सुनीत चोपड़ा : हर इंसान में एक संभावित क्रांतिकारी खोजने वाले मार्क्सवादी
सुनीत चोपड़ा को हर व्यक्ति में एक क्रांतिकारी नज़र आता था, उनके लिए हर व्यक्ति क्रांति के लिए योगदान कर सकता है और किसी न किसी तरह से वह बदलाव का हिस्सा बन सकता है। सुनीत चोपड़ा, ऊर्जा से भरे हुए, सकारात्मकता से लबरेज़, बिना डिगे मार्क्सवाद को सिद्धांत और अभ्यास में जीने वाले एक क्रांतिकारी थे, जो पिछले 4 अप्रैल को इस दुनिया को अलविदा कह गए। सुनीत चोपड़ा का जन्म 1941 में लाहौर के एक व्यापारी परिवार हुआ था। देश के विभाजन के दौरान उनके परिवार को सांप्रदायिक ताकतों द्वारा उकसाए गए क्रूर संघर्षों में भारी नुकसान उठाना पड़ा। धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति उनकी दृढ़ प्रतिबद्धता और सांप्रदायिक-फासीवादी ताकतों का कड़ा विरोध उनके अपने अनुभवों से निकला था। सुनीत एक मेधावी छात्र थे जिन्हें कई शैक्षणिक पुरस्कार भी मिले। छात्र जीवन में ही वह प्रगतिशील मूल्यों के प्रति आकर्षित हो गए थे। उन्होंने स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (SOAS), लंदन में प्रवेश लिया।
लंदन में उन्हें दुनिया भर के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों और आंदोलनों के संपर्क में आने का मौका मिला। उन्होंने लंदन में साम्राज्यवाद विरोधी सच्ची भावना विकसित की। इसी दृढ़ प्रतिबद्धता के चलते अपनी बहन के साथ उन्होंने साम्राज्यवादी इज़रायल के ख़िलाफ़ आंदोलन में, फिलिस्तीन के पक्ष में यासिर अराफात और उनके साथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हिस्सा लिया। यूरोप के विभिन्न महानगरीय आंदोलन में छात्र विद्रोह के अपने गहन अवलोकन से सुनीत ने वर्गीय राजनीति और संगठित वामपंथ के महत्व को समझा। 1970 के दशक की शुरुआत में भारत लौटने के बाद वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) में शामिल हो गए। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय स्टूडेंट्स यूनियन के संविधान का मसौदा तैयार करने में उन्होंने भूमिका निभाई। असल में वह SFI, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जेएनयू स्टूडेंट्स यूनियन, अखिल भारतीय जनवादी नौजवान सभा (DYFI) और अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन (AIAWU) के संस्थापक नेता रहे हैं। उनके कई समकालीनों के अनुसार उन्होंने SFI का प्रसिद्द नारा 'अध्ययन और संघर्ष' भी ईजाद किया।
वर्ष 1980 में वह DYFI के संस्थापक कोषाध्यक्ष बने। वह 1991 से AIAWU के संयुक्त सचिव चुने गए थे और वर्ष 2020 तक इस पद पर बने रहे। साल 2023 में हावड़ा में हुए 10वे सम्मलेन में उन्हें कमेटी की ज़िम्मेदारी से मुक्त किया गया। वह अपनी अंतिम सांस तक खेत मज़दूर आंदोलन से जुड़े रहे और उनकी मृत्यु भी संगठन के कार्यालय के रास्ते में मेट्रो स्टेशन पर हुई। वह भारत में खेत मज़दूरों और ग्रामीण गरीबों के संघर्षो के अग्रणी नेता रहे। वह 1995 में सीपीआई(एम) की केंद्रीय समिति के लिए चुने गए और 2015 तक समिति में बने रहे। वह "ट्रेड यूनियन इंटरनेशनल इन एग्रीकल्चर" की कार्यकारी समिति के सदस्य भी थे। इसके अलावा वह "इंडो कोरियन फ्रेंडशिप एसोसिएशन" के महासचिव भी रहे।
वह एक बहुआयामी व्यक्ति होने के साथ-साथ एक कलाकार भी थे। उन्होंने विविध मुद्दों पर विस्तार से लिखा, कई कविताएं और लघु कथाएं लिखीं। वह एक प्रसिद्ध और बहुप्रतीक्षित कला समीक्षक थे और फ्रंटलाइन समेत विभिन्न राष्ट्रीय दैनिकों और पत्रिकाओं में नियमित कॉलम लिखते थे। वह हमेशा नौजवानों को प्रेरित करते थे। यूनाइटेड किंगडम में उन्होंने एक स्कूल शिक्षक के रूप में पढ़ाना शुरू किया और बाद में स्कूल ऑफ़ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर, दिल्ली में वास्तुकला के छात्रों को व्याख्यान देते थे। वह नौजवानो से चर्चा करते थे और जनवादी आंदोलन के रास्ते पर हमेशा उनका हौंसला बढ़ाते थे।
