यूरोप में फासीवाद के बढ़ते क़दम रुकेंगे!
दुनिया के बड़े हिस्से में फासीवादी सरकारें या तो आ चुकी हैं या उनके सत्ता में आने का खतरा सिर पर मंडरा रहा है। इस समय यूरोप में ही कई देश हैं, जहां फासीवादियों के नेतृत्व में सरकारें चल रही हैं। फ्रांस का नाम इस सूची में जुड़ना बचा है।
फ्रांसीसी चुनाव और फासीवादी खतरा
अगर वह भी इस सूची में शामिल हो जाता तो, इटली के बाद यह दूसरी बड़ी यूरोपीय शक्ति होती, जहां फासीवादी सरकार कायम होती। अगर ऐसा होता तो यह बहुत भारी ऐतिहासिक महत्व की घटना होती; यह मार्शल पेटेन के नेतृत्व में बनी विंची सरकार के बाद से, जिसने अजीब तरीके से हिटलर के साथ गठजोड़ किया था, फ्रांस की पहली ही फासीवादी सरकार होती। इस देश के लिए, जिसने कब्जावर नाजियों के खिलाफ एक बहादुरीपूर्ण सशस्त्र संघर्ष चलाया था और जहां हमेशा ही बहुत मजबूत वामपंथी तथा ट्रेड यूनियन आंदोलन रहा है, यह घटनाक्रम का बहुत ही त्रासद मोड़ होता। न सिर्फ इस खतरे को रोक दिया गया है बल्कि फ्रांसीसी चुनाव के दूसरे तथा अंतिम चक्र में, न्यू पॉपूलर फ्रंट विजयी होकर निकला है।
वैसे फासीवाद का उदय अपने आप में समझ में ही नहीं आने वाला हो, ऐसा भी नहीं है। फासीवाद, पूंजीवाद के संकट के दौर में तब मंच के केंद्र में आ जाता है, जब बड़ी पूंजी अपने वर्चस्व के लिए किसी भी खतरे को परे धकेलने के लिए, फासीवादी तत्वों के साथ गठजोड़ कर लेती है और इसके लिए किसी असहाय अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ ध्यान-बंटाऊ फासीवादी विमर्श को आगे बढ़ाया जाता है। ऐसा ही 1930 के दशक की महामंदी के दौरान हुआ था और ऐसा ही आज हो रहा है, जब नव-उदारवादी पूंजीवाद, गतिरोध तथा संकट के लंबे दौर में प्रवेश कर चुका है। एक आंकड़ा देना ही काफी होगा। 2023 में यूरोपीय क्षेत्र में, जिसमें 19 देश आते हैं, प्रतिव्यक्ति वास्तविक कुल खर्च-योग्य या डिस्पोजेबल आय (सरकार के करों तथा सब्सीडियों को हिसाब में लेने के बाद परिवारों की आय), 2008 की तुलना में सिर्फ 6.4 फीसद बढ़ी थी। यह अपने आप में नगण्य बढ़ोतरी है। लेकिन, यहां दो नुक्ते और भी दर्ज करने वाले हैं। पहला यह कि यहां परिवारों की संज्ञा में, गरीब और अमीर, सारे परिवार आ जाते हैं और इसीलिए, इसी दौर में आय की असमानता में जो बढ़ोतरी हुई है उसे देखते हुए, आबादी के अधिकांश हिस्से की डिस्पोजेबल आय में वास्तव में शायद ही कोई बढ़ोतरी हुई होगी। दूसरे, सकल पारिवारिक आय के इस आंकड़े में से, छोटे पूंजीपतियों तथा छोटे उत्पादकों के स्वामित्व वाले पूंजी स्टॉक के छीजने को घटाया नहीं जाता है। इस समूह की कुल पारिवारिक आय के अनुपात के रूप में पूंजी स्टॉक के इस तरह छीनने का हिस्सा आज, 2008 की तुलना में कहीं ज्यादा हो गया होगा क्योंकि क्षमता उपयोग का अनुपात घटने के चलते आज, पूंजी-उत्पाद अनुपात कहीं ऊपर चढ़ गया है। इसलिए, इस कारण से भी आबादी के अधिकांश हिस्से की शुद्ध पारिवारिक प्रतिव्यक्ति डिस्पोजेबल आय बहुत ही थोड़ी बढ़ी होगी। जनता के बीच फैली जिस बुनियादी नाराजगी का फासीवाद दोहन करता है, उसके जीवन स्तर के उस निचोड़े जाने से पैदा होती, जिसे नव-उदारवादी पूंजीवाद के अंतर्गत आर्थिक गतिरोध द्वारा थोपा जाता है।
फासीवाद के राजनीतिक पैंतरे
बहरहाल, बड़ी पूंजी और फासीवादी नौसिखियों के बीच गठजोड़, अलग-अलग तरीकों से होता है। जनता की नाराजगी का दोहन करने के लिए, फासीवादी अक्सर बड़ी पूंजी के विरोध की मुद्रा अपनाने से शुरूआत करते हैं, जैसाकि मिसाल के तौर पर हिटलर ने किया था। ऐसा करते हुए भी उन्हें आम तौर पर, खुले आम नहीं तो चोरी छिपे ही सही, कुछ इजारेदारों की मदद मिल रही होती है। बहरहाल, एक बार जब वे सत्ता में आ जाते हैं, वे पूरी तरह से बड़ी पूंजी के साझीदारों के रूप में अपना असली चेहरा दिखा देते हैं और अपने ही उन समर्थकों के खिलाफ सफाए की मुहिम तक चलाने के लिए तैयार हो जाते हैं, जो अपने पुराने इजारेदार विरोधी नारों पर ही कायम रहते हैं।
