क्या अडानी समूह देशज भूमि पर क़ब्ज़ा कर स्वदेशी कला को हड़प रहा है?
अडानी समूह ने अपने सोशल मीडिया चैनलों पर 4 नवंबर को एक वीडियो पोस्ट किया था, इस प्रचार वीडियो में शांतिग्राम में एक नई कला (आर्ट वर्क) के अनावरण का वर्णन किया गया है – इसे अडानी के गुजरात के अहमदाबाद मुख्यालय में स्थापित किया गया है – इस कला में "प्राकृतिक आभा और पवित्र भौगोलिक यादों के रहस्य का जश्न मनाया जा रहा है।" समूह ने इसके अनावरण की घोषणा करते हुए एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की और उसमें कहा है कि यह "आपसी सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि (आपसी संस्कृति) के रचनात्मक सहयोग को समझने का एक प्रयोग है।"
प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, इस कला की कल्पना पद्म भूषण अवार्ड से सम्मानित राजीव सेठी ने की है, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रशंसित डिज़ाइनर और कलाकार हैं, अडानी के शांतिग्राम में अडानी समूह के कला कार्यक्रम के तहत तैयार की जाने वाली 48 परियोजनाओं में से पहली परियोजना है।
सेठी द्वारा डिज़ाइन की गई मूर्तिकला की स्थापना भारतीय कलाकार भज्जू श्याम और ऑस्ट्रेलियाई कलाकारों, ओटो जुंगरेरी सिम्स और पैट्रिक जपगार्डी विलियम्स के आपसी सहयोग से की है। श्याम एक गोंड आदिवासी हैं; सिम्स और विलियम्स ऑस्ट्रेलियाई वार्लपिरि देशज समुदाय के सदस्य हैं, नोट में इस बात पर ख़ासा ज़ोर दिया गया है। जबकि सिम्स और विलियम्स वार्लुकुरलंगु अबोरिजन आदिवासी आर्टिस्ट कॉर्पोरेशन के सदस्य हैं, जो एक देशज लोगों के स्वामित्व वाली कला सहकारी संस्था है, और इसका उत्तरी ऑस्ट्रेलिया के युएन्दु में केंद्र है। श्याम दुनिया भर में प्रशंसित कलाकार हैं और उन्हेंं 2018 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। तीन सहयोगियों ने मिलकर सेठी द्वारा तैयार मूर्ति को चित्रित किया है। वैक्सिंग ल्यरिकल की स्थापना, प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार "स्वदेशी लोगों के पवित्र परिदृश्य से प्रेरित है।"
सेठी ने अहमदाबाद मिरर से बात करते हुए कहा कि अडानी समूह की पहल की सराहना की जानी चाहिए और कहा कि "एक प्रमुख औद्योगिक घराने के लिए रचनात्मक स्पेस के विस्तार करने में सक्षम होना बहुत महत्वपूर्ण बात है।" गौतम अडानी जो समूह के संस्थापक और चेयरपर्सन हैं और साथ ही देश के दूसरे सबसे अमीर आदमी हैं, ने कहा कि "सांस्कृतिक आदान-प्रदान दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक बंधन पर भी निर्भर करता है।"
अडानी समूह के अध्यक्ष गौतम अडानी और प्रीति अडानी जो अडानी फाउंडेशन की चेयरपर्सन हैं और सेठी, श्याम, सिम्स और विलियम्स और अन्य, स्थापना और अनावरण से पहले शांतीग्राम, अहमदाबाद में फ़ोटो खिचवाते हुए; छवि स्रोत: अडानी ग्रुप प्रेस रिलीज़
यह अपने आप में एक सहज घटना है, जब ख़ासकर इसे भारत और ऑस्ट्रेलिया में अडानी समूह की औद्योगिक विकास परियोजनाओं की रौशनी में देखें जहां स्वदेशी समुदायों के साथ इसका सीधे टकराव है, इसलिए यह एक गहन घटना बन जाती है।
हसदेव अरंड की लड़ाई
छत्तीसगढ़ में तीन कोयला ब्लॉक और एक बिजली संयंत्र जो हसदेव अरंड जंगल में स्थित हैं, कई राज्यों और केंद्र सरकार के निकायों द्वारा सहायता प्राप्त अडानी समूह ने आदिवासी निवासियों की मांग को अस्वीकार करते हुए एक क़ानूनी और नियमक तख़्तापलट कर दिया है, जिसमें ज़्यादातर गोंड नागरिक हैं जो भूमि और जंगल के अपने लोकतांत्रिक अधिकार की मांग रहे हैं।
