युद्ध, खाद्यान्न और औपनिवेशीकरण
युद्ध कहां और अकाल कहां?
खाद्यान्न की इसी आपूर्ति में अब युद्ध की वजह से खलल पड़ रहा है और यह खलल आगे भी चलते रहने वाला है क्योंकि युद्ध की मार इन देशों में गेहूं की पैदावा पर भी पड़ रही है। अकेले यूक्रेन से ही दुनिया के मकई के निर्यात का करीब 20 फीसद हिस्सा आता है और यह निर्यात भी खतरे में पड़ गया है, जिससे इन निर्यातों पर निर्भर कई देशों में खाद्यान्न की उपलब्धता खतरे में पड़ गयी है। इसके अलावा, सभी जानते हैं कि रूस अनेक देशों की उर्वरक आपूर्तियों का स्रोत है और रूस से उर्वरकों की आपूर्ति में विघ्र पड़ने से, विश्व बाजार में खाद्यान्नों की कीमतें और बढ़ जाने वाली हैं और खाद्यान्न की उपलब्धता घट जाने वाली है।
रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने से पहले, फरवरी के महीने की जो स्थिति थी, उसकी तुलना में 8 अप्रैल तक मुख्य आहार के रूप में प्रयोग किए जाने वाले खाद्यान्नों की कीमतें 17 फीसद बढ़ चुकी थीं और इस तरह करोड़ों और लोगों को अकाल के संकट की ओर धकेला जा चुका है। आने वाले दिनों में यह संख्या और बढ़ जाने वाली है। इस संकट की चपेट में सबसे ज्यादा पश्चिम एशिया तथा अफ्रीका के देश हैं। यमन, इथोपिया, सोमालिया, सूडान, दक्षिण सूडान, नाइजीरिया, डैमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो और अफगानिस्तान, खासतौर पर इसकी मार में हैं। विशेषज्ञों द्वारा कुछ अर्सा पहले से ही इस खतरे की चेतावनियां दी जा रही थीं। लेकिन, जहां वास्तव में युद्धग्रस्त क्षेत्र में हो रही प्राणों की हानि पर काफी चिंता की जा रही है, आम तौर पर दुनिया का और खासतौर पर पश्चिमी दुनिया का इसकी ओर शायद ही ध्यान गया है कि खाद्यान्न उपलब्धता में इस गिरावट से, युद्धग्रस्त क्षेत्र से बहुत दूर-दूर तक के देशों में कैसे युद्धग्रस्त क्षेत्र से कहीं ज्यादा जानें जा सकती हैं।
और इस सब के बीच जो असली सवाल है, जो अब तक पूछा नहीं जा रहा है वह यह है कि आखिर क्या वजह है कि दुनिया के कुछ देश अकालों के इस कदर चपेट में आ गए हैं कि खाद्यान्नों की आपूर्ति में दुनिया में कहीं भी कोई खलल पड़ती है, तो इन देशों में बड़ी संख्या में जानें जाने का खतरा पैदा हो जाता है? संक्षेप में यह कि क्या वजह है कि यह दुनिया में ‘अकाल के लिए वेध्य’ देश बने हुए हैं।
अकाल के खतरे की असली वजह
इस सवाल का पहली नजर में जो जवाब दिखाई देता है वो तो यही है कि ये देश तो खुद ही युद्ध की मार झेल रहे हैं। चाहे अफगानिस्तान हो, सूडान या हॉर्न ऑफ अफ्रीका कहलाने वाले क्षेत्र, उनका युद्धों का इतिहास रहा है और यह इतिहास वर्तमान समय तक चल रहा है। इसलिए, अकाल के खतरे के लिए इन देशों की वेध्यता, उनके इस इतिहास की वजह से पड़े खलल का ही नतीजा है। लेकिन, इस खतरे की यह व्याख्या चलने ही वाली नहीं है। इस संदर्भ में युद्ध की श्रेणी में हमें अंदरूनी बगावत को या जिसे सामान्य रूप से आतंकवाद कहा जाता है, उसे भी शामिल करके चलना चाहिए। लेकिन, इससे दो सवाल उठते हैं। पहला तो यही कि इन मामलों में खुद बगावत को भी बाहरी कारकों से प्रेरित परिघटना मानकर नहीं चला जा सकता है। यह परिघटना तो गरीबी व खाद्य सामग्री की अनुपलब्धता से इस तरह जुड़ी हुई हैं तथा उसपर आधारित हैं कि इससे खाद्यान्न की अनुपलब्धता की स्वतंत्र व्याख्या नहीं की जा सकती है।
दूसरी बात यह है कि कहीं व्यापक अर्थ में युद्ध, जहां युद्ध के दायरे में हम बगावतों को भी समेट लें तो, करीब-करीब समूची तीसरी दुनिया की पहचान कराने वाली विशेषता हैं। तब क्या वजह है कि तीसरी दुनिया के कुछ ही देशों को इस तरह के अकाल के लिए वेध्य माना जाता है, जबकि दूसरे देशों को इस तरह से वेध्य नहीं माना जाता है?