भारत इस मामले में अपवाद है। भारत में फासीवादी तत्वों ने, धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा फैलाते हुए भी, बड़ी पूंजी से तथा खासतौर पर कुछ नये इजारेदार पूंजीपतियों से अपनी नजदीकी को छुपाने की कोई कोशिश नहीं की है। बहरहाल, फ्रांसीसी फासीवादियों ने इजारेदार-विरोधी शोर करने से शुरूआत की थी। फ्रांसीसी फासीवादी नेता, मरीन लु पेन नव-उदारवाद के विरोध का इतना ज्यादा दिखावा करती थीं कि जब ग्रीस में सिरिजा ने, जो पहले की सरकारों से भिन्न रास्ता अपनाने का वादा कर के सत्ता में आयी थी, अंतत: वित्तीय पूंजी के दबाव के सामने घुटने टेक दिए थे, मरीन लु पेन ने उसके ऐसा करने को ‘विश्वासघात’ करार दिया था। लेकिन, इस प्रकटत: विरोधी मुद्रा के बावजूद, उनकी पार्टी को फ्रांसीसी मीडिया सम्राट और अरबपति निवेशक, विन्सेंट बोलोर का पूरा-पूरा समर्थन मिल रहा था। और फ्रांसीसी चुनाव की पूर्व-संध्या में उनकी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी, जॉर्डन बार्डेला ने वित्तीय पूंजी के लिए ज्यादा स्वीकार्य बनने की कोशिश में, उसके खिलाफ जाने वाले अपने पहले के घोषित रुखों से पीछे हटना शुरू भी कर दिया था।
ऐसा ही इटली में भी हुआ था। फासीवादियों की नेता, ज्यार्जिया मेलोनी इसका दिखावा करती थी कि उसका कार्यक्रम, उसके पूर्ववर्ती मारियो द्राघी के, सीधे-सच्चे नव-उदारवादी एजेंडा पर आधारित कार्यक्रम से भिन्न था। लेकिन, सत्ता में आने के बाद मेलोनी अपने पहले के वादों से मुकर गयीं और वित्तीय पूंजी की वफादार सहयोगी बन गयीं।
यूक्रेन यूद्ध के मुद्दे पर भी यूरोपीय फासीवादी ठीक ऐसी ही पल्टी मारते हैं। यूरोपीय मजदूर वर्ग साफ तौर पर युद्ध के खिलाफ है और युद्ध से पैदा हुई मुद्रास्फीति से आहत है, तो रूस के खिलाफ पाबंदियां लगाए जाने के चलते, ईंधन की कीमतें बढऩे से आयी है। यूरोपीय मजदूर वर्ग चाहता है कि शांति लौटे। मजदूरों का समर्थन हासिल करने के लिए फासीवादी शुरू-शुरू में तो युद्ध पर अपनी असहमतियां जताते हैं, लेकिन एक बार जब वे सत्ता में आ जाते हैं, वे भी उसी तरह से अमेरिकी साम्राज्यवाद की लाइन का अनुसरण करने लगते हैं, जैसे वे उदार पूंजीवादी पार्टियां किया करती थीं, जिनकी जगह ये फासीवादी लेते हैं। यही मेलोनी ने किया था और यही फ्रांस में बार्डेला भी चुनाव की पूर्व-संध्या में कर रहा था और आम तौर पर अपने घोषित शांति-समर्थक रुख से पीछे हट रहा था।
वामपंथ का समर्पण और फासीवाद का उभार
संक्षेप में यह कि फासीवाद, जो अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाता है और मजदूरों को विभाजित करता है, मजदूर वर्ग के साथ धोखाधड़ी भी करता है। चाहे आर्थिक नीति का मुद्दा हो या यूक्रेन युद्ध का, उदार पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों से भिन्न होने का उसका दिखावा, एक स्वांग ही होता है। इस्लाम-द्वेष को फैलाने में, आप्रवासियों के खिलाफ शत्रुता को फैलाने में, उदार राजनीतिक कतारबंदियों के मुकाबले यह निश्चित रूप से धुर-दक्षिणपंथी होता है, लेकिन युद्ध और शांति के सवालों पर और आर्थिक नीति के मामले में यह उदारपंथी ताकतों से जरा भी अलग नहीं होता है, हालांकि मजदूर वर्ग का समर्थन हासिल करने के लिए वह, उदारपंथी ताकतों से भिन्न होने का स्वांग करता है।