अडानी समूह वर्तमान में राजस्थान सरकार के बिजली निगम के लिए जिसका नाम ‘राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड’ (RRVUNL) है, को कोयला सप्लाई करने के लिए छत्तीसगढ़ के सरगुजा ज़िले के पारस पूर्व और कांटा बसन कोयला ब्लॉक से कोला निकाल रहा है। अडानी समूह का एक पावर प्लांट उसी ब्लॉक में प्रस्तावित भी है।
मौजूदा खदान से सटे केंटे एक्सटेंशन और परसा नाम के दो और कोल ब्लॉक भी आरआरवीयूएनएल को आवंटित किए गए हैं, जिनमें खनन कार्य करने के लिए अडानी समूह की कंपनियों के साथ समझौते हुए हैं। ये परियोजनाएं छत्तीसगढ़ के हसदेव अरंड जंगल में स्थित हैं और इन परियोजनाओं ने आदिवासी समुदायों के विरोध के संगठित आंदोलन का सामना किया है, हालांकि अभी तक इससे कुछ निकाला नहीं है।
इस क्षेत्र में कोयला खनन आंदोलन जिस मुख्य चिंता की वजह से शुरू हुआ उसमें पर्यावरण विनाश, आजीविका का विनाश, विस्थापन और संपत्ति और वन अधिकारों और लोकतांत्रिक स्व-शासन का हनन शामिल है।
आरआरवीयूएनएल को राज्य में बिजली संयंत्रों को संचालित करने के लिए कोयला आपूर्ति करने के लिए एक उनकी अपनी खान के रूप में परसा पूर्व और कांता बसन कोयला ब्लॉक आवंटित किया गया था। 2007 में, इसने अडानी समूह की कंपनी के साथ एक संयुक्त उद्यम स्थापित किया था, जिसने कोयले की आपूर्ति करने के लिए ब्लॉक में खनन का काम करना था। क़ानूनी व्यवस्था के तहत, जबकि आरआरयूवीएनएल खदान की मालिक थी, संयुक्त उद्यम जिसमें कि अडानी समूह की कंपनी (बहुमत शेयर वाली) का स्वामित्व में है, वह 'खनन और विकास ऑपरेटर' के रूप काम कर रही थी। क़रार के अनुसार इस कंपनी को खनन के लिए आवश्यक अनुमतियां और भूमि हासिल करनी थी, और उसे खदान को स्थापित कर उसका संचालन करना था ताकि वह आरआरवीयूएनएल को कोयला बेच सके।
हालांकि, 2009 में पूरे हसदेव अरंड वन को औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जिसमें केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय (अब पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय) वनों की कटाई और पर्यावरण संबंधी व्यवधान “न करने’ के आदेश जारी किए थे। 2011 में, पर्यावरण मंत्रालय की ही एक एजेंसी फॉरेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया ने हसदेव अरंड को संरक्षित क्षेत्रों से भी परे का मध्य भारत में ऐसा जंगल होने का दावा लिया था जो किसी भी तरह से बाधित नहीं है।
हालांकि, राजस्थान सरकार और केंद्रीय कोयला मंत्रालय के दबाव में आकर पर्यावरण मंत्रालय ने 2012 में 'नो-गो' को रद्द कर दिया। उसी वर्ष, खनन शुरू करने की परियोजना को पर्यावरणीय और वन मंत्रालय ने मंज़ूरी दे दी।
देश के क़ानून के अनुसार, छत्तीसगढ़ सरकार को कंपनी को कोयला खदान को सौंपने और खनन का लाइसेंस जारी करने से पहले, ज़मीन पर रह रहे निवासियों के दावों को निपटाने की ज़रूरत थी। व्यक्तिगत भूमि के खिताब (टाइटल) के अलावा, स्थानीय निवासियों को वन अधिकार अधिनियम (एफ़आरए) के तहत वन का सामूहिक खिताब (टाइटल) के अधिकार का दावा करने हक़ था, और स्थानीय स्व-शासन की गारंटी के तहत लोकतांत्रिक तरीक़ों से खनन गतिविधि को अनुमति देने या अस्वीकार करने का अधिकार था जिसे पंचायत के प्रावधानों (अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विस्तार) अधिनियम (पीईएसए) द्वारा गारंटी दी गई है।
