाता है, नंबर हासिल किए जाते हैं, अगली क्लास में बढ़ा जाता है और सब कुछ भूल जाया जाता है।

इसे एक उदाहरण के तौर पर समझिए कि हमारे आस पास बहुत सी बीमारियां गंदे पानी की वजह से होती है। रुके हुए पानी की वजह से होती है। जिन बच्चों को पढ़ने का मौका मिला है उनमें से अधिकतर बच्चे यह बात जानते भी हैं कि गरम पानी करने पर उसके भीतर के जीवाणु मर जाते हैं। यह अगर परीक्षा में सवाल बनकर आए तो वह इसका जवाब भी दे देंगे। लेकिन इतना सब होने के बावजूद इन बच्चों को यह भरोसा नहीं होता है कि पानी गर्म करने पर जीवाणु मर जाएंगे। न ही उनके दिमाग की आदत होती है कि वह इस तरीके से अपने रोजाना के जीवन में भी सोचें। 

यह भरोसा और आदत न होने के पीछे दो वजहें होती हैं। एक तो कई जगहों और स्कूलों में प्रयोगशाला नहीं होती है कि बच्चे पानी के अंदर जीवाणुओं को मरते हुए देख सकें। लेकिन इससे भी बड़ी दूसरी वजह होती है। दूसरी वजह है कि मौजूदा समाज किस आधार पर अपनी जिंदगी व्यतीत कर रहा है। आसपास और नजदीक के लोगों का भरोसा किस पर है? वह लोग क्या कर रहे हैं, जिन्हें लोक कल्याण करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है? 

मनोविज्ञान के लोग कहते हैं कि इंसान उसी को अपनी जीवनशैली का हिस्सा बनाता है जिस पर वह भरोसा करता है। लोग इसीलिए कई बार यह कहते हुए पाए जाते हैं यह सारे किताबी बातें हैं, जीवन ऐसे नहीं चलता। बहुतेरे लोग किताबों और शिक्षकों से ज्यादा समाज के व्यवहार पर भरोसा करते हैं। समाज पर इसलिए भरोसा करते हैं क्योंकि वह दिन प्रतिदिन उनके सामने साक्ष्य के तौर पर घटित होता हुआ दिखता है। लेकिन किताबी बातें महज किताबी बातें हो जाती हैं।

इसीलिए ढंग के नंबर पाकर परीक्षा पास करने वाले विद्यार्थी भी अपने जीवन में दहेज लेते हैं। अंधविश्वास पर यकीन करते हैं। जाति व्यवस्था के सामने झुक जाते हैं। धर्म के मर्म के बजाय उससे पैदा होने वाली अलगाव से अपनापन जोड़ पाते हैं।  

इन पैमानों पर देखा जाए तो कोरोना की इस महामारी के दौर में यह जानते हुए भी कि भीड़भाड़ वाली जगहों पर कोरोना का संक्रमण अधिक होगा समाज के बहुतेरे लोग शादी ब्याह के आयोजनों में शामिल हो रहे हैं। कई प्रवासी मजदूर शहर छोड़कर अगर इसलिए आ रहे हैं कि गांव में थोड़ी सी सहूलियत मिलेगी तो कई ऐसे भी हैं जो शहर छोड़कर गांव में इसलिए आ रहे हैं कि शादी ब्याह के आयोजनों में शामिल होना है। 

प्रधानमंत्री खुद थाली बजाकर कोरोना भगा रहे थे। स्वास्थ्य मंत्री डार्क चॉकलेट खिलाकर कोरोना से बचने की सलाह दे रहे हैं। तो इन नेताओं के साथ चलने वाले सहकर्मी नेता कहीं पर गोबर की लेप लगाकर कोरोना से सुरक्षित होने का ऐलान कर रहे हैं तो कहीं पर गोमूत्र पीकर सबको बता रहे हैं कि इसके बाद कोरोना नहीं होने वाला।

अगर समाज का अधिकतर व्यवहार अतार्किक है। सहमति असहमति वाद विवाद से होते हुए निष्कर्ष वाला नहीं है। तो उस समाज के लिए बहुत मुश्किल है कि उसके अंदर वैज्ञानिक चेतना का विकास हो पाए।

यह नहीं होता है तभी कई तरह की समस्याएं ऐसी पैदा होती हैं जो समाज और उस व्यक्ति दोनों के लिए घातक होती हैं।

अंत में जरा सोचिए आखिर क्यों है कि आप अधिकतर लोगों से पूछें तो वह कहेंगे कि शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था सरकार कर दे तो बहुत अच्छा हो लेकिन ऐसा सोचने और समझने के बाद भी आज तक इस पर कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ। पूरा समाज इस बात से आंदोलित क्यों नहीं हुआ जो बात उसके जीवन दशा को सुधारने और मौत के मुंह से बचाने के लिए सबसे अधिक जरूरी है? जबकि दूसरे कई विषयों पर बड़े महत्वपूर्ण आंदोलन हो चुके हैं। इसकी वजह यही है कि समाज, शिक्षा और स्वास्थ्य के महत्व को जानता है, इसके बारे में सोचता भी है लेकिन समाज की वैज्ञानिक और तार्किक चेतना बहुत कमजोर है। जीवनशैली का आधार केवल सामाजिक मान्यताएं और मापदंड है। ऐसे में वह कोरोना से बचने के कारणों की छानबीन में इस निष्कर्ष तक नहीं पहुंचता कि अगर उसके जिले में ढंग का एक अस्पताल नहीं है तो मर भी सकता है बल्कि यही सोचकर जीता है कि सबसे बड़ा वह ईश्वर है। वह जो चाहेगा वही होगा। उसके बिना पत्ता भी नहीं हो सकता। इसलिए राम मंदिर बनाने के लिए आंदोलन होते हैं लेकिन अस्पताल बनाने के नहीं।

अगर कोई इतना सोच भी ले तो सबसे ज्यादा महत्व पैसे को देने लगता है, जहां उसे लगता है कि केवल उसके पास पैसा हो तो उसे किसी बात की परेशानी नहीं होगी। 

लेकिन इस कोरोना संकट ने लोगों को कई सबक दिए हैं, अगर वो सीख सकें तो...

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