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राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व बढ़ाने को लेकर सरकार का गोलमोल जवाब, क्या कभी पास होगा महिला आरक्षण बिल?

शासन के अलग-अलग स्तरों पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व के सावल पर कानून मंत्री किरन रिजिजू का जवाब आया कि सूचना एकत्रित की जा रही है और सदन के पटल पर रख दी जाएगी। मंत्री जी का ये जवाब शायद कोशिश है पूरे मामले को ठंडे बस्ते में ही रहने देने की।
women in politics
Image courtesy : Indiatimes

संसद के मौजूदा मानसून सत्र में गुरुवार, 28 जुलाई को कांग्रेस सांसद डॉक्टर फौज़िया ख़ान ने संसद में महिलाओं की संख्या बढ़ाने यानी राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने को लेकर केंद्र की मोदी सरकार से सवाल पूछा। डॉक्टर फौज़िया के सवाल नए नहीं थे, महिला आरक्षण बिल को लेकर बीते कई सालों से मोदी सरकार अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर रही। बार-बार महिला हितैषी होने का दावा करने वाली मोदी सरकार इस मामले पर अक्सर चुप्पी ही साधे नज़र आती है।

दरअसल, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सांसद डॉक्टर फौज़िया ख़ान ने राज्यसभा में चार सवाल पूछे थे। इसमें पहला सवाल था कि क्या भारतीय संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मौजूदा प्रतिशत अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इंगलैंड, डेनमार्क और आयरलैंड जैसे लोकतांत्रिक देशों और देश में इनकी आबादी की तुलना में बहुत ही कम है? दूसरा सवाल था कि अगर हां, तो इसके क्या कारण हैं?

फौज़िया ख़ान का तीसरा सवाल था देश की अलग-अलग विधानसभाओं और स्थानीय स्वशासनों में महिला प्रतिनिधियों की संख्या कितनी है? चौथा, क्या सरकार का इरादा है संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने का?

कुल मिलाकर देखें तो फौज़िया ख़ान शासन के अलग-अलग स्तरों पर महिलाओं के प्रतिनिधत्व की जानकारी चाहती थीं। मोटे तौर पर आसान भाषा में महिला रिज़र्वेशन बिल के मुद्दे पर रोशनी चाहती थीं लेकिन हर बार कि तरह इस बार भी इस मामले पर सरकार का जवाब निराशाजनक ही नहीं अजीब भी रहा। केंद्र की ओर से कानून मंत्री किरन रिजिजू ने अपने आधिकारिक जवाब में लिखा, 'सूचना एकत्रित की जा रही है और सदन के पटल पर रख दी जाएगी।'

सरकार महिला आरक्षण बिल को ठंडे बस्ते से नहीं चाहती निकालना

मंत्री जी का ये जवाब थोड़ा हैरान परेशान करने वाला है, या यूं कहें कि वो पूरे मामले को ही ठंडे बस्ते से नहीं निकालना चाहते। वैसे महिला अधिकारों पर लंबे-चौड़े भाषण देने वाली बीजेपी, महिला सशक्तिकरण के नाम पर वोट मांगने वाली बीजेपी अक्सर महिला आरक्षण बिल पर कन्नी ही काटती दिखती है, जबकि वो सदन में अपने बहुमत से पहले ही कई विवादित बिल पास करवा चुकी है।

इस समय देश को पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति मिली हैं, इस पहचान को बीजेपी ख़ूब भुनाने में लगी है। बीजेपी महिलाओं के लिए पार्टी और सरकार की तरफ़ से किए गए काम की लिस्ट गिनाने से नहीं थकती। फिर चाहे उज्ज्वला योजना का लाभ हो या फिर आवास योजना में घर महिलाओं के नाम करने की बात हो। आज बीजेपी अपने अकेले के दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार चला रही है। बावजूद इसके महिलाओं की बरसों पुरानी 33 फीसदी आरक्षण की मांग को क़ानूनी जामा नहीं पहनाया गया है। महिलाओं के हक़ की अब तक की सबसे बड़ी लड़ाई- महिला आरक्षण बिल पास कराने में बीजेपी की कोई पहल नहीं दिखाई देती।

राज्य सभा से पास लेकिन लोकसभा में अटका

बता दें कि साल 1996 में महिला आरक्षण बिल को पहली बार एच.डी. देवगौड़ा में नेतृत्व वाली सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया था। लेकिन देवगौड़ा की सरकार बहुमत से अल्पमत की ओर आ गई जिस कारण यह विधेयक पास नहीं कराया जा सका। फिर साल 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने लोकसभा में फिर से यह विधेयक पेश किया। लेकिन गठबंधन की सरकार में अलग अलग विचारधाराओं की बहुलता के चलते इस विधेयक को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। साल 1999, 2002 और 2003 में इस विधेयक को दोबारा लाया गया लेकिन रूढ़िवादी नतीजा टस से मस नहीं हुआ।