हालांकि इस परियोजना को दी गई पर्यावरण मंज़ूरी को रायपुर स्थित वकील और सामाजिक कार्यकर्ता सुदीप श्रीवास्तव ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के समक्ष चुनौती दी थी, साथ ही स्थानीय निवासियों ने भूमि के खिताब (टाइटल) और वन भूमि पर वन अधिकारों के कई दावे पेश किए गए थे। बावजूद लंबित पड़े दावों के राज्य सरकार ने 2012 में खनन लाइसेंस जारी भी कर दिया और किसी की नहीं सुनी।
2013 में खनन शुरू होने के बाद, घाटबर्रा नामक ब्लॉक के एक गांव के लोगों ने वन अधिकार क़ानून (एफ़आरए) के तहत वन भूमि पर अपने सामुदायिक अधिकारों की आधिकारिक मान्यता हासिल कर ली थी। फिर 2014 में, श्रीवास्तव द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए एनजीटी ने अपने फ़ैसले में परियोजना को दी गई वन मंज़ूरी रद्द कर दी थी। ट्रिब्यूनल के आदेश पर दायर की गई एक अपील पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक महीने से भी कम समय में खनन जारी रखने की अनुमति दे दी।
कुछ महीनों बाद, 2014 में ही, केंद्र सरकार ने निजी कंपनियों को आवंटित किए गए कोयला ब्लॉक के अनुचित आवंटन से संबंधित "कोलगेट" घोटाले पर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट (एससी) का दरवाज़ा खटखटाया और उसने कोयला ब्लॉकों के खनन के लिए सभी मौजूदा अनुमतियों को रद्द कर दिया जिसमें परसा पूर्व और कांता बसन ब्लॉक भी शामिल थे।
शीर्ष अदालत के आदेशों के अनुसार, इन ब्लॉकों की नीलामी सरकार द्वारा की जानी थी। जबकि आदेश के मुताबिक़ लगभग सभी ब्लॉक ऐसा करने के लिए आगे बढ़े, लेकिन राजस्थान पावर जेनरेटर ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा मानी गई अवैध व्यवस्था को नहीं माना और उसने अपनी व्यवस्था केवल अडानी समूह के साथ ही नवीनीकृत की।
शीर्ष अदालत के आदेश के कुछ महीने बाद, प्रभावित ब्लॉक के गांवों की ग्राम सभाओं ने वन क्षेत्र में खनन अधिकारों के खनन और नीलामी के लिए भूमि अधिग्रहण के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया, जिसकी प्रतियां छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को भेजी गई थीं। सभा के प्रतिनिधियों ने एफ़आरए के तहत भूमि और जंगल पर अपने सामुदायिक अधिकारों का दावा किया और पीईएसए के तहत निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपनी हिस्सेदारी का अधिकार जताया। पीईएसए के तहत, सरकार को ग्राम सभाओं से अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण करने के लिए पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य है।
इस अवधि के दौरान ब्लॉक में खनन का काम कभी भी नहीं रुका। 2016 में, सर्गुजा के ज़िला प्रशासन ने एकतरफ़ा सामुदायिक वन अधिकारों को रद्द करते हुए आदेश जारी कर दिया जिन्हें घाटबड़ा निवासियों ने पहले ही आधिकारिक मान्यता के द्वारा हासिल किया था। आदेश में कहा गया है कि, “जब प्रशासन ने परसा पूर्व और कांता बसन कोयला ब्लॉक में वनों के डाईवर्जन करने की कोशिश की तो गांव वालों ने कलेक्टर द्वारा उन्हेंं दिए गए भूमि अधिकारों का बेजा इस्तेमाल कर अवरोध पैदा करने और काम को रोकने की कोशिश की।"
कारवां पत्रिका, लैंड कंफ्लिक्ट वॉच, पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, पुलित्जर सेंटर, और स्वतंत्र शिक्षाविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा तैयार की गई विस्तृत रिपोर्ट को वे इच्छुक पाठक पढ़ सकते हैं जो इस मुद्दे की गहराई से पड़ताल करना चाहते हैं।
हसदेव अरंड की रक्षा के लिए आदिवासियों की लड़ाई
