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पश्चिमी वामपंथ की चुप्पी और अमेरिका-चीन संघर्ष

पश्चिमी साम्राज्यवाद के मुक़ाबले पश्चिमी वामपंथ का रुख समूचे राजनीतिक झुकाव को दक्षिणपंथ की ओर स्थानांतरित करने का काम कर रहा है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार : Flickr

पश्चिमी गैर-कम्युनिस्ट वामपंथ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते संघर्ष को साम्राज्यवाद की आपसी प्रतिद्वंद्विता के रूप में देखता है। इस संघर्ष का इस प्रकार का चरित्रीकरण उनके नज़रिए से तीन अलग-अलग सैद्धांतिक काम करता है। पहला, यह अमेरिका तथा चीन के बीच बढ़ते अंतर्विरोध के लिए एक व्याख्या मुहैया कराता है। दूसरे, ऐसी व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए वह लेनिनवादी अवधारणा का प्रयोग करता है और लेनिनवादी प्रतिमान के दायरे में यह व्याख्या मुहैया कराता है। तीसरे, यह एक उभरती सामराजी ताकत के रूप में और इसलिए संदर्भत: एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के रूप में चीन की आलोचना प्रस्तुत करता है, जो चीन की अति-वामपंथी आलोचना से मेल खाता है।

साम्राज्यवाद विरोध को मूक करने का खेल

विडंबना यह है कि इस तरह का चरित्रांकन वामपंथ के इन हिस्सों को प्रकटत: या निहितार्थत: चीन के ख़िलाफ़ अमरीकी साम्राज्यवाद की तिकड़मों का साझीदार बना देता है। अपने बेहतरीन रूप में यह ऐसे रुख की ओर ले जाता है, जहां दोनों को ही साम्राज्यवादी देश माना जाता है और इसलिए यह माना जाता है कि इन दोनों के बीच, दूसरे के ख़िलाफ़ किसी भी एक का समर्थन करने की कोई तुक ही नहीं बनता है। अपने बदतरीन रूप में यह, इन दो साम्राज्यवादी ताकतों के बीच झगड़े में, ‘‘छोटी बुराई’’ के रूप में, चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका का समर्थन करने तक जाता है। दोनों ही सूरतों में यह, चीन के ख़िलाफ़ अमरीकी साम्राज्यवाद की आक्रामक मुद्राओं के संदर्भ में, एक विरोधी रुख को नकार कर ही चलता है। और चूंकि आज के ज़्यादातर मुद्दों पर इन दोनों देशों के बीच झगड़ा है, यह आम तौर पर अमरीकी साम्राज्यवाद के विरोध को मूक करने की ओर ही ले जाता है।

पिछले काफी समय से पश्चिमी वामपंथ के खासे बड़े हिस्से, जिसमें ऐसी ताकतें भी शामिल हैं जो अन्यथा पश्चिमी साम्राज्यवाद का विरोध करने की बातें करती हैं, ठोस हालात में इस साम्राज्यवाद की कार्रवाईयों का समर्थन करते आए हैं। यह सर्बिया पर, जब वहां स्लोबोदान मिलोसेविच का शासन था, बमबारी के लिए उनके समर्थन से स्पष्ट था। यह इस समय, वर्तमान यूक्रेन यूद्घ में नाटो के लिए उनके समर्थन से स्पष्ट है। और यह पश्चिमी साम्राज्यवाद की सक्रिय मदद से, गज़ा में फिलिस्तीनी जनता पर इज़राइल द्वारा किए जा रहे जनसंहार पर, उनके किसी कड़े विरोध के अभाव से भी स्पष्ट है। चीन के मामले में आक्रामक साम्राज्यवादी रुख पर, पश्चिमी वामपंथ के कुछ हिस्सों की खामोशी या उसके प्रति उनका समर्थन, अनिवार्य रूप से इन रुखों के समान ही नहीं है। फिर भी उनकी संगति में ज़रूर है।
मज़दूर वर्ग के हितों के ख़िलाफ़