सुनीत चोपड़ा की याद में और उनके जीने का जश्न मनाने के लिए दिल्ली के 36, पंडित रवि शंकर शुक्ला लेन में एक सभा का आयोजन किया गया था। उनकी स्मृति सभा में समाज के विभिन्न क्षेत्रों से आए लोग शामिल हुए जो दरअसल सुनीत के व्यक्तित्व रूपी कैनवास के इंद्रधनुष के अलग-अलग आयामों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमे देश के क्रांतिकारी आंदोलन के अग्रणी नेता मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य, जनता के वर्गीय तथा जनसंगठनों का शीर्ष नेतृत्व, उनके जैविक और सामाजिक परिवार के सदस्य, खेत मज़दूर आंदोलन के कार्यकर्ता, पत्रकार, लेखक, कहानीकार, कवि, चित्रकार, कलाकार, गायक आदि सभी थे। इन सबका सुनीत से प्रगाढ़ रिश्ता रहा है।
जी हां, विश्वाश करना मुश्किल है लेकिन सुनीत इनमे से ज़्यादातर को काम के रिश्ते की वजह से जानते थे। वह मुख्य रूप से एक मार्क्सवादी थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन व्यवसायिक क्रांतिकारी के तौर पर जनता की मुक्ति की लड़ाई के लिए अर्पित कर दिया था। लेकिन सुनीत की बहुआयामी प्रतिभा केवल आंदोलन तक सीमित नहीं थी। अपने मार्क्सवादी दर्शन से उन्होंने कला, लेखन, और वैचारिक क्षेत्र में भी भरपूर योगदान दिया। यह सुनीत ही थे जो एक दिन किसी कला गैलेरी में चित्रकला पर एक शास्तरीय चर्चा कर रहे होते हैं, तो वहीं कलाकार उनसे एक लेख की गुज़ारिश कर रहे होते हैं, दूसरे ही दिन जब लोग किसी मुख्य पत्रिका या अख़बार में किसी जटिल आर्थिक मुद्दे या फिर दार्शनिक समस्या पर छपा उनका लेख पड़ रहे होए हैं, तो ठीक उसी समय सुनीत देश के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में किसी खेतिहर मज़दूर के परिवार के साथ चटाई पर बैठकर खाना खाते हुए उन्हें संगठित कर रहे होते हैं!
यह कोई कल्पना नहीं है बल्कि सुनीत चोपड़ा के जीवन के आयाम हैं जो उनकी स्मृति सभा में आए लोगों ने सबसे साझा किया। जितने भी लोग स्मृति सभा में आए थे सबके पास सुनीत के बारे में कहानियां थी चाहे वह CPI(M) के महासचिव सीताराम येचुरी हों जिन्होंने सुनीत के साथ छात्र आंदोलन में काम किया या फिर चित्रकार अर्पणा कौर जिनकी रचनाओं के बारे में सुनीत अपनी राय बेबाकी के साथ लिखा करते थे।
स्मृति सभा में उनको याद करते हुए सीताराम येचुरी ने बताया कि ऐसे अनगिनत लोग हैं जो यह बताएंगे कि जब वह JNU में पहुंचे तो उनसे मिलने वालों में सुनीत पहले इंसान थे। उन्होंने सुनीत के सांगठनिक कौशल और लोगों को प्रेरित करने की काबिलियत की तुलना खेत में चलने वाले हल से की। उनके अनुसार खेत में कोई भी फसल उगानी है उसके लिए पहली ज़रुरत है - हल से खेत को जोतना। सुनीत चोपड़ा वामपंथी आंदोलन के हल थे जो जहां भी जाते एक उपजाऊ ज़मीन तैयार करते। और यह गुण उनमे जीवन पर्यंत रहा। उनके देहांत की खबर सुन कर दुनिया के देशों से प्रख्यात हस्तियों के शोक संदेश उनके पास पहुंच रहे हैं जिनमे कईयों ने साझा किया है कि कैसे वह सुनीत से प्रभावित हुए।
प्रकाश करात ने बताया कि उन्होंने पहले पहल सुनीत को लंदन में स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ के हॉल में देखा था जब वह फिलिस्तीन में एक ट्रेनिंग कैंप से लौटे थे और क्रांतिकारी विचारो से लबरेज़ थे। उन्होंने एक महत्वपूर्ण किस्सा बताया कि कैसे JNU के दिनों में एक छात्र उनके पास आया और उनसे कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता मांगी। वह चकित थे क्योंकि जो छात्र उनके पास आया था उसको कभी उन्होंने छात्र आंदोलन में सक्रीय नहीं देखा था। इसके बाबत पूछने पर उस छात्र ने बताया कि वह कामरेड सुनीत के साथ लगातार चर्चा में था और सुनीत ने उसे विश्वास दिलाया था कि क्रांति जल्द ही होने वाली है। इसलिए वो छात्र उस क्रांति का हिस्सा बनने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनना चाहते था।