ज़मीन पर, मौजूदा और प्रस्तावित परियोजनाओं के ख़िलाफ़ लड़ाई ज़्यादातर आदिवासी समुदायों द्वारा लड़ी जा रही है। कारवां को दिए गए साक्षात्कार में स्वतंत्र पत्रकार चित्रांगदा चौधरी को हसदेव अरंद बचाओ संघर्ष समिति (एचएबीएसएस) के सदस्य जैनंदन सिंह पोर्ते जो संघर्ष का नेतृत्व कर रहे हैं और क्षेत्र के 40 गांवों का समन्वय कर रहे हैं ने कहा, “वन हमारी संस्कृति [संस्कृति] है और हमारी आजीविका हैं। हसदेव हमें बहुत से उत्पाद और भोजन देता है-महुआ, साल, तेंदू पत्ता, चिरौंजी, खिंकड़ी, और लकड़ी [वन उपज जैसे पत्ते, बीज, मशरूम और जलाऊ लकड़ी] आदि।
तेंदू के पत्ते आदिवासी परिवारों को प्रति वर्ष 60,000-70,000 रुपये की आमदनी दे सकते हैं। जब अधिकारी खनन को मंज़ूरी देने का निर्णय लेते हैं तो वे यह सब क्यों नहीं देख पाते हैं? हसदेव हमारा एकमात्र घर है। अगर हम उन्हेंं इस जंगल को दे देंगे, तो हम कहां जाएंगे? फिर हम इसे कभी हासिल नहीं कर पाएंगे।”
क्षेत्र के आदिवासी लोग जो कि अडानी विरोधी आंदोलनों में काफ़ी सक्रिय हैं, उनको पुलिस और राज्य सरकार लगातार माओवादी घोषित करती रहती है, और उनके ख़िलाफ़ पुलिस मुठभेड़ों, राजनीतिक कारावास, और झूठे मामलों को थोपने जैसे क़दम उठाए जाते हैं। कोयला खनन के ख़िलाफ़ कार्यवाही की वकालत करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और वकीलों पर भी उनकी स्वतंत्रता पर चोट की गई और कई तरह के हमलों के प्रयास किए गए है।
कुछ उदाहरण:
सुधा भारद्वाज, जो घाटबरा के गाँव निवासियों के वकील के रूप में क़ानूनी लड़ाई लड़ रही थीं, जिन्होंने देखा कि सामुदायिक वन अधिकारों को सरकार ने रद्द कर दिया था, उन्हेंं माओवादियों से संबंध रखने के आरोप में 2018 में गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया।
पोडिया सोरी और लच्छू मंडावी दो "युवा और सम्मानित नेता ... जो खनन सम्राट अडानी समूह की परियोजनाओं के ख़िलाफ़ लोकप्रिय आंदोलन में सक्रिय थे” उन्हेंं 13 सितंबर, 2019 को पुलिस-गोलीबारी में मार दिया गया था, जिसे एक नागरिक तथ्य-खोज समूह द्वारा फ़र्ज़ी-मुठभेड़ क़रार दिया गया था। पुलिस ने उन्हेंं प्रतिबंधित माओवादी आंदोलन का सदस्य बता दिया था।
समुदाय की प्रमुख नेता, सोनी सोरी, जो मध्य भारत में काम कर रहे कॉरपोरेट्स के ख़िलाफ़ आदिवासी आंदोलनों में हमेशा मौजूद रहती थी, उनकी अडानी समूह के ख़िलाफ़ आदिवासी विरोध प्रदर्शनों में एक महत्वपूर्ण उपस्थिति रही है। वे 13 सितंबर को हुई मुठभेड़ पर नागरिकों की तरफ़ से तैयार रिपोर्ट के लेखकों में से एक थीं, और इस मुद्दे पर उन्होंने कई सार्वजनिक सभाएं भी कीं थी। इस रिपोर्ट के तुरंत बाद, सोरी और अकादमिक और सामाजिक कार्यकर्ता बेला भाटिया के ख़िलाफ़ रिपोर्ट के सह-लेखक होने के नाते और लगभग उन 150 व्यक्तियों के ख़िलाफ़ पुलिस मुक़दमे दर्ज किए जिन्होंने पुलिस मुठभेड़ के तीन दिन बाद पुलिस स्टेशन पर विरोध प्रदर्शन किया था, जहां दोनों कार्यकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट सौंपी थी।
जब सोरी, 5 अक्टूबर को विभिन्न जेलों से रिहा हुए आदिवासियों के सम्मान में आयोजित की जा रही सार्वजनिक सभा में भाग लेने जा रही थीं तो छत्तीसगढ़ पुलिस ने उन्हेंं गिरफ़्तार कर लिया था।