इस तरह का रुख जो सीधे-सीधे पश्चिमी साम्राज्यवाद का विरोध नहीं करता है, महानगरीय या विकसित देशों के मज़दूर वर्ग के हितों तथा तौर-तरीकों से, पूरी तरह से बेमेल होता है। मिसाल के तौर पर यूरोप का मज़दूर वर्ग प्रचंड रूप से यूक्रेन में नाटो द्वारा चलाए जा रहे प्रॉक्सी-वॉर ख़िलाफ़ है। यह मजदूरों के, यूक्रेन के लिए भेजे जा रहे यूरोपीय हथियारों को लोड करने से इनकार करने के अनेक उदाहरणों से स्पष्ट है।

इसमें हैरानी की भी बात नहीं है क्योंकि युद्घ का, मुद्रास्फीति को बढ़ाने के ज़रिए, मजदूरों की ज़िंदगी पर भी सीधे असर पड़ा है। लेकिन, युद्घ के किसी दो-टूक वामपंथी विरोध के अभाव में, बहुत से मज़दूर दक्षिणपंथी पार्टियों की ओर झुक रहे हैं। हालांकि, ऐसी पार्टियां भी सत्ता में आने पर साम्राज्यवादी रुखों के हिसाब से खुद को ढाल लेती हैं, जैसा कि इटली में मेलोनी ने किया है, फिर भी ये पार्टियां कम से कम विपक्ष में रहते हुए तो युद्घ की आलोचना करती हैं। इस तरह, पश्चिमी साम्राज्यवाद के बरक्स पश्चिमी वामपंथ की चुप्पी, विकसित दुनिया के बड़े हिस्से में समूचे राजनीतिक गुरुत्वाकर्षण केंद्र को ही, दक्षिण की ओर खिसका रही है। और अमेरिका-चीन अंतर्विरोध को साम्राज्यवादी ताकतों की आपसी प्रतिद्वंद्विता की तरह देखना, इसी आख्यान को बल देता है।

जहां तक इस विचार का सवाल है कि चीन एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है और इसलिए वह अमेरिका की प्रतिद्वंद्विता में दुनिया भर में साम्राज्यवादी गतिविधियों में लगा हुआ है, इस नज़रिए को मानने वाले ज़्यादा से ज़्यादा एक नैतिकतावादी रुख अपना रहे होते हैं और ‘पूंजीवाद’ को ‘बुरे’ और ‘समाजवाद’ को ‘अच्छे’ का पर्यायवाची मानकर चल रहे होते हैं। उनका रुख वास्तव में कुछ इस प्रकार से काम करता है: मेरी इसकी एक निश्चित धारणा है कि समाजवादी समाज को किस तरह आचरण करना चाहिए (यह एक आदर्शीकृत धारणा है); और अगर कुछ पहलुओं से चीन का आचरण मेरी उक्त धारणा से मेल नहीं खाता है, तो तथ्यत: चीन समाजवादी तो हो ही नहीं सकता और इसलिए उसे पूंजीवादी होना चाहिए। लेकिन, पूंजीवादी और समाजवादी की संज्ञाओं के बहुत ही खास अर्थ हैं। इसका निहितार्थ यह है कि ये संज्ञाएं बहुत ही खास तरह की गतिकियों से जुड़ी होती हैं, जिनमें से हरेक कुछ खास बुनियादी संपत्ति संबंधों पर आधारित होती है। बेशक, चीन में एक उल्लेखनीय पूंजीवादी क्षेत्र है, ऐसा क्षेत्र जिसकी पहचान पूंजीवादी संपत्ति संबंधों से होती है। फिर भी चीनी अर्थव्यवस्था का अधिकांश अब भी राजकीय स्वामित्व में है और उसकी पहचान केेंद्रीयकृत निदेशन से होती है, जो उसे उस तरह की स्वत:-संचालकता (या स्वत:स्फूर्तता) से रोकता है, जिससे पूंजीवाद की पहचान होती है। चीनी अर्थव्यवस्था तथा समाज के अनेक पहलुओं की हमारी आलोचनाएं हो सकती हैं, लेकिन उसे ‘पूंजीवादी’ और इसलिए पश्चिमी विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह ही, साम्राज्यवादी गतिविधियों में संलिप्त करार देना तो एक मज़ाक है। यह न सिर्फ विश्लेषणात्मक रूप से गलत है बल्कि ऐसे अमल की ओर ले जाता है, जो साफ तौर पर विकसित दुनिया के मज़दूर वर्ग के हितों के भी ख़िलाफ़ है और विकासशील दुनिया या ग्लोबल साउथ में मेहनतकशों के भी हितों के ख़िलाफ़ है।