कुछ देशों के ही अकाल के लिए इस तरह वेध्य माने जाने की असली वजह यह है कि इन देशों ने साम्राज्यवाद की मांग पर, अपनी ‘खाद्य सुरक्षा’ को कुर्बान कर दिया था।
उपनिवेशवाद के बाद तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों ने, जिनमें औपनिवेशिक दौर में उनके प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन तथा उपलब्धता में तीखी गिरावट आयी थी, (यही वह परिघटना है जो औपनिवेशिक दौर में बार-बार आने वाले अकालों के लिए जिम्मेदार थी) खाद्यान्न का अपना घरेलू उत्पादन बढ़ाने की कोशिश की थी। इसे उपनिवेशवाद का एक आवश्यक हिस्सा तथा उचित समझा जाता था कि ये देश अपने घरेलू खाद्यान्न उत्पादन तथा उपलब्धता में बढ़ोतरी करें। बहरहाल, साम्राज्यवाद द्वारा इन देशों की इस प्रकार की कोशिशों का विरोध किया जा रहा था। और यह विरोध ‘तुलनात्मक अनुकूलता’ की एक सरासर फर्जी दलील के आधार पर किया जाता था। इसके आधार पर तीसरी दुनिया के देशों को न सिर्फ यह ‘परामर्श’ दिया जाता था कि खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता की तलाश को छोड़ दें बल्कि इसे विश्व व्यापार संगठन के एजेंडा में भी शामिल कराया गया था। विश्व व्यापार संगठन का एजेंडा यह कहता है कि इन देशों में भूमि का उपयोग, बाजार के संकेतों से ही संचालित होना चाहिए न कि खाद्य आत्मनिर्भरता हासिल करने के किसी प्रकार के लक्ष्य से।
खाद्य आत्मनिर्भरता की कुरबानी और साम्राज्यवाद
अब स्थिति यह है कि विकसित पूंजीवादी देशों में कुछ खाद्यान्नों की स्थायी रूप से अतिरिक्त पैदावार होती है, जबकि अनेकानेक उष्ण कटिबंधीय या समशीतोष्ण कटिबंधीय फसलें, जैसे ताजा सब्जियां, फल, रेशे वाली वनस्पतियां, शक्कर देने वाली फसलें, तिलहन, पेय पदार्थ तथा मिर्च-मसाले इन देशों में या तो पैदा हो ही नहीं सकते हैं और पैदा होते भी हैं तो पर्याप्त मात्रा में या पूरे साल पैदा नहीं होते हैं। इसलिए, तीसरी दुनिया के देशों में, जो कि मोटे तौर पर उष्ण कटिबंधीय तथा समशीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र में पडऩे वाले देश हैं, भूमि उपयोग के पैटर्न को बदलवाना, उन्नत पूंजीवादी देशों के लिए दुहरे फायदे का सौदा है। पहली बात तो यह कि इसके जरिए, तीसरी दुनिया के देशों को खाद्यान्न का आयात करने के लिए मजबूर करने के जरिए, उन्नत देशों को अपने अतिरिक्त खाद्यान्न को खपाने का मौका मिल जाता है। दूसरे, तीसरी दुनिया में खेती की जमीनों को, जो पहले खाद्यान्न उत्पादन के लिए ही समर्पित थीं, अब ऐसी दूसरी फसलें पैदा करने के लिए उपलब्ध कराया जाता है, जिनकी विकसित देशों से मांग आ रही हो और इसमें अब जैव-ईंधन के उत्पादन के लिए संसूचित फसलें भी आती हैं।