इस तरह के स्वांग की गुंजाइश इसलिए पैदा होती है कि वामपंथ के बड़े हिस्से, मजदूर वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करने के अपने दायित्व को छोड़ देते हैं और पूंजीपति वर्ग का पुंछल्ला बन जाते हैं। जर्मनी में, जहां रूस के खिलाफ पश्चिमी पाबंदियों के चलते, मजदूर वर्ग पर मुद्रास्फीति की कड़ी मार पड़ी है और वह यूक्रेन युद्घ के खिलाफ है, सिर्फ सोशल डेमोक्रेट ही नहीं बल्कि वामपंथी पार्टियां तक अमेरिकी साम्राज्यवाद के पीछे कतारबंद हो गयी हैं। ऐसे में हैरानी की बात नहीं है कि वामपंथ से टूटा एक समूह, जिसका नेतृत्व सहरा वाजेन्हनेख्त कर रहे हैं और जो शांति-समर्थक है, कहीं ज्यादा समर्थन हासिल कर रहा है। इसी प्रकार, यूरोप में वामपंथ के उल्लेखनीय हिस्से नव-उदारवाद के समर्थक बन गए हैं और यह मजदूर वर्ग को गुमराह करने की अपनी परियोजना में, फासीवादियों की मदद करता है। इस तरह यूरोपीय फासीवाद, वामपंथ के बड़े हिस्सों के हथियार डालने के चलते फल-फूल रहा है।
फ्रांसीसी चुनाव का सबक
लेकिन, इसी में फ्रांस अलग साबित हुआ है। वहां वामपंथ ने एकजुट होकर एक न्यू पॉपुलर फ्रंट ही नहीं बनाया है, उसने इस मोर्चे से एक आर्थिक कार्यक्रम भी स्वीकार कराया है, जो साफ तौर पर नव-उदारवाद से आगे जाता है। फ्रांसीसी फासीवादियों की बढ़त को पहले इस तथ्य से मदद मिल रही थी कि फासीवादियों को सत्ता से दूर रखने की साझा आकांक्षा के साथ, कोई वैकल्पिक आर्थिक एजेंडा नहीं जोड़ा जा सका था। इसका फायदा मैक्रां ने सत्ता में बने रहने और नव-उदारवादी एजेंडा पर इसके बावजूद चलने के लिए उठाया था कि इस एजेंडा को, कामगार जनता ज्यादा से ज्यादा नापसंद कर रही थी। जैसे-जैसे मैक्रां की अलोकप्रियता बढ़ती जा रही थी, वैसे-वैसे इन अप्रिय आर्थिक नीतियों के खिलाफ विरोध की प्रमुख आवाज के रूप में, फासीवादी जनता के बीच ज्यादा से ज्यादा स्वीकार्य होते जा रहे थे। बहरहाल, अब यह द्वंद्वात्मकता टूट गयी है, जो एक महत्वपूर्ण नुक्ते को रेखांकित करता है।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, इकलौता प्रासंगिक फासीवाद-विरोधी कार्यक्रम था, युद्ध का अंत करना। उस समय दूसरे किसी वैकल्पिक आर्थिक एजेंडा की जरूरत नहीं थी। लेकिन, ऐसा गैर-कार्यक्रम-आधारित फासीवाद-विरोधी मोर्चा, जो दूसरे विश्व युद्घ के दौरान कारगर था, वर्तमान परिस्थिति-संयोग के लिए निरर्थक हो जाता है, जब हमारा सामना बाकायदा युद्घ से नहीं हो रहा है। सिर्फ फासीवाद-विरोधी ताकतों के एकजुट होने का, जो जनता की जिंदगियों को बेहतर बनाने का कोई एजेंडा पेश ही नहीं करता हो, जो नव-उदारवाद को और साम्राज्यवाद द्वारा अनुमोदित स्थानीय युद्धों को मंजूर करता हो, वक्त गुजरने के साथ फासीवादियों को ताकतवर बनाने का उल्टा ही काम करता है, फिर चाहे अत्यंत अल्पावधि के लिए यह एकजुट होना कितना ही कारगर क्यों न हो।
बेशक, यूरोपीय वामपंथ के कुछ हिस्सों द्वारा समर्पण किए जाने का यह सिलसिला काफी समय से जारी था, उस समय से जब उसके एक उल्लेखनीय हिस्से ने यूगोस्लाविया पर बम बरसाए जाने के लिए अपनी सहमति दे दी थी। साम्राज्यवाद की पूंछ बनने की इस प्रवृत्ति ने अब परिपक्व होकर, यूक्रेन में साम्राज्यवादी परियोजना के लिए समर्थन और नव-उदारवाद के लिए भी समर्थन का रूप ले लिया है। यह फासीवादियों को इसका मौका देता है कि कम से कम तब तक, जब तक कि इजारेदार पूंजी के साथ उनका गठजोड़ खुलकर सामने नहीं आ जाता है, खुद को शांति और मुक्ति के पैरोकारों के रूप में पेश कर सकें। फ्रांस ने दिखाया है कि वामपंथ द्वारा एक ऐसे एजेंडा का अपनाया जाना, जो नव-उदारवाद से आगे तक जाता है, फासीवादियों के पांव के नीचे से जमीन छीनने के लिए कारगर होगा।
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