युद्धोत्तर दुनिया के बदलाव और उपनिवेशवाद

लेकिन यहां से फौरन यह सवाल उठता है कि अगर अमेरिका-चीन अंतर्विरोध, साम्राज्यवादियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता की अभिव्यक्ति नहीं है, तो अपेक्षाकृत हाल के दौर में इसके प्रमुखता से उभर आने को हम और किस तरह से समझ सकते हैं? इसे समझने के लिए, हमें द्वितीय विश्व युद्धोत्तर दौर पर लौटना होगा।

पूंजीवाद, विश्व युद्घ से बहुत ही कमज़ोर होकर बाहर निकला था और उसके सामने अस्तित्व का संकट उपस्थित था। विकसित दुनिया में मज़दूर वर्ग लौटकर युद्घ-पूर्व पूंजीवाद पर जाने को तैयार नहीं था, जिसने उन्हें आम बेरोज़गारी और कंगाली दी थी। दुनिया भर में समाजवाद ने भारी प्रगति कर ली थी। और औपनिवेशिक तथा अर्ध-औपनिवेशिक उत्पीड़न के ख़िलाफ़ गैर-विकसित दुनिया या ग्लोबल साउथ के मुक्ति संघर्ष वास्तविक चरमोत्कर्ष पर पहुंच गए थे। ऐसे में अपने अस्तित्व मात्र को बनाए रखने के लिए, पूंजीवाद को अनेक रियायतें देनी पड़ी थीं, जैसे : सार्वभौम मताधिकार का लाया जाना, कल्याणकारी राज्य के कदमों का उठाया जाना, मांग प्रबंधन में राजकीय हस्तक्षेप का स्थापित किया जाना और सबसे बढ़कर, औपचारिक राजनीतिक उपनिवेशवाद का स्वीकार किया जाना।

बहरहाल, राजनीतिक उपनिवेशवाद का अर्थ आर्थिक उपनिवेशवाद नहीं था यानी तीसरी दुनिया के संसाधनों पर नियंत्रण को, जो अब तक विकसित दुनिया की पूंजी के हाथों में था, कोई नव-स्वतंत्र देशों को हस्तांतरित नहीं किया जा रहा था। वास्तव में ऐसे हस्तांतरण के ख़िलाफ़ तो साम्राज्यवाद ने एक तीखी और लंबी लड़ाई लड़ी थी। अर्बेन्ज, मोसद्देह, अलेंदे, छेदी जगन, लुमुम्बा की और दूसरी भी अनेक सरकारों का तख्ता पलटवाया जाना, इसी लड़ाई की निशानियां हैं। बहरहाल, इसके बावजूद विकसित दुनिया की पूंजी अनेक मामलों में तीसरी दुनिया के संसाधनों को अपने हाथों से फिसलकर, उन नियंत्रणात्मक निजामों के हाथों में जाने से नहीं रोक पायी, जो उपनिवेशवाद के बाद इन देशों में कायम हुए थे।

साम्राज्यवादी वर्चस्व की दोबारा आजमाइश

यह ज्वार तब साम्राज्यवाद के पक्ष में मुड़ गया, जब पूंजी के केंद्रीयकरण की एक उच्चतर अवस्था आ गयी, जिसने वैश्वीकृत पूंजी को उभारा, जिसमें सबसे बढ़कर वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी शामिल थी। और दूसरी ओर, सोवियत संघ का पतन हो गया, जो अपने आप में भी वित्तीय पूंजी के वैश्वीकरण से पूरी तरह से असंबद्घ नहीं था। अब साम्राज्यवाद ने देशों को वैश्वीकरण के जाल में और इसलिए वैश्विक वित्तीय प्रवाहों के भंवर में फंसा लिया। अब वित्त के पलायन का डर दिखाकर उन्हें ऐसी नवउदारवादी नीतियां अपनाने के लिए मजबूर किया जा रहा था, जिनके अपनाए जाने का अर्थ था नियंत्रणात्मक व्यवस्थाओं का अंत और विकसित दुनिया की पूंजी द्वारा तीसरी दुनिया के संसाधनों के बड़े हिस्से पर फिर से नियंत्रण हासिल किया जाना, जिसमें तीसरी दुनिया के भूमि उपयोग पर नियंत्रण भी शामिल है।

