महिलाओं के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा ‘498ए' ज़रूरी क्यों हैं?
बीते दिनों अदालत में सुनवाई के दौरान 'जेंडर स्टीरियोटाइप्स' को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 'हैंडबुक ऑन कॉम्बैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स' जारी की थी। इसका मकसद ही लैंगिक संवेदनशीलता सुनिश्चित कर, ऐसे शब्दों पर रोक लगाना था, जिनसे भेदभाव वाले व्यवहार को वैधता मिलती है। हालांकि पिछले कुछ महीनों में ही ऐसे कई मामले सामने आए, जिनमें कई हाई कोर्टों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के दुरुपयोग पर अफसोस जताते हुए महिला विरोधी टिप्पणियां करने के आरोप भी लगे। पहली नज़र में ये टिप्पणियां आपको जरूर सही लग सकती हैं और ये भी हो सकता है कि जिस मामलों में ये फैसला सुनाया गया हो उसमें महिला ने अपने पति और रिश्तेदारों के खिलाफ झूठा केस दायर किया हो लेकिन कुछ एक ऐसे मामलों के अलावा आप इस अपराध को ही नहीं नकार सकते।
बता दें कि हाल ही में वरिष्ठ वकील और महिला अधिकारों की पैरवी करने वाली इंदिरा जयसिंह ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ को लिखा कि ‘क़ानूनी आतंक’ शब्द का इस्तेमाल इसे ‘रुढ़ि बना देने का एक विशिष्ट उदाहरण’ और ‘एक मुद्दे को सामान्यीकृत’ करने जैसा है। उन्होंने कानूनी कार्यवाही में महिलाओं की स्टीरियोटाइपिंग के उदाहरण के रूप में, कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शुभेंदु सामंत की टिप्पणी का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि महिलाएं सेक्शन 498-ए (किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार द्वारा उसके साथ क्रूरता) का 'दुरुपयोग' करके 'लीगल टेरेरिज़्म' फैला रही हैं।
ध्यान रहें कि आईपीसी की धारा 498ए ने महिलाओं के ख़िलाफ़ उत्पीड़न रोकने में बहुत अहम भूमिका निभाई है। इसे साल 1983 में शामिल किया गया था जब पत्नी के ख़िलाफ़ क्रूरता और दहेज से जुड़ी कई मौतों के मामले सामने आए। साल 2005 में आए घरेलू हिंसा कानून से पहले भारतीय विधि में इस धारा के अलावा और कोई धारा नहीं थी जो कि महिलाओं को पति के घर में हिंसा से बचाती हो। इस 498ए कानून को विवाहित महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए बनाया गया है। इस धारा में ज़मानत नहीं मिलती और पुलिस बिना वारंट के भी व्यक्ति को गिरफ़्तार कर सकती है। इस कानून के तहत अगर कोई पति या उसके रिश्तेदार, पत्नी को उत्पीड़न का निशाना बनाते हैं तो उन्हें तीन साल की सज़ा हो सकती है।
यह क़ानून सिर्फ दहेज से जुड़े मामलों में ही सुरक्षा प्रदान नहीं करता, बल्कि क्रूरता से भी बचाव करता है। क्रूरता से मतलब है- दहेज के लिए परेशान करना या कोई भी ऐसा बर्ताव करना जिससे महिला को मानसिक या शारीरिक क्षति पहुंची हो या इसकी वजह से आत्महत्या को मजबूर हुई हो। बीते कई सालों में अदालतों ने इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कई निर्देश भी दिए हैं। लेकिन इससे इस कानून की महत्ता कम नहीं हो जाती है।
अदालती टिप्पणियां
कलकत्ता हाई कोर्ट - धारा 498ए का दुरुपयोग कर महिलाओं ने 'लीगल टेरर' (क़ानूनी आतंक) मचा रखा है।
बॉम्बे हाई कोर्ट - अक्सर इन मामलों में पति के उन सभी रिश्तेदारों को अभियुक्त बना दिया जाता है जो उनके साथ रहते भी नहीं थे।
उत्तर प्रदेश में एक अदालत ने कहा कि ये मामला पति के परिवार के ख़िलाफ़ बदला लेने के लिए लाया गया है क्योंकि शारीरिक हिंसा और दहेज की मांग को लेकर पत्नी के बयान में विसंगतियां हैं।
