रामपुर उपचुनाव के ख़ौफ़नाक संकेत
हाल में हुए रामपुर उपचुनाव में भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिये खौफनाक सन्देश छिपे हुए हैं। जाहिर है गोदी मीडिया में इस पर कोई खास चर्चा नहीं है, लेकिन विपक्षी दल भी इसको लेकर गम्भीर नहीं हैं, यह चिंता का विषय है। तमाम राजनीतिक विश्लेषक गुजरात, हिमाचल, दिल्ली MCD पर तो गहन चर्चा में लगे हैं, लेकिन रामपुर पर सन्नाटा पसरा हुआ है।
गुजरात में भाजपा की रिकॉर्ड सीटों पर जीत की चर्चा तो हो रही है, लेकिन एक बड़ा इतिहास रामपुर में भी बना है। 1952 के बाद हुए 19 चुनावों में यह पहला मौका है जब रामपुर में कोई गैर-मुस्लिम उम्मीदवार जीता है। यह महत्वपूर्ण इसलिये है क्योंकि रामपुर कश्मीर के बाहर देश के उन चंद क्षेत्रों में है जहां मुस्लिम आबादी 50% से अधिक है, लगभग 65%। स्वाभाविक है वहाँ आमतौर पर विभिन्न दल मुस्लिम उम्मीदवार खड़े करते रहे हैं और उनमें से ही कोई जीतता रहा। यहां तक कि UP में कोई मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा न करने वाली भाजपा को भी एक समय रामपुर से मुख्तार अब्बास नकवी को खड़ा करना पड़ा था।
पर इस बार 75 साल का वह इतिहास बदल गया। भाजपा के आकाश सक्सेना ने सपा के आसिम रजा को भारी अंतर से हरा दिया। सक्सेना को 62% मिला जबकि आसिम रजा को मात्र 36% !
यह चमत्कार कैसे हुआ, इसकी कहानी रामपुर में मतदान के आँकड़े खुद ही बयान करते हैं। रामपुर विधानसभा में जहां इसी साल फरवरी 2022 में 56.65% वोट पड़ा था, इस बार मात्र 33.97% मतदान हुआ। जबकि बगल में खतौली में 57% मतदान हुआ।
बहरहाल, इस कहानी का असल सच तब सामने आता है जब आप इस मतदान का break-up देखते हैं।
मुस्लिम-बहुल शहरी क्षेत्र में कुल मतदान मात्र 28% हुआ, जबकि हिन्दू-बहुल ग्रामीण क्षेत्र में 46%!, फिर रामपुर शहर के अंदर जहाँ हिन्दू-बहुल केंद्रों पर मतदान 46% था, वहीं मुस्लिम-बहुल क्षेत्र में मात्र 23% ! मुस्लिम- बहुल कई बूथ पर मतदान 4%, 5%, 7% तक ही रहा ! जबकि हिन्दू-बहुल क्षेत्र के बूथ पर अधिकतम मतदान 74% तक रहा और न्यूनतम 27% ।
मुस्लिम समुदाय के आश्चर्यजनक ढंग से बेहद कम मतदान के पीछे के असली कारणों को छिपाने के लिए तमाम झूठे तर्क गढ़े जा रहे हैं। जले पर नमक छिड़कने वाला सबसे बड़ा मजाक तो भाजपा के विजयी प्रत्याशी आकाश सक्सेना ने किया, " यह एक नए युग का आगाज़ है। 64% मुस्लिमों ने योगी सरकार पर भरोसा जताया है। इससे साफ है कि रामपुर ही नहीं पूरे प्रदेश में मुस्लिम अब सुरक्षित महसूस करते हैं। " विडंबना है कि इस तरह चुनाव जीतने के बाद उन्होंने यह जोड़ दिया, " अब हम बंद कारखाने खुलवाएंगे और रोजगार पैदा करेंगे। "
कहानी गढ़ी जा रही है कि आजम खान के साथ जो हुआ है उसकी वजह से नाराज मुसलमानों ने चुनाव का बहिष्कार किया, इसलिए मतदान कम हुआ। यह तर्क हास्यास्पद है। सच यह है कि लोग उसके प्रतिकार के लिए और भी शिद्दत से भाजपा को हराना चाहते थे। ठीक इसी तरह, पसमांदा मुसलमानों के भाजपा के साथ जाने का मिथ खड़ा किया जा रहा है, जैसे कभी तीन तलाक के कारण मुस्लिम महिलाओं के भाजपा के पक्ष में जाने का झूठ गढ़ा गया था। नवाब काज़िम अली जैसे आज़म खान विरोधी नेताओं के भाजपा के साथ जाने या सपा उम्मीदवार आसिम रजा के शम्सी मुसलमान होने के कारण वहां के बड़ी संख्या वाले खान और सैयद मुसलमानों के उनके साथ न जाने का बहाना बनाया जा रहा है।
जाहिर है यह पूरा सच नहीं है और यह झूठ का महल रामपुर के खौफनाक सच को सात पर्दों के अंदर ढक देने के लिए खड़ा किया जा रहा है।
बहरहाल, सच्चाई अब पूरी दुनिया के सामने उजागर हो चुकी है- वहां के मतदाताओं का आरोप है कि सरकारी मशीनरी और सुरक्षा बलों का दुरुपयोग करते हुए बड़े पैमाने पर मुस्लिम मतदाताओं को मतदान से वंचित कर दिया गया। टीवी चैनल और सोशल मीडिया में ऐसे वीडियो वायरल हो रहे हैं जिसमें मुस्लिम इलाकों के चौराहों पर उच्च-अधिकारियों के साथ भारी बल मौजूद है और लोग आरोप लगा रहे हैं कि उन्हें मतदान-केन्द्र तक जाने नहीं दिया जा रहा है। भय और आतंक का ऐसा माहौल बनाया गया कि बुर्काधारी महिलाओं समेत तमाम मतदाताओं के लिए मतदान-केन्द्र तक पहुंचना असम्भव हो गया। शायद वहां इतने मुसलमानों को ही वोट देने दिया गया जितने से भाजपा की smooth victory में विघ्न-बाधा न पड़े !