साम्राज्यवादी वर्चस्व के दोबारा आजमाए जाने की इसी पृष्ठभूमि में रखकर हम बढ़ते अमेरिका-चीन अंतर्विरोध को और यूक्रेन युद्घ जैसे दूसरे अनेक समकालीन घटनाविकासों को समझ सकते हैं।

साम्राज्यवादी वर्चस्व की इस दोबारा आजमाइश के दौर की दो विशेषताएं गौर करने वाली हैं। पहली यह कि चीन जैसे देशों के मालों के लिए विकसित दुनिया के बाज़ारों में जो पहुंच हासिल करायी गयी और इसके साथ ही साथ विकसित दुनिया की पूंजी इस तरह के देशों को अपने संयंत्रों के लिए ठिया बनाने के लिए तैयार हो गयी ताकि वैश्विक मांग पूरी करने के लिए, इन देशों की अपेक्षाकृत कम मज़दूरियों का फायदा उठा सके, इस सबने विकासशील दुनिया के इन देशों की (और इन देशों की ही) वृद्धि दर को तेज़ कर दिया। चीन के मामले में तो यह इस हद तक हुआ कि पूंजीवादी दुनिया की अग्रणी शक्ति, अमेरिका ने चीन को खतरा मानना शुरू कर दिया है। दूसरी विशेषता है, नवउदारवादी पूंजीवाद का संकट, जो अमेरिका में आवासन के बुलबुले के बैठ जाने के बाद से, तीव्रता के साथ उभरकर सामने आया है।

इन दोनों ही कारणों से अमेरिका अब अपनी अर्थव्यवस्था को, चीन से और विकासशील दुनिया के ऐसी ही स्थिति के दूसरे देशों से आयातों से बचाना चाहता है। चाहे ये आयात कम से कम आंशिक रूप से तो अमरीकी पूंजी के तत्वावधान में ही हो रहे हैं, फिर भी अमेरिका खुद अपना ‘डी-इंडस्ट्रियलाइज़िंग’ होनेे का जोखिम नहीं उठा सकता है। इसलिए, चीन के ‘आर्थिक सुधारों’ के लिए उसकी बड़ी तारीफें करने के फौरन ही बाद देखने को मिल रही उसकी चीन को ‘उसकी औकात बताने’ की उसकी इच्छा की जड़ें, नवउदारवादी पूंजीवाद के अंतर्विरोधों में और इसलिए, साम्राज्यवादी वर्चस्व की दोबारा आजमाइश में अंतर्निहित तर्क में ही हैं। इसलिए, अमेरिका-चीन के अंतर्विरोधों के बढ़ने को साम्राज्यवादी ताकतों की आपसी होड़ के रूप में नहीं बल्कि पश्चिम साम्राज्यवाद द्वारा अपने वर्चस्व की दोबारा आजमाइश के ख़िलाफ़ चीन की ओर से और उसके दिखाए रास्ते पर चलकर अन्य देशों द्वारा भी किए जा रहे प्रतिरोध के रूप में ही समझा जाना चाहिए।

जैसे-जैसे पूंजीवादी संकट बढ़ेगा, और तीसरी दुनिया के देशों के अपने विदेशी ऋण संबंधी भुगतान करने में असमर्थ होने के चलते, आइएमएफ जैसी सामराजी एजेंसियों द्वारा ‘कमखर्ची’ थोपे जाने के ज़रिए उनका उत्पीड़न बढ़ेगा तथा पलटकर यह इन देशों द्वारा और ज़्यादा प्रतिरोध तथा चीन द्वारा उनके लिए और ज़्यादा मदद दिए जाने का तकाजा करेगा, वैसे-वैसे अमेरिका-चीन अंतर्विरोध और तीखे होंगे और पश्चिम में चीन के ख़िलाफ़ अभियान और कर्कश होते जाएंगे।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

US-China Dichotomy: Quietude of the Western Left

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