फिर 31 अक्टूबर को पता चला था कि कई भारतीय सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज के सदस्यों के मोबाइल फ़ोन की डिजिटल निगरानी की जा रही है, ऐसा इज़रायली स्पाइवेयर पेगासस की सहायता से किया जा रहा था, जिसे डिजिटल मैसेजिंग कंपनी व्हाट्सएप ने उस तरकीब के रूप में नामित किया, जिसके ज़रीये नागरिक समाज के सदस्य तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं के फोन के ज़रिये दुनिया भर में निगरानी की जा सकती थी। भारत के लक्षित कार्यकर्ताओं के नामों में भाटिया और आलोक शुक्ला शामिल हैं, जो छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक, एक नोडल नागरिक समाजिक संगठन है और जो एचएबीएसएस के सदस्य है। शुक्ला, अडानी समूह के ख़िलाफ़ कोयला खदान से संबंधित आठ साल की लंबी अदालती लड़ाई में याचिकाकर्ता हैं।
इस लेख को लिखने के समय, एचएबीएसएस सरकार द्वारा लगातार किए जा रहे इनकार के ख़िलाफ़ एक महीने से अधिक समय से विरोध कर रहा था, यहाँ तक कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी ग्राम सभा द्वारा पारित प्रस्तावों का सम्मान नहीं कर रहे हैं और नतीजतन लड़ाई जारी है।
एचएबीएसएस की मांग है कि वन क्षेत्र में किसी भी खनन परियोजना को भूमि नहीं दी जानी चाहिए, और कि सर्गुजा और सूरजपुर ज़िलों के कुछ गांवों में पहले से ही शुरू किए गए भूमि अधिग्रहण की अनुमति की प्रक्रिया को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि 2018 के चुनाव में बघेल की लीडरशिप में बनी राज्य सरकार ने सत्ता में आने के बाद भी छत्तीसगढ़ सरकार की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है जबकि राहुल गांधी और बघेल ने 2015 की प्रतिज्ञा ली थी कि कांग्रेस कोयला खदानों के ख़िलाफ़ उनके विरोध में खड़ी रहेगी।
हसदेव अरंद बचाओ संघर्ष समिति की प्रतिक्रिया
'गोंडवाना' आर्टवर्क के अनावरण और इससे संबंधित प्रचार के बारे में अडानी समूह के संरक्षण की ख़बर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, एचएबीएसएस के संयोजक उमेश्वर सिंह अरमो ने फ़ोन पर न्यूज़क्लिक को बताया: कि "एक तरफ़ वे (अडानी समूह) आदिवासी कला को नष्ट करके आदिवासी समाज को तबाह कर रहे हैं और दूसरी तरफ़ वे दावा कर रहे हैं कि वे इस तरह की कला बनाकर आदिवासी कला का सम्मान करते हैं और उसे आगे बढ़ा रहे हैं, तो वे स्पष्ट रूप से ग़लत हैं।”
उन्होंने कहा, “हम निश्चित रूप से इसका विरोध करते हैं। यदि आप आदिवासी कला के कुछ पहलू को फाड़ लेते हैं और किसी अन्य काग़ज़ पर चिपका देते हैं या फिर कहीं और चित्रित कर देते हैं, तो आप दुर्भाग्य से इसे आगे नहीं बढ़ा रहे हैं। कला का विकास इस तरह से नहीं हो सकता है। पहले आदिवासी जीवन और संस्कृति को सुरक्षित करना होगा, तभी इस तरह का काम मददगार साबित हो सकता है। मुझे लगता है कि अडानी अन्य क्षेत्रों के उन लोगों को दिखाने के लिए ऐसा कर रहे हैं जहां उन्हेंं खनन करना है, न कि उनके लिए कुछ कर रहे हैं जो उनकी खदान से प्रभावित हैं। वास्तविकता तो यही है।”
उन्होंने कहा, "इस पर विचार करें: सार्वजनिक सुनवाई के लिए पर्यावरणीय प्रभाव और सामाजिक प्रभाव पर वे जो रिपोर्ट तैयार करते हैं, जिसके आधार पर वे हमारी भूमि अधिग्रहण करने के लिए हमारी सहमति चाहते हैं, वे क्षेत्र में पेड़ों और वन्यजीवों के बारे में बात करते हैं, लेकिन इन रिपोर्टों में इस बात का कोई उल्लेख उल्लेख नहीं है कि वन आदिवासी जीवन के लिए कितना ज़रूरी है।"
"उदाहरण के लिए, कई पौधे और पेड़ हैं जो कुछ निश्चित पारंपारिक महत्व रखते हैं। जैसे कर्मी पौधा जिसकी कि आदिवासी कर्मा त्योहार पर इबादत करते हैं और ताड़ के पौधे को आदिवासी अपने पूर्वजों के लिए इबादत करते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनका इनमें से किसी भी रिपोर्ट में कोई उल्लेख नहीं है। जबकि आप (अडानी) दावा करते हैं कि आप पर्यावरण को बचाएंगे, अगर आप आदिवासी पर्यावरण को नहीं समझ पाएंगे, तो आप आदिवासी कला को कैसे बढ़ावा दे सकते हैं? यह हमारे लिए अच्छा नहीं है, वे अपने स्वयं के कारणों से ऐसे आडंबर करते रहेंगे।"