अफ्रीका ने इस साम्राज्यवादी मांग को तीसरी दुनिया के दूसरे सभी हिस्सों के मुकाबले कहीं तत्परता से मान लिया था। और अचरज की बात नहीं है कि खाद्य सुरक्षा के पहलू से ‘वेध्य देशों’ की सूची में अफ्रीकी उदाहरणों की ही भरमार है। उक्त सूची में आने वाले देशों में से यहां हम सिर्फ दो को ही उदाहरण के तौर पर लेना चाहगे। इनमें एक तो नाइजीरिया है, जो आबादी के पहलू से अफ्रीका का सबसे बड़ा देश है। उसकी आबादी 20 करोड़ से ज्यादा है। दूसरा देश केन्या है, जिसे अब से थोड़े से अर्से पहले तक ओईसीडी द्वारा ‘उदारीकरण’ की ‘कामयाबी के उदाहरण’ के तौर पर पेश किया जाता रहा था।
तुलनात्मक अनुकूलता का झांसा और अफ्रीका में अकाल
खाद्य व कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, 2014-16 को आधार स्तर यानी 100 अंक मानें तो, नाइजीरिया के लिए कुल प्रतिव्यक्ति अनाज उत्पाद सूचकांक, जो 1990 में 129.37 था, 2019 तक गिरकर 101.09 अंक रह गया था यानी तीन दशकों में ही 20 फीसद से ज्यादा नीचे खिसक गया था। और केन्या में, 2014-16 को ही आधार यानी 100 अंक मानने पर, इसी दौर में 20 फीसद से ज्यादा की गिरावट दर्ज हुई है और 1990 के 132.82 अंक से गिरकर, 2019 में यह सूचकांक 107.97 अंक पर आ गया था। केन्या के मामले में अगर हम और पीछे 1980 से तुलना करें तो यह गिरावट और भी भारी दिखाई देती है। 1980 में यह सूचकांक 155.96 अंक बैठता है और इस तरह सिर्फ चार दशकों में इसमें 30 फीसद से ज्यादा की गिरावट हुई है! घरेलू खाद्यान्न उत्पाद में यह भारी बढ़ोतरी और इसके चलते आयातों पर बहुत ज्यादा निर्भरता ही है जो देशों को अकालों के लिए वेध्य बनाती है।
यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि किस तरह ‘तुलनात्मक अनुकूलता’ की सारी बतकही, पूरी तरह से फर्जी है। बेशक, ‘तुलनात्मक अनुकूलता’ की संकल्पना ही अवधारणा के तौर पर त्रुटिपूर्ण है। जब कोई एक देश कोई खास माल पैदा ही नहीं कर सकता हो, तुलनात्मक बढ़त को तो परिभाषित करना संभव ही नहीं है। दूसरे ढंग से कहें तो ‘तुलनात्मक अनुकूलता’ पर यानी इस धारणा पर आधारित व्यापार कि किसी भी देश को उस चीज का निर्यात करना चाहिए जो वह सस्ते में पैदा कर सकता हो और जो पैदा नहीं कर सकता हो उनका आयात करना चाहिए, यह मानकर चलता है कि व्यापार से पहले सभी देश सभी माल पैदा करते होंगे। इसके अलावा, जब ‘तुलनात्मक अनुकूलता’ खुद सापेक्ष ‘कारक सम्पन्नताओं’ से निकलती हों, जो खुद ही परिवर्तनीय हों, जो मिसाल के तौर पर पूँजी संचय के जरिए बदल सकते हों, तब तो ‘तुलनात्मक अनुकूलता’ के हिसाब से व्यापार , इस तरह की कारक सम्पन्नताओं के पक्ष में बदलावों को ही रोक रहा होगा। यह तो संबंधित देश के उत्पादन के पैटर्न का जहां का तहां जमा दिया जाना होगा, जिसमें ‘पूंजी दरिद्र’ तथा श्रम-संपन्न देश ही नुकसान में रहेगा।