सच तो यह है कि रामपुर में अभी जो हुआ है, इसका रिहर्सल कुछ महीने पहले रामपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में ही हो गया था। इस चुनाव में वह उरूज पर पहुंच गया।
विपक्ष के कद्दावर नेता आज़म खां को केंद्र कर पिछले सालों में जो हुआ है ( जिस पर सर्वोच्च न्यायालय को भी टिप्पणी करनी पड़ी थी ), और अंततः जिस तरह रामपुर को आज़ादी के बाद के 75 साल से जारी मुस्लिम प्रतिनिधित्व से वंचित कर दिया गया है और पहली बार वहाँ कमल खिला दिया गया है, उससे यह सवाल उठना लाज़मी है कि क्या हम रामपुर में भविष्य के ऐसे क्षेत्रों के चुनावों की झांकी देख रहे हैं ? क्या रामपुर आने वाले दिनों का चुनावों का नया template बनेगा ? क्या रामपुर संघ-भाजपा के लिए चुनाव के एक नए पैटर्न का टेस्टिंग ग्राउंड है, गुजरात मॉडल के आगे का UP संस्करण ?
क्या देश की कोई संवैधानिक/न्यायिक संस्था, सर्वोपरि चुनाव आयोग जनता और विपक्ष के आरोपों की जांच करवायेगा? सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता सुलेमान मो. खान ने याचिका दाखिल की है कि रामपुर में हर सम्भव तरीके से मुस्लिम बहुल इलाके में लोगों को मतदान के अधिकार के प्रयोग से रोक दिया गया। बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए कि कोई urgency नहीं है, उनसे स्थानीय न्यायालय में जाने को कहा है।
रामपुर में जो हुआ है, उसके निहितार्थ बेहद खौफनाक हैं।
यह 2022 के UP विधानसभा चुनाव में भाजपा के ख़िलाफ़ अभूतपूर्व मुस्लिम ध्रुवीकरण का राजनीतिक प्रतिशोध और उसकी काट है। जाहिर है जहाँ इतनी बड़ी मुस्लिम आबादी है वहां अगर यह हो सकता है तो अन्य जगहों पर क्या होगा ? इसका आख़िरी अंजाम यह होगा कि संसद- विधानसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व खत्म हो जाएगा, क्योंकि खुद तो भाजपा उन्हें टिकट देगी नहीं, दूसरे दें तब भी वह उन्हें जीतने नहीं देगी।
क्या यह मुसलमानों को राजनीतिक अधिकार-विहीन, दोयम दर्जे के नागरिक में बदलने के सावरकर-गोलवलकर के हिन्दू राष्ट्र की अघोषित शुरुआत है ? क्या यह दूसरे तरीकों से NRC लागू करने का ड्रेस रिहर्सल है ?
आखिर इसका अंत कहाँ होगा ? समाज और राष्ट्र को दो तरह के नागरिकों में बांटने के, 20 करोड़ अल्पसंख्यकों को राजनीतिक-नागरिक अधिकार से वंचित करने के इस खतरनाक खेल का अंजाम क्या होगा ?
कहना न होगा, हमारी राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सौहार्द के लिए इसके परिणाम विनाशकारी साबित होंगे। कश्मीरी जनता को निष्पक्ष मतदान और अपनी पसंद की सरकार चुनने के राजनीतिक अधिकार से वंचित करने का जो अंजाम हुआ है, उसे हमें भूलना नहीं चाहिए।
मतदाता सूची से विरोधी जनाधार के मतदाताओं के नाम काटने, EVM की गड़बड़ी, खराबी आदि के माध्यम से चुनाव को प्रभावित करने जैसी आशंकाओं से तो लोग पहले से ही जूझ रहे थे, क्या अब आने वाले दिनों में रामपुर की तरह ही दलितों व समाज के अन्य कमजोर तबकों समेत विपक्ष के साथ खड़े अन्य मतदाताओं को भी रोका जाएगा ?
आखिर सारी संवैधानिक व्यवस्था, कानूनी प्रक्रिया को ताक पर रखकर जब चुनाव होगा, लोकतन्त्र और चुनाव की जो न्यूनतम मूल बात है free and fair मतदान का अधिकार, उससे ही जब नागरिकों को वंचित कर दिया जाएगा, खेल के नियम ही बदल दिए जाएंगे तो पुराने ढंग से विपक्ष के मैदान में रहने का अर्थ ही क्या रह जायेगा ?
बहुसंख्यकवादी राजनीति के इस नए template की उपेक्षा विपक्ष और लोकतान्त्रिक ताकतें अपने सर्वनाश की कीमत पर ही कर सकती हैं।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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