साल 2008 में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं में 33 फ़ीसद महिला आरक्षण से जुड़ा 108वां संविधान संशोधन विधेयक संसद के उच्च सदन राज्यसभा में पेश किया जिसके दो साल बाद साल 2010 में तमाम तरह के विरोधों के बावजूद यह विधेयक राज्यसभा में पारित करा दिया गया। लेकिन लोकसभा में सरकार के पास बहुमत होने के बावजूद यह पारित न हो सका। तब से लेकर अब तक यह विधेयक सरकारी पन्नों में कहीं खो गया है जिसकी जरूरत पुरुषप्रधान राजनीति में महसूस नहीं की गई। महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पेश किए जाने के कारण यह विधेयक अभी भी जीवित है जिसमें अभी की केंद्र सरकार चाहे तो बहुत ही आसानी से इसे पास करा सकती है।

वैसे राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने की बातें बढ़-चढ़ कर की जाती हैं लेकिन सच्चाई यह है कि विधानसभाओं और पंचायती राज संस्थानों में उनकी हिस्सेदारी बढ़ने की बजाय घट रही है। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की ओर से सतत विकास के लक्ष्यों की प्रगति को लेकर हाल में जारी एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि पंचायती राज संस्थानों में वर्ष 2014 में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 46.14 फीसदी था, जो वर्ष 2019 में घटकर 44.37 फीसदी रह गया। वहीं, शहरी निकायों में 2019 में महिलाओं की हिस्सेदारी 43.16 फीसदी पाई गई। हालांकि, इसका 2014 का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में विधानसभाओं की 11 फीसदी सीटों पर महिलाएं काबिज थीं। वर्ष 2020 में भी यह स्थिति कायम रही। लेकिन 2021 में यह हिस्सेदारी घटकर नौ फीसदी रह गई। लोकसभा में हालांकि, महिला सांसदों की हिस्सेदारी बढ़ी है। 2014 में जहां उनके पास 11.42 फीसदी सीटें थी वहीं 2019 में यह 14.36 तक पहुंच गई। हालांकि चुनाव मैदान में उतरने वाली महिलाओं की संख्या पुरुषों की अपेक्षा बहुत कम है। 2014 में जहां कुल उम्मीदवारों में महिलाएं 8.19 फीसदी थी, वहीं 2019 में इसमें मामूली बढ़ोतरी हुई और आंकड़ा नौ फीसदी तक ही पहुंचा। इस हिसाब से से देखा जाए तो महिलाओं की जीतने की दर काफी अच्छी है, बशर्ते उन्हें आगे बढ़ने का मौका मिले।

महिलाओं के वोट की राजनीति

गौरतलब है कि भारतीय संसदीय व्यवस्था में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के संकट को मौजूदा महिला सदस्यों की संख्या के आधार पर आसानी से समझा जा सकता है। इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन के मुताबिक वैसे भी राष्ट्रीय संसदों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में पूरी दुनिया में भारत का 148वां स्थान है। चीन 46वें स्थान पर, बांग्लादेश 111वें और पाकिस्तान 116वें स्थान पर हैं।

भारतीय संसद के दोनों सदनों में कुल मिला कर 788 सदस्य हैं जिनमें से सिर्फ 103 महिलाएं हैं, यानी सिर्फ 13 प्रतिशत। राज्य सभा के 245 सदस्यों में से सिर्फ 25 महिलाएं हैं, यानी लगभग 10 प्रतिशत। लोक सभा में 543 सदस्यों में से सिर्फ 78 महिलाएं हैं, यानी 14 प्रतिशत. केंद्रीय सरकार में भी सिर्फ 14 प्रतिशत मंत्री महिलाएं हैं।

विधान सभाओं में तो स्थिति और बुरी है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में को 4,120 विधायकों में से सिर्फ नौ प्रतिशत विधायक महिलाएं हैं। पार्टियां महिलाओं को चुनाव लड़ने का अवसर भी कम देती हैं।

चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 2002 से 2019 तक लोक सभा चुनावों में लड़ने वाले उम्मीदवारों में से 93 प्रतिशत उम्मीदवार पुरुष थे। इसी अवधि में विधान सभा चुनावों में यह आंकड़ा 92 प्रतिशत था। यानी महिलाएं दूर-दूर कर बराबरी के अंकों से दूर ही नज़र आती हैं। कल्पना कीजिए सिर्फ 33 फ़ीसद आरक्षण के लिए इसे संसद में सहयोग नहीं मिल पा रहा है फिर बाकी के महिलाओं के मामलों में हम सरकार से क्या उम्मीद रखेंगे? इस बात की गंभीरता को इससे भी समझा जा सकता है कि 2014 चुनावों से पहले भारी भरकम वायदों की सूची को घोषणा पत्र में शामिल करने वाली केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी की सरकार ने महिला आरक्षण बिल को भी पारित करने का वादा किया था लेकिन साल 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने यह मुद्दा अपने संकल्प पत्र में शामिल करना ज़रूरी तक नहीं समझा। ये विडंबना ही है कि दिवंगत पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस बिल की सबसे प्रमुख पैरोकारों में एक थीं। लेकिन आज 2022 में ये उनकी पार्टी बीजेपी दूसरी बार सत्ता में भारी बहुमत से काबिज़ है लेकिन आधी आबादी के हक़ महिला आरक्षण बिल पर चुप्पी साधे हुए है।

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