इलाहाबाद हाई कोर्ट - ‘शादी विवाह से जुड़े हर मामले’, दहेज से संबंधित उत्पीड़न के आरोपों के साथ बढ़ा चढ़ा कर पेश किए जा रहे हैं। कई जोड़े इसकी बजाय लिव-इन रिश्तों में रहना पसंद कर रहे हैं, जोकि ‘बिना किसी क़ानूनी बाध्यता के तनाव मुक्त साहचर्य’ है।
गलत या झूठे पाए गए मामलों का प्रतिशत बेहद कम
ज्ञात हो कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) 2021 की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के खिलाफ अपराध के तहत सभी 4,28,278 लाख मामलों में से अधिकांश 1,36,234 मामले (33%) भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A के तहत दर्ज किए गए हैं। यहां ये गौर करने वाली बात है कि इसी रिपोर्ट के अनुसार इन 136234 मामलों में से केवल 6938 मामलों को पुलिसिया जांच में गलत/झूठा पाया गया। यह ध्यान देने वाली बात है कि पुलिस की जांच में गलत/झूठे पाए गए मामलों का प्रतिशत दर्ज किए गए मामलों के सामने बहुत कम है।
वहीं राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के नवीनतम आंकड़ों की मानें तो, देश में 18-49 आयु वर्ग की लगभग 3 में से 1 महिला को किसी न किसी रूप में पति द्वारा दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा है। और लगभग 6% को यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है। इस सर्वेक्षण के अनुसार 32% विवाहित महिलाओं को वैवाहिक शारीरिक, यौन या भावनात्मक हिंसा का सामना करना पड़ा है, और 27% को सर्वेक्षण से पहले के 12 महीनों में कम से कम एक प्रकार की हिंसा का सामना करना पड़ा है। 29% प्रतिशत विवाहित महिलाओं ने पति द्वारा शारीरिक हिंसा को माना है; और 14% को भावनात्मक हिंसा का सामना करना पड़ा है।
सामाजिक दबाव, सबूतों का अभाव और असहाय स्थिति
गौरतलब है कि महिलाओं के लिए कानूनी चौखट तक पहुंचना वैसे ही बहुत मुश्किल है। 498ए के तहत केस दर्ज करना भी कोई आसान काम नहीं क्योंकि पुलिस अक्सर इन मामलों को पारिवारिक विवाद मानकर एफ़आईआर दर्ज करने के पहले विवाद को हल कराने की कोशिश करती है। पहले की रिपोर्टों में भी ये बात सामने आई है कि पुलिस एफ़आईआर दर्ज करने से पहले सुलह की कोशिश करती है और दंपति को ‘परिवार बचाने’ की सलाह देती है। कई बार मामले थाने से आगे अदालत तक भी पहुंचने के बाद लोक-लाज और 'परिवार की इज्जत' के नाम पर वापस ले लिए जाते हैं।
अक्सर ऐसा भी देखा गया है कि अगर ऐसे मामले आगे बढ़ते भी हैं, तो सबूतों के अभाव में दम तोड़ देते हैं क्योंकि महिलाओं के लिए मानसिक और भावनात्मक हिंसा को सिद्ध करना बहुत मुश्किल होता है। कई बार सामाजिक दबाव या तलाक़ के लिए पति के राजी हो जाने या महिला को उसके मायके भेजने की बात मानने की वजह से अक्सर महिलाएं अपने केस को आगे बढ़ा पाने में खुद को असहाय पाती हैं। इन मामलों में इंतज़ार भी लंबा होता है और इसलिए केस लंबे समय तक खींचता है, सज़ा में भी मुश्किल होती है। ऊपर से बहुत महिलाओं के लिए कानूनी लड़ाई और आर्थिक स्थिरता भी बहुत सहज नहीं होती। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि 498ए के दुरुपयोग की बात अपवाद और इसके सार्थकता की बात सामान्य है। क्योंकि ये पितृसत्तात्मक सोच ही है, जो ऐसे मामलों को अंजाम तक पहुंचने से पहले ही इस पर सवाल उठाने लगते हैं।
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