जाति के सवाल पर भगत सिंह के विचार
भगत सिंह की जाति-व्यवस्था पर जो विवेचना है वह ज्योतिबा फुले और बाबा साहब अंबेडकर के परंपरा की है। फुले और अंबेडकर के तरह भगत सिंह भी यह मानते थे कि जाति व्यवस्था की जड़ें हिंदू धार्मिक ग्रंथों में निहित हैं।
भगत सिंह जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता और इनके मूल सिद्धांत 'शुद्धता-अशुद्धता' को हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) का एक अभिन्न अंग मानते थे। इस सिद्धांत की आलोचना करते हुए अपने 1924 के एक लेख 'अछूत समस्या' की शुरुआत में वे लिखते हैं, "हमारे देश- जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश के नहीं हुए। यहाँ अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं। एक अहम सवाल अछूत-समस्या है। समस्या यह है कि 30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जो 6 करोड़ लोग अछूत कहलाते हैं, उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा! उनके मन्दिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएं से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआँ अपवित्र हो जाएगा!” इसी लेख में आगे चल कर वह लिखते हैं, “…बीसवीं सदी में भी पण्डित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने से इनकार कर देते हैं …” यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि भगत सिंह ने इस बात पर भी बल दिया कि भारत में इस्लाम में भी जातीय मानसिकता घुस चुकी है।
इस प्रचलित सोच और मान्यता कि ‘अछूत’ कहे जाने वाले इंसानों के स्पर्श मात्र से सवर्णों का धर्म भ्रष्ट हो जाएगा, पर कटाक्ष करते हुए भगत सिंह अपने एक लेख में लिखते है, "कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है। हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन एक इन्सान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है।” उनके अनुसार सनातन धर्म के आधार पर ही समाज में अस्पृश्यता और जाति व्यवस्था को वैधता और बल मिलता है। और इसलिए अस्पृश्यता से लड़ने के लिये धर्म से लड़ना पड़ेगा।
भगत सिंह के अनुसार सनातन धर्म में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं थी। इस मामले में दयानन्द सरस्वती द्वारा चलाये गए समाज सुधार आंदोलन को उद्दृत करते हुए भगत सिंह लिखते हैं, “…लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाये। बहुत खूब! अछूत को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाये। भेदभाव तो फिर भी रहा ही।”
भगत सिंह के जाति व्यवस्था के आलोचना के केंद्र में पुनर्जन्म और कर्म का सिद्धांत है। उनके अनुसार इन दोनों सिद्धांतों का काम जाति व्यवस्था से हो रहे भीषण अत्याचार के कारण उत्पन्न होने वाले आक्रोश और क्रोध को शांत करना था। अपने लेख 'अछूत समस्या' में वह लिखते है, “…हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तथा उन्हें नीच कह कर दुत्कार दिया एवं निम्नकोटि के कार्य करवाने लगे। साथ ही यह भी चिन्ता हुई कि कहीं ये विद्रोह न कर दें, तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि यह तुम्हारे पूर्व जन्म के पापों का फल है। अब क्या हो सकता है? चुपचाप दिन गुजारो! इस तरह उन्हें धैर्य का उपदेश देकर वे लोग उन्हें लम्बे समय तक के लिए शान्त करा गए। लेकिन उन्होंने बड़ा पाप किया…”
अपनी इसी समझ को दोहराते हुए सन 1930 के लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ?' में लिखते हैं, “…और तुम हिन्दुओं, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताकत है…”
इस सिद्धांत का निर्माण, भगत सिंह के अनुसार “विशेषाधिकार युक्त लोगों ने अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी तथा उच्चता” को सही ठहराने के लिए किया था।
समाज सुधार आंदोलनों की आलोचना
भगत सिंह ने अपने दौर में सवर्ण नेतृत्व में चल रहे समाज सुधार आंदोलनों की कड़ी आलोचना की। उनके अनुसार वे सब आंदोलन ढकोसला मात्र थे जिनका मकसद सतही स्तर पर दिखावा करना था। बदलाव उनका मकसद नहीं था। मदन मोहन मालवीय द्वारा चलाये जा रहे ऐसे एक अभियान पर भगत सिंह लिखते हैं, "इस समय मालवीय जी जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किये बिना स्वयं को अशुद्ध समझते हैं! क्या खूब यह चाल है!"