अडानी ऑस्ट्रेलिया में
22 अक्टूबर को, ऑस्ट्रेलिया में अडानी समूह ने क्वींसलैंड राज्य के सर्वोच्च न्यायालय से दो देशज कार्यकर्ताओं को प्रस्तावित कोयला खदान की साइट पर प्रवेश करने से रोकने का आदेश हासिल किया जो अब अडानी के पास है। दो कार्यकर्ता, एड्रियन बरुगाबा और उनके बेटे, कोडे मैकॉव, वांगान और जगलिंगो (डब्ल्यूएंडजी) के सदस्य हैं, जिसे ऑस्ट्रेलियाई क़ानून के तहत 'प्रथम राष्ट्र' के रूप में मान्यता दी हुई है।
पैतृक भूमि पर देशज संप्रभुता और दावों की मान्यता की ऑस्ट्रेलियाई प्रणाली के तहत, प्रथम राष्ट्र के लोग उस भूमि पर उनके अधिकारों के लिए हक़दार हैं, जो भूमि परंपरागत रूप से उनके पास हैं। अडानी समूह के स्वामित्व में जो भूमि है वह डब्ल्यू एंड जे नेशन की भूमि है। जबकि डब्ल्यू एंड जे के लोगों ने खदान का लगातार विरोध किया है, यह मामला वैसा ही है जैसे छत्तीसगढ़ प्रशासन ने एफ़आरए के तहत हसदेव अरंड के आदिवासी निवासियों के भूमि पर दावों को एकतरफ़ा रद्द कर दिया था, वैसे ही अगस्त 2019 में क्वींसलैंड सरकार ने चुपचाप डब्ल्यू एंड जे लोगों के टाइटल को वहाँ रद्द कर दिया जहां अडानी की खदान है, वह भी पारंपरिक तौर पर भूमि के मालिकों को सूचित किए बिना ऐसा किया गया।
एड्रियन बरुगाबा और कोडे मैकॉव संगठन के अन्य सदस्यों के साथ वांगन और जगलींगौ परिवार परिषद ने जिसने डब्लू एंड जे लोगों को संगठित किया होगा जो खदान से विस्थापित हुए हैं और प्रभावित हैं ने उसी भूमि पर कार्यकर्ताओं और समुदाय के सदस्यों के लिए एक शिविर बनाया था जिस भूमि पर अडानी का स्वामित्व है। क्वींसलैंड सरकार ने खदान पर डब्ल्यूएंडजी नेशन के टाइटल के अधिकार को समाप्त करने के आदेश के बाद, अडानी समूह ने बुरागबा को चेतावनी दी कि उसने अडानी समूह की संपत्ति पर हमला या उस पर गैर-क़ानूनी ढंग से दखल किया है।
ऑस्ट्रेलियाई मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार, कुछ दिनों बाद, अडानी समूह के सुरक्षा गार्डों ने कैंपसाइट में बुरागबाबा और मैकएवॉय के साथ एक मौखिक टकराव को फ़िल्माया, और उस फुटेज को क्वींसलैंड सुप्रीम कोर्ट में एक आदेश को हासिल करने करने के लिए पेश किया, उस पर दिए आदेश ने न केवल बुर्जुगबा और मैकॉव को निर्देशित किया कि वे भूमि पर ग़ैर-क़ानूनी दखल को बंद करें बल्कि अडानी समूह की कंपनी को पूर्व मंज़ूरी के बिना किसी भी डब्ल्यू एंड जे समुदाय के सदस्य को उस साइट पर उनकी ही भूमि पर जाने से गिरफ्तारी की संभावना को खोल दिया।
अडानी समूह की विशाल कोयला खदान को स्थापित करने के लिए, आस्ट्रेलिया में एक रेलवे लाइन और बंदरगाह स्थापित करने के लिए 2019 के दौरान मंज़ूरी मिल गई, एक कंपनी जिसने लगभग एक दशक बाद ही इस अनहोनी को होनी में बदल दिया। कारमाइकल कोयला खदान जिसका नाम रखा गया है, ऑस्ट्रेलिया में और दुनिया की सबसे बड़ी कोयला खदान है। यह क्वींसलैंड में गैलील बेसिन में स्थित है और इसकी 60 वर्षों के लिए एक वर्ष में 60 मिलियन टन कोयले का उत्पादन करने की योजना है, इसका अधिकांश हिस्सा भारत को निर्यात होगा।
