महामारी के बीच राम मंदिर समारोह के पीछे भाजपा का मक़सद क्या है?
मौजूदा सरकार का पांच अगस्त को अयोध्या में राम मंदिर के लिए भूमि पूजन (मिट्टी की पूजा) की रस्म के दृश्य को एक मुकम्मल तरीक़े से निष्पादित किये जाने का जुनून क्या दिखाता है? केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के पॉज़िटिव पाये जाने और कम से कम दो कैबिनेट मंत्रियों के इस समारोह से ख़ुद को अलग किये जाने के फ़ैसले के बाद भी कोविड-19 महामारी के बीच इस समारोह की अनुमति देने और इसमें सहयोग करने के सरकार के इस फ़ैसले का क्या मतलब है? आने वाले दिनों में योजनाबद्ध तरीक़े से मंदिर निर्माण के बहुत सालों बाद मंदिर को लेकर संघ परिवार की धारणा को आगे बढ़ाने के नज़रिये से इस घटना का मूल्यांकन कैसे किया जायेगा? क्या इसे एक ऐसे अध्याय के बंद होने के तौर पर देखा जायेगा, जिसने बहुत ज़्यादा रक्तपात होते देखा है, या फिर यह एक ऐसे नये अध्याय की शुरुआत के तौर पर सामने आयेगा, जिसकी कथा की दशा-दिशायें अब एकदम दुरुस्त हो चुकी हैं?
इन सवालों का जवाब देने से पहले भारतीय जनता पार्टी के उस दावे को समझना बहुत ज़रूरी है,जब 1991 में सत्ता के सामने एक गंभीर चुनौती के रूप में उभरने के बाद उसने बार-बार कहा था कि वह "इकलौते मुद्दे वाली पार्टी" नहीं है। वास्तव में इसका मतलब यह था कि हालांकि राम मंदिर बनाने की मांग को लेकर वह कट्टर तो है, लेकिन पार्टी का दूसरे मामलों से भी सरोकार है। 'इस समय' भूमि पूजन किये जाने का मतलब है कि सरकारी एजेंसियों और उनके बीच के तालमेल का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है, ऐसे में किसी तरह के बड़े जोखिम का भी कोई मतलब नहीं नहीं रह जाता है,ये इस बात को दर्शाता है कि भाजपा का जुनूनी लगाव इस एक केंद्रीय मुद्दे को लेकर उसी तरह बना हुआ है,जिस तरह पिछले 28 सालों से बना रहा है।
यह महज़ संयोग नहीं है कि इस समारोह की तारीख़ वही चुनी गयी है,जो अनुच्छेद 370 के निरस्त होने की पहली वर्षगांठ की तारीख़ है। एक स्तर पर अयोध्या के समारोह के शोरगुल में घाटी से उठने वाली संभावित विरोध की आवाज़ गुम हो जायेगी। लेकिन, इससे भी अहम बात यह है कि पिछले साल जम्मू-कश्मीर को उसके राज्य का दर्जा और विशेष दर्जा को ख़त्म किये जाने के सरकार के उस क़दम से इस धार्मिक-सांस्कृतिक एजेंडे के मुद्दे को जोड़ने की कोशिश है। यह इन दो मुद्दों को तो जोड़ता ही है, साथ ही मुसलमानों में प्रचलित सामान्य तौर पर तीन तलाक़ के रूप में जाने जाने वाले फ़ौरन तलाक़ को आपराधिक बनाने वाले 'ऐतिहासिक' फ़ैसले से भी जोड़ता है, जिसका अहम मक़सद मुसलमानों के बीच यह संदेश देना है कि वे भारतीय नागरिक तो हैं,मगर दूसरों के मुक़ाबले कमतर हैं। कश्मीर और अयोध्या अभियान पर फ़ैसले न सिर्फ़ धार्मिक अल्पसंख्यकों, बल्कि संघ परिवार की विश्वदृष्टि से असहमति रखने वाले हिंदुओं पर भी आधिपत्य का दावा करने के विचार से प्रेरित थे।
इस बदलती वास्तविकता की भावना को लम्बे समय से महसूस की जाती रही है। कई लोगों का यह दावा हो सकता है कि अपने इरादों के बावजूद भारतीय गणराज्य के संस्थापक प्रगतिशील समूह दो समुदायों को जोड़ने और वास्तव में धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था का निर्माण करने में असमर्थ रहे। पहले लोकसभा चुनावों के बाद से विधायिका में अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व का मुद्दा हमेशा 'समायोजित' किये जाने जैसा ही रहा है। विधानमंडलों में मुस्लिम राष्ट्रवादियों का चुनाव सुनिश्चित करने को लेकर 'औचित्य' का सहारा लिया गया था, यहां तक कि अग्रणी नेता, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को कांग्रेस पार्टी ने उस रामपुर और गुड़गांव चुनाव क्षेत्र से चुनावी मैदान में उतारा था, जहां बड़ी संख्या में मुसलमानों की मौजूदगी उनके चुने जाने का आधार बनी थी।
लेकिन, भाजपा ने 1980 के दशक में राम जन्मभूमि आन्दोलन के ज़रिये एक हिन्दू चुनावी निर्वाचन क्षेत्र का निर्माण किया, हालांकि 2014 के बाद से पार्टी लगातार सत्ता में है, और यहां तक का सफ़र तय करने में उसे क़रीब ढाई दशक लगे। यह भी अपने आप में एक अजीब बात है कि औपनिवेशिक भारत में मुस्लिम लीग को भी 1920 के दशक में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाने और फिर 1946 के चुनावों में पूरी तरह चुने जाने के बीच क़रीब इतना ही समय लगा था। भाजपा और उसके समर्थकों के सामने जब देश को हिंदू पाकिस्तान की तरह रखा जाता है, तो वे तिलमिला जाते हैं, लेकिन आख़िरकार उन्होंने इस देश को इसी शक्ल में बदल दिया है, जिसे पाकिस्तानी शायरा, फ़हमीदा रियाज़ अपनी कविता में अपनी पीड़ा के साथ कुछ इस तरह बयां करती हैं: ‘दोस्त, तुम हम जैसे निकले...”।