इन समाज सुधार आंदोलनों जिसमें हिन्दू-मुस्लिम-सिख धर्मों के नेता शामिल थे, का असली कारण भगत सिंह मार्ले-मिन्टो सुधार द्वारा प्रस्तावित भारत परिषद अधिनियम 1909 को मानते थे जिसमें मुसलमानों को जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिए जाने का प्रावधान था। इस अधिनियम में सन 1919 बदलाव करके सिख और भारतीय ईसाइयों को भी शामिल कर लिया गया था जिसके बाद सभी समुदायों में ‘अछूतों’को अपना बनाने के लिए होड़ लग गयी।
भगत सिंह लिखते हैं, "…अधिक अधिकारों की माँग के लिए अपनी-अपनी कौमों की संख्या बढ़ाने की चिन्ता सबको हुई। मुस्लिमों ने जरा ज्यादा जोर दिया। उन्होंने अछूतों को मुसलमान बना कर अपने बराबर अधिकार देने शुरू कर दिए। इससे हिन्दुओं के अहम को चोट पहुँची। स्पर्धा बढ़ी। फसाद भी हुए। धीरे-धीरे सिखों ने भी सोचा कि हम पीछे न रह जायें। उन्होंने भी अमृत छकाना आरम्भ कर दिया। हिंदू-सिखों के बीच अछूतों के जनेऊ उतारने या केश कटवाने के सवालों पर झगड़े हुए। अब तीनों कौमें अछूतों को अपनी-अपनी ओर खींच रही है। इसका बहुत शोर-शराबा है। उधर ईसाई चुपचाप उनका रुतबा बढ़ा रहे हैं।"
हालाँकि अलग-अलग समुदायों में ‘अछूतों’ को अपना बनाने की लगी होड़ की वजह से बहुत दंगे फसाद हुए, लेकिन भगत सिंह उसको एक सही दिशा में कदम मानते थे क्योंकि इस होड़ की वजह से ‘अछूतों’को अपनी शक्ति का एहसास हुआ।
पृथक निर्वाचक मंडल का समर्थन
भगत सिंह पृथक निर्वाचक मंडल के प्रबल समर्थक थे। उनके अनुसार जाति प्रथा और अस्पृश्यता को जब तक पूरे तरीके से समाप्त नहीं किया जाता तब तक इन कुरीतिओं से पीड़ित समुदायों को खुद को संगठित करके अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए। वह लिखते हैं, "हम तो समझते हैं कि उनका स्वयं को अलग संगठन बद्ध करना तथा मुस्लिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की माँग करना बहुत आशाजनक संकेत हैं...कौंसिलों और असेम्बलियों का कर्तव्य है कि वे स्कूल-कालेज, कुएँ तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतन्त्रता उन्हें दिलाएं। जबानी तौर पर ही नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुँओं पर चढ़ाएं। उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलाएं।"
भगत सिंह के पृथक निर्वाचन मंडल के समर्थन का दूसरा कारण यह था, कि वो इस बात को नहीं मानते थे कि जो सवर्ण समुदाय विधान मंडल में बाल विवाह जैसी प्रथा को समाप्त करने का विधेयक का विरोध कर सकता है वह ‘अछूतों’के हित में कुछ कर पाएगा। वह लिखते हैं, "... जिस लेजिस्लेटिव में बाल विवाह के विरुद्ध पेश किए बिल तथा मजहब के बहाने हाय-तौबा मचाई जाती है, वहाँ वे अछूतों को अपने साथ शामिल करने का साहस कैसे कर सकते हैं?...इसलिए हम मानते हैं कि उनके अपने जन-प्रतिनिधि हों। वे अपने लिए अधिक अधिकार माँगें।”
हालाँकि पृथक निर्वाचन मंडल एक सही दिशा में कदम था, लेकिन भगत सिंह यह भी मानते थे कि ‘अछूत’ समस्या का हल सिर्फ और सिर्फ जन-क्रांति से हो सकता था। उनका मानना था कि तमाम ‘अछूत’ कहे जाने वाले लोग ही देश के असली सर्वहारा हैं और उनकी मुक्ती में ही देश की मुक्ती है। ‘अछूत’ कहे जाने वाले समुदायों को सम्बोधित करते हुए वह लिखते हैं, “तुम असली सर्वहारा हो... संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ भी हानि न होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी। उठो, और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होनेवाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आन्दोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोए हुए शेरों! उठो और बगावत खड़ी कर दो।”
जाति प्रथा और अस्पृश्यता से व्यवहारिक लड़ाई
आज के दौर में अम्बेडकरवादी आंदोलन से एक महत्वपूर्ण सवाल बार-बार उभर कर है कि क्या जाति और छुआछूत बनाने वालों को देश और मानवता से माफी मांगनी चाहिए? अपने समय में शायद भगत सिंह को भी इस सवाल से सामना करना पड़ा होगा, और वो जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं वो सही मायनों में क्रांतिकारी है। भगत सिंह और उनके साथियों ने सन 1926 में 'नौजवान भारत सभा' की स्थापना नौजवानों को संगठित करने और उनके बीच साम्यवादी विचार के प्रसार-प्रचार के उद्देश्य से की थी। इसके अलावा नौजवान भारत सभा का उद्देश्य जातिगत शोषण से लड़ने और उसके खिलाफ रोज़मर्रा के जीवन में संघर्ष करना भी था जिसके तहत यह सभा सामूहिक भोजनों का आयोजन करती थी, जिसमें सभी धर्म और जाति के लोगों को निमंत्रित किया जाता था और सबको साथ में खाना परोसा जाता था।
लेकिन इसके अलावा नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ता जो "ऊपरी" जातियों से आते थे वे ‘अछूत’ समझे जाने वाले लोगों से अपने पूर्वजों द्वारा उनपर किये गए ऐतिहासिक शोषण के लिए माफ़ी भी मांगते थे। इस पहलू पर भगत सिंह लिखते हैं, “नौजवान भारत सभा तथा नौजवान कांग्रेस ने जो ढंग अपनाया है वह काफी अच्छा है। जिन्हें आज तक अछूत कहा जाता रहा उनसे अपने इन पापों के लिए क्षमायाचना करनी चाहिए तथा उन्हें अपने जैसा इन्सान समझना, बिना अमृत छकाए, बिना कलमा पढ़ाए या शुद्धि किए उन्हें अपने में शामिल करके उनके हाथ से पानी पीना,यही उचित ढंग है। और आपस में खींचतान करना और व्यवहार में कोई भी हक न देना, कोई ठीक बात नहीं है।”
ऊपरी कथन से हम देख सकते हैं कि भगत सिंह का यह भी मानना था कि ‘अछूतों’ को इंसान और बराबर का समझने के लिए किसी भी प्रकार के शुद्धिकरण की जरूरत नहीं थी; उनका इंसान होना ही उनकी बराबरी का पैमाना था।
(लेखक जेएनयू में समाजशास्त्र के शोधार्थी हैं)
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