अडानी समूह को खदान से एबॉट पॉइंट पोर्ट तक कोयले की ढुलाई के लिए एक रेल लाइन का भी निर्माण करना है, जिसे उसने हासिल भी कर लिया है। नौ वर्षों से जो समूह ऑस्ट्रेलिया में रहा है, वह अब केवल एबट प्वाइंट पोर्ट पर भी सफलतापूर्वक क़ब्ज़ा करने में सक्षम रहा है - परियोजना के शेष हिस्सों में उसे नागरिक समाज के विरोध और अन्य बाधाओं का सामना करना पड़ा है। डब्ल्यू एंड जे लोगों के अलावा, देश में मुख्यधारा की राजनीति का ध्रुवीकरण करने वाली एक बहस भी उस वक़्त छिड़ गई जब किसानों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं और अन्य नागरिक समाज समूहों ने मिलकर अडानी समूह खनन का विरोध किया।
अडानी समूह की खदान छह कोयला खदानों में से पहली है, जिसे गैलील बेसिन में आवंटित किया गया है। एक बार जब छह की छह खुल जाएंगी, तो खदान, रेलवे, बंदरगाह, एक वाणिज्यिक परिसर के रूप में रोज़गार को पैदा करने वाले संपन्न स्रोत बन जाएंगे और समूह के लिए प्रमुख राजस्व पैदा करने वाला स्रोत भी बनने की उम्मीद है। हालांकि, यह परियोजना शुरू से ही काफ़ी विवादित रही है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के ख़तरे को देखते हुए कोयले पर ऊर्जा निर्भरता को कम करने पर ध्यान केंद्रित करना ज़रूरी है। जबकि कोयला देश का एक प्रमुख निर्यात है, हालांकि ऑस्ट्रेलिया ने कोयला उत्पादन को पूरी तरह समाप्त करने के लिए 2015 के पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
पिछले साल तक ऐसा लग रहा था कि विपक्ष लड़ाई जीत रहा है। प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय बैंक और बीमाकर्ता इस परियोजना के वित्तपोषण से काफी सावधान थे, क्योंकि उनमें से कई की घोषित नीतियां थीं कि वे अब कोयले में निवेश नहीं करेंगे। भारतीय स्टेट बैंक के प्रस्तावित 1 बिलियन डॉलर (6,200 करोड़ रुपये) के ऋण जिसकी घोषणा की गई थी, जब 2014 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने गौतम अडानी के साथ ऑस्ट्रेलिया का दौरा किया था, तो वह बाद में क़बूल हो गई।
ऑस्ट्रेलिया में मूल देशज लोगों के टाइटल और संप्रभुता प्रणाली का मतलब था कि खदान के लिए डब्ल्यू एंड जे यानी फ़र्स्ट नेशन के लोगों की सहमति अनिवार्य थी। समुदाय मज़बूती से अवरोधक के रूप में खड़ा था क्योंकि ये सब परियोजना का लगातार विरोध कर रहे थे। इसके अलावा, कई मंज़ूरी जिन्हें कि अडानी समूह की कंपनी द्वारा ऑपरेशन शुरू करने से पहले आवश्यक थी जैसे कि पर्यावरणीय आपत्तिय आदि, मुक़दमेबाज़ी में फंस गई, और "स्टॉप अडानी" के नारे के तहत किए गए एक भयंकर सार्वजनिक अभियान ने कार्मिकेल खदान को एक प्रतीक के रूप में बदल दिया था। जलवायु परिवर्तन पर बड़ी बहस छिड़ गई और ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रीय राजनीति के सभी केंद्रीय मुद्दों में से एक बन गया।
जून में, हालांकि, स्थिति बिगड़ने लगी, क्योंकि अडानी ऑस्ट्रेलिया ने घोषणा की कि उसने कारमाइकल खदान के संचालन के लिए सभी आवश्यक मंज़ूरी ले ली है। जुलाई में, एक संघीय न्यायालय ने 'देशज भूमि उपयोग समझौते' को बरक़रार रखा, जिसके तहत अडानी को भूमि के उपयोग के लिए डब्ल्यू एंड जे नेशन से मंज़ूरी लेना ज़रूरी था।
जबकि सरकार और अडानी इस बात पर ज़ोर दे रहे थे कि समझौते पर डब्ल्यू एंड जे नेशन हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र के अधिकृत और वैध प्रतिनिधि हैं, यद्यपि डब्लूजेएफ़सी ने इसे "दिखावा" क़रार दिया है। उन्होंने सवाल किया कि क्या हस्ताक्षरकर्ता डब्ल्यूएंडजी क़ानूनों और परंपरा के तहत हक़दार हैं, और क्या वे मौद्रिक क्षतिपूर्ति के एवज में भूमि को डब्ल्यू एंड जे की तरफ़ से हस्ताक्षर करने का निर्णय ले सकते हैं?