बृंदा करात ने बताया कि कैसे सुनीत चोपड़ा ने उनको लंदन में एक सही वैचारिक दिशा में आगे बढ़ने में मदद की थी। उनके शब्दों में, "मैं उन दिनों भारतीय छात्रों के एक प्रगतिशील समूह का हिस्सा थी जिसमे सभी तरह के लोग थे - अराजकतावादी, हिप्पी, ब्लैक पैंथर आदि। उस समय सुनीत चोपड़ा ने मुझे 'टू दी फ़िनलैंड स्टेशन' नामक पुस्तक दी और इसे पढ़ने के लिए कहा। जहां हमारे समूह में अलग-अलग तरह के विचार थे वहीं सुनीत मार्क्सवाद को लेकर बिल्कुल स्पष्ट थे और उनका मार्क्सवाद पर पक्का विश्वास था और जीवन की आखिरी सांस तक उनका यह विश्वास नहीं डगमगाया।"
प्रसिद मार्क्सवादी अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने स्मृति सभा में बोलते हुए उनके व्यक्तित्व के दो पहलुओं पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि, "सुनीत चोपड़ा में प्रचंड क्रांतिकारी उत्साह था और वह कभी भी निराश नहीं होते थे और दूसरों को भी हमेशा उत्साहित करते रहते थे। सोवियत यूनियन के विघटन के बाद कई लोगों का मार्क्सवाद से विश्वाश डगमगा गया। कई हताश भी हुए लेकिन सुनीत चोपड़ा उनमें से नहीं थे। किसी भी परिस्थिति में वह हमेशा अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त थे। दूसरी बात है सुनीत के व्यक्तित्व का बहुआयामी होना। वह कई विविध गुणों के धनी थे। वह शैक्षणिक लेखों से लेकर एक कार्यकर्ता का जीवन जी रहे थे। यह एक विरला गुण है जो बहुत ही कम लोगों में पाया जाता है, या तो लोग कार्यकर्ता होते हैं या बुद्धिजीवी लेकिन सुनीत दोनों थे, एक बुद्धिजीवी, एक कार्यकर्ता, एक कला के समालोचक और एक कलाकार भी।"
वह जहां भी जाते, जनता में पढ़ने की सामग्री और साहित्य वितरित करते थे। यह एक ऐसी महत्वपूर्ण आदत थी जिसके लिए सुनीत प्रसिद्ध थे। जब भी वह ऑटो या किसी अन्य वाहन से कार्यालय आते तो किराया देने के बाद ड्राइवर को रुकने को कहते। दफ़्तर से वह पार्टी का अख़बार लोकलहर या कोई अन्य हिंदी की सामग्री लाकर ड्राइवर को देते और पढ़ने के लिए कहते और अगली बार मिलने पर इसके बारे में पूछते भी।
ज़मीन से जुड़े नेता के रूप में उन्होंने सादा जीवन व्यतीत किया। उन्होंने ग्रामीण सर्वहारा वर्ग के साथ रहते हुए ग्रामीण भारत को व्यापक रूप में समझा। अपने लेखन और भाषणों में उन्होंने कृषि क्रांति में ग्रामीण सर्वहारा वर्ग के रणनीतिक महत्व को मजबूती से पेश किया और एक मजबूत मज़दूर-किसान गठबंधन की आवश्यकता पर बल दिया। सुनीत एक सच्चे मार्क्सवादी थे जो मजबूती से अपनी बात रखते थे, अपनी असहमतियां दर्ज कराते थे और बैठकों में गर्मागर्म बहस करते थे। अपना पक्ष स्पष्ट करने के लिए वे ज़ोरदार तर्क देते और कई बार उत्तेजित भी हो जाते लेकिन बैठक से बाहर आते ही सुनीत पहले जैसे हो जाते थे जो सबका ध्यान रखते थे और सामूहिकता से बैठक के निर्णयों को लागू करते थे। यह एक बड़ा गुण है। देश के वामपंथी अंदोलन को सुनीत चोपड़ा के निधन से भारी क्षति पहुंची है लेकिन सुनीत जनमानस के संघर्षो में हमेशा ज़िंदा रहेगे।
(लेखक अखिल भारतीय खेतिहर मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। इससे पहले वे छात्र आंदोलन से संबद्ध थे। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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