लेकिन, अगर हम ‘तुलनात्मक अनुकूलता’ पर इन बुनियादी आपत्तियों को भी अनदेखा ही कर दें तथा इस सिद्घांत के पैरोकारों द्वारा इसके पक्ष में किए जाने वाले दावों को सच मानकर ही चलें, तब भी ‘तुलनात्मक अनुकूलता’ का ही अनुसरण करना और खाद्यान्न जैसे अति-आवश्यक माल के मामले में आयात पर निर्भर हो जाना तो, किसी भी देश के लिए आत्मघाती ही होगा। दुनिया में कितनी ही तरह के अपूर्वकल्पित घटनाक्रम, जिन पर संबंधित देश का अपना कोई नियंत्रण ही नहीं हो, ऐसे देश की जनता को अकाल का शिकार बना सकते हैं।
उपनिवेशविरोधी संघर्ष और खाद्य सुरक्षा का लक्ष्य
इस सरल सी सच्चाई को हर जगह उपनिवेशविरोधी संघर्ष ने समझा। इन संघर्षों में तो यह मानकर चला जाता था और उचित ही ऐसा मानकर चला जाता था कि स्वतंत्रता का अर्थ, कम से कम खाद्यान्न के उपभोग के एक न्यूनतम स्तर पर खाद्यन्न के मामले में आत्मनिर्भर होना था। इस समझ के हिसाब से ऐसी आत्मनिर्भरता अगर हरेक देश में अलग-अलग हासिल नहीं भी की जा सकती हो तब भी कम से कम तीसरी दुनिया के देशों के समुदाय में, उन्हें मिलाकर एक ‘खाद्य समुदाय’ कायम करने के रूप में तो हासिल की ही जा सकती थी। और ये देश इसी दिशा में प्रयत्न कर रहे थे। बहरहाल, अफ्रीका को साम्राज्यवाद ने इस लक्ष्य को त्यागने के लिए मजबूर कर दिया ओर दुर्भाग्य से उसे आज इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है और उसके सिर पर अकाल का खतरा मंडरा रहा है।
भारत में उपनिवेशोत्तर दौर के शुरू के नियोजन में घरेलू खाद्य उत्पादन बढ़ाने की कोशिश के बावजूद, जिसका प्रकटीकरण ‘अधिक अन्न उपजाओ’ अभियान में हुआ था, मजबूरी में पीएल-480 योजना के तहत, अमरीका से खाद्यान्न खरीदना पड़ा था। साठ के दशक के भीषण सूखों के बाद ही, सत्तासीन सरकारों की समझ में ‘खाद्य संप्रभु’ होने की महत्ता आयी थी और हरित क्रांति को, उसकी दूसरी चाहे जो भी खामियां रही हों, इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए ही लागू किया गया था। उसके बाद से ही साम्राज्यवाद की ओर से भारत की ‘खाद्य संप्रभुता’ को अनकिया करने की लगातार कोशिशें की जाती रही हैं। और इसके लिए साम्राज्यवाद को मोदी सरकार के रूप में एक औजार भी मिल गया है, जिसने उस न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था को पलटवाने के लिए कृषि कानून पारित कराए थे, जो कि भारत की ‘खाद्य संप्रभुता’ के पीछे मुख्य आधार है। बहरहाल, बहादुरीपूर्ण किसान संघर्ष ने इस आफत को टाल दिया और सरकार को तीन कृषि कानून वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। इस तरह कम से कम कुछ समय के लिए तो ‘खाद्य संप्रभुता’ बची हुई है। लेकिन, अगर इसे बचाए रखना है तो जनता को अनथक रूप से चौकन्ना बना रहना होगा।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
War, Food, Decolonisation and Why India Needs to Thank its Farmers
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