भारतीय पाठक कंपनियों के उन सभी तौर-तरीक़े को जानते हैं जिसके ज़रिये वे अपने 'सामुदायिक प्रतिनिधियों' को सार्वजनिक सुनवाई में शामिल करने के लिए ख़रीदते है और स्थानीय समुदायों के नाम पर 'सहमति' तैयार करते है जबकि वास्तविक स्थानीय समुदाय से परामर्श किए बिना कई तरह के हथकंडे अपनाते हैं, ताकि आबादी की सहमति प्राप्त करने के लिए स्थानीय निवासियों की ज़रूरत ही न पड़े। डब्लूजेएफ़सी का यहाँ दावा तुलनीय है।
अगस्त में, क्वींसलैंड सरकार द्वारा डब्ल्यू एंड जे नेशन के टाइटल अधिकारों को रद्द करने के तुरंत बाद अडानी समूह के क़ब्ज़े में लेने के लिए साइट खोल दी गई। जैसा कि लग रहा है कि साइट पर खनन जल्द ही शुरू होने की उम्मीद है, हालांकि डब्ल्यूजेएफ़सी ने अडानी समूह के ख़िलाफ़ संघर्ष जारी रखने की प्रतिबद्धता को दोहराया है।
डब्ल्यू एंड जे परिवार परिषद की प्रतिक्रिया
यह वह पृष्ठभूमि है जिसके ज़रिये ऑस्ट्रेलियाई स्वदेशी कला के संरक्षक के रूप में समूह में आई जाग्रति को डब्लूजेएफ़सी देख रहा है।
एड्रियन बरगुबा ने डब्लूजेएफ़सी परिवार की तरफ़ से अडानी समूह के अहमदाबाद मुख्यालय में ‘गोंडवाना’ के अनावरण पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए न्यूज़क्लिक को निम्नलिखित बयान भेजा।
"जब कला व्यापार से मिलती है, अडानी के मामले में तो यह केवल उस तरीक़े को उजागर करता है जिसके ज़रिये वास्तविक रचनात्मकता और क्रॉस-सांस्कृतिक बंधन को ख़रीदा जा सकता है और उसका भुगतान किया जा सकता है ताकि कॉर्पोरेट समूह के द्वारा देशज और पारंपरिक समुदायों के साथ हानिकारक व्यवहार किया जा सके।
डब्ल्यू एंड जे नेशन के लोग मज़बूत कला, संस्कृति और क़ानून वाले लोग हैं, जो अपनी भूमि और पानी के साथ अपने पैतृक संबंधों के माध्यम से हज़ारों वर्षों से रह रहे हैं। हम कलाकार ओटो जुंगरेरी सिम्स और पैट्रिक जपांगार्डी विलियम्स का सम्मान करते हैं, जिन्होंने गोंड कलाकार, पद्म श्री भज्जू श्याम के साथ सहयोग किया था।
'गोंडवाना', हो सकता है कि एक ऐसी कलाकृति है जो भारत और ऑस्ट्रेलिया की कला को एक साथ ला सकती है, लेकिन ऑस्ट्रेलिया में अडानी की कॉर्पोरेट उपस्थिति ऐसी है जो समुदायों को विभाजित करती है, हमारे पवित्र स्थलों को नष्ट करती है, और खुद के लाभ के लिए हमारी भूमि और पानी को बर्बाद करती है, और हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हासिल मानवाधिकार की गारंटी से इंकार करती है’।
हम जानते हैं कि भारत में भी ऐसे पारंपरिक समुदाय हैं जो इसी कॉर्पोरेट हमले का ख़ामियाज़ा भुगत रहे हैं जो हमारे ही भाईबंद हैं। गौतम अडानी की खनन कंपनी भारत के आदिवासियों के जीवन पर बहुत ख़राब असर डालेगी, जिसमें गोंडवाना का नाम भी शामिल है, जिसके बाद वह कोयला के लिए हसदेव अरंड जंगल में उनके घरों को नष्ट करने के लिए आगे बढ़ेगा, और उनका विनाश करने के लिए उनके प्रतिरोध को तोड़ देगा।
अडानी कॉर्पोरेशन हमारे देश ऑस्ट्रेलिया से गोड्डा यानी पूर्वी भारत तक कोयला जहाज़ के ज़रिये भेजने की योजना बना रहा है, जहाँ वह आदिवासी लोगों को उनकी अपनी ज़मीन से बेदख़ल कर रहा है, किसान की आजीविका को नष्ट कर रहा है और अपने बिजली स्टेशन को बनाने के लिए मानव अधिकारों की अवहेलना कर रहा है।”
राजीव सेठी की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं
न्यूज़क्लिक ने 8 नवंबर को टिप्पणी पाने के लिए पहले राजीव सेठी को ईमेल भेजा था, उसके बाद ईमेल के माध्यम से उन्हें लिखित प्रश्न 13 नवंबर को भेजे गए। प्रकाशन के समय तक उनसे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली; प्रतिक्रिया मिलने पर इस लेख को अपडेट किया जाएगा।
लेखक मुंबई स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
Adani Group: Expropriating Indigenous Lands, Appropriating Indigenous Art?
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