एक मनोवैज्ञानिक स्तर पर, 'अन्य' को एक बराबर वाले वजूद और ख़ुद के लिए ख़तरा मानते हुए 'अन्य' पर वर्चस्व स्थापित करने की तड़प, जातीय दरार के कारण अपने भीतर एकता को नहीं बना पाने वाली असमर्थता का सुबूत है। भाजपा ने इसी फ़र्क़ और इस अव्यक्त भावना का फ़ायदा उठाया है कि यदि विभाजन 'पूर्ण' होता, तो बेहतर होता और यह राष्ट्र भी अपने पश्चिमी पड़ोसी को प्रतिबिंबित करता हुआ हिंदू धर्म से निहित संविधान बनाता।
हालांकि यह संदिग्ध है, मगर अयोध्या में विवादित भूमि को क़ानूनी रूप से हासिल करके, साधन और संवैधानिक प्रक्रियाओं द्वारा देश के बाकी हिस्सों के साथ जम्मू और कश्मीर के मूल चरित्र और सम्बन्ध को बदलकर, इस सरकार ने यह दिखा दिया है कि एक लचीली न्यायपालिका से थोड़ी सहायता के साथ संविधान के मोर्चे पर छेड़छाड़ करते हुए इसकी राजनीति और इस गणराज्य की कायापलट मुमकिन है। यह नागरिकता संशोधन अधिनियम के लागू होने और इसे लेकर न्यायपालिका की अब तक की प्रतिक्रिया के दौरान और साफ़ हो गया है। सिविल सोसाइटी के सदस्यों पर झूठे आरोप लगाये गये और भारतीय राजधानी में सांप्रदायिक दंगों के उकसाने के मामले दर्ज किये गये हैं। यह सब संस्थानों को खोखला करके और 'देश-विरोधी' का काल्पनिक नेटवर्क बनाकर मौजूदा क़ानून का इस्तेमाल करते हुए संस्थानों की शक्ति और अधिकार को कमज़ोर बनाना उसकी रणनीति का हिस्सा है।
राम मंदिर के भूमि पूजन को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए, और इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मार्च में राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के लागू होने के कुछ घंटों के भीतर और केन्द्र सरकार के बनाये गये नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए राम लला की मूर्ति को स्थानांतरित करने में अहम भूमिका निभायी थी। अगर गहरी जांच-पड़ताल की जाय, तो पता चलेगा कि अयोध्या में जो समारोह चल रहा है, उसमें भी अन्य कई नियमों, ख़ासकर विभिन्न संगठनों और आस्था वाले लोगों के लिए लागू अनेक नियमों की धज्जियां उड़ायी जा रही हैं।
आने वाले वर्षों में जब राम मंदिर के निर्माण के पूरे कालक्रम को लिखा जायेगा, तो मुमकिन है कि इस आयोजन के बाद जो कुछ भी बचेगा, वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शो स्टार होने का बस फ़ोटो-फ़्रेम होगा। यह भी एक अजीब बात है कि जिस दिन बर्लिन की दीवार तोड़ी गयी थी, उसी दिन यानी 9 नवंबर, 1989 को अयोध्या में मंदिर का शिलान्यास किया गया था, मुमकिन है कि मौजूदा शिलान्यास समारोह उस शिलान्यास वाली घटना के साथ मिलकर भ्रम पैदा करे, जिस घटना ने राम मंदिर के मुद्दे को धार्मिक मांग से राजनितक मक़सद में बदल दिया था।
यह 'नियति' का एक मोड़ ही है कि जिस समय योगी इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एक अहम शख़्सियत के तौर पर सामने होंगे और शायद आने वाले समय में और भी ज़्यादा मज़बूत बनकर उभरेंगे, उस समय अमित शाह वहां नहीं होंगे। हालांकि, भविष्य के सहानुभूतिवादी इतिहासकारों को मंदिर आंदोलन के शिल्पकार आडवाणी के नाम को इस बनते हुए इतिहास से हटाया जाना अजीब लगता है, मगर मौजूदा नेतृत्व ऐसा ही चाहता है। मोदी की मौजूदगी उनकी इस कमज़ोरी का सुबूत है कि मोदी अयोध्या के नायकों की फ़ेहरिस्त में अपनी जगह को सुरक्षित रखने का वह मौक़ा गंवाना नहीं चाहते, जो अतीत में कई मौक़ों पर कठिन दिखाई देता था, मगर जिसे उन्होंने मुमकिन कर दिखाया है।
नीलांजन मुखोपाध्याय दिल्ली स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं। 1994 में प्रकाशित,’ द डिमोलिशन: इंडिया एट द क्रॉसरोड' उनकी पहली पुस्तक थी। वह इस समय इसी मुद्दे पर एक नयी किताब लिख रहे हैं। उनका ट्विटर एकाउंट है- @NilanjanUdwin
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
What Is BJP’s Motive Behind Ram Temple Ceremony Amid Pandemic
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