मातृत्व कल्याणकारी योजनाओं में फंड की कमी और शिशु व मातृ मृत्यु दर की चिंताजनक स्थिति!
हम अक्सर अखबारों में या टीवी चैनलों पर गर्भवती महिलाओं या नवजात शिशुओं की मौत की खबरें सुनते व पढ़ते हैं। आंकड़े कहते हैं कि हमारे यहां भारत में हर दिन गर्भावस्था या प्रसव के दौरान करीब 66 महिलाओं की मौत हो जाती है। मतलब हर साल देश में गर्भावस्था या प्रसव के दौरान 24,000 माताओं की मौत हो जाती है। इस भयानक सच के हमारे सामने होते हुए भी हम इससे अनजान हैं। और ये हाल सिर्फ हमारे देश का ही नहीं बल्कि विदेश में भी कई देशों का है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की हालिया जारी रिपोर्ट के अनुसार पिछले आठ सालों के दौरान, गर्भवती महिलाओं, माताओं और शिशुओं की असमय होने वाली मौतों में कमी लाने के प्रयासों में वैश्विक प्रगति थमती नज़र आ रही है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2015 के बाद से सालाना लगभग 2.90 लाख मातृत्व मौतें होती हैं, 19 लाख स्टिलबर्थ होते हैं और 23 लाख नवजात शिशुओं की जन्म के पहले महीने के भीतर ही मौत हो जाती है। यानी मौजूदा दरों पर, 60 से अधिक देश 2030 तक इन मौतों को कम करने के अपने लक्ष्यों को पूरा करने के रास्ते से दूर हैं।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी रिपोर्ट "ट्रेन्ड्स इन मैटरनल मोर्टेलिटी 2000-2020" की मानें तो, दुनिया में भारत, नाइजीरिया के बाद दुनिया का दूसरा ऐसा देश है जहां इतनी बड़ी संख्या में गर्भावस्था या प्रसव के दौरान महिलाओं की मौत हो रही है। हालांकि देखा जाए तो वर्ष 2000 के बाद से भारत में मातृ मृत्यु अनुपात (एमएमआर) में लगातार गिरावट आई है जोकि एक अच्छी खबर है लेकिन इसके बावजूद यह गिरावट उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिए थी। गौर करने वाली बात ये है कि जहां साल 2000 में देश में मातृ मृत्यु अनुपात (एमएमआर) 384 था वो साल 2020 में 73 फीसदी की गिरावट के साथ घटकर 103 रह गया है।
क्या कारण है गर्भवती महिलाओं की बढ़ती मौतों का?
डब्ल्यूएचओ की मानें तो, कोविड-19 महामारी, गरीबी और बिगड़ते मानवीय संकटों ने पहले से ही तनावपूर्ण स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों पर दबाव और बढ़ा दिया है। एक सौ से अधिक देशों में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक हर दस में से सिर्फ एक देश के पास ही स्वास्थ्य योजनाओं को लागू करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन हैं।
भारत के परिप्रेश्य में इस पूरी परिस्थिति को देखें, तो समझ में आता है कि यहां महिलाओं तक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच पहले ही सीमित है। भारत में असम में सबसे ज़्यादा मातृ मृत्यु दर 195 है, तो वहीं ये केरल में सबसे कम 19 है। ज़ाहिर है इसका सीधा कनेक्शन स्वास्थ्य सुविधाओं और बुनियादी स्वास्थ्य ढांचे से है। जिस राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था जितनी मजबूत, वहां उतनी ही बेहतर सेवाएं।
संयुक्त राष्ट्र की ओर से भी कहा गया है कि सामुदायिक या प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल स्तर की सुविधाओं में कम फंडिंग, प्रशिक्षित डॉक्टर की कमी और चिकित्सा उत्पादों की आपूर्ति में कमी लगातार बनी हुई है। इस वजह से बड़ी संख्या में गर्भावस्था के पूरे समय में उन तक सुविधाएं तक नहीं पहुंचती हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और उनको पूर्ण रूप से लागू करने की अनिच्छा हर दिन महिलाओं की मौत की वजह बन रहा है।
भारत में महिलाओं, बच्चों और किशोरों की स्वास्थ्य ज़रूरतों को बेहतर करने के लिए राज्य और केंद्र सरकार की कई योजनाएं चल रही हैं। इनमें से कुछ घोषणाएं शुरू होने के साथ से ही कम बजट की समस्या का सामना कर रही हैं। ओआरएफ में छपी जानकारी के मुताबिक़ प्रधानमंत्री मातृत्व वंदना योजना (पीएमएमवीवाई) साल 2017 कीशुरुआत से ही फंड की कमी का सामना कर रही है।
वहीं इस साल बजट में पोषण से संबंधी योजनाओं में भी मामूली बढ़त ही नज़र आती है। आंगनवाड़ी सेवा योजना, पोषण अभियान और किशोरियों से जुड़ी तीनों योजनाओं के लिए लगभग 20,554 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। ये योजनाएं किशोरी, गर्भवती महिलाओं के पोषण से जुड़ी हुई हैं। महिलाओं की स्वस्थ और सुरक्षित गर्भावस्था के लिए उन्हें पोषण युक्त आहार मिलना बहुत आवश्यक है। गरीबी, निम्न आय की वजह से बड़ी संख्या में लोग इन योजनाओं पर आश्रित हैं। लेकिन जब सरकारी कल्याण की योजनाएं शुरुआत से ही बजट की कमी का सामना करेंगी तो ऐसे कैसे मातृत्व कल्याणकारी योजनाएं महिलाओं का कल्याण कर पाएंगी।
क्या हो सकते हैं उपाय?
विशेषज्ञों और ज़मीनी स्तर पर काम करने वालों का लंबे समय से कहना है कि मातृत्व स्वास्थ्य और महिलाओं के जीवन को बचाने के लिए कई और कदम उठाने की ज़रूरत है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की इस साल की सालाना बैठक में कहा गया कि लंबे समय से महिलाओं और उनके परिवारों की अधूरी स्वास्थ्य, शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक ज़रूरतों को ऐसे ही छोड़ दिया जा रहा है। महिलाओं की ज़रूरतों को व्यक्तिगत विषय के तौर पर देखने की प्रवृति को बदलना होगा। पूरे समाज के कल्याण के लिए महिलाओं के स्वास्थ्य पर निवेश करना बहुत ज़रूरी है।
तत्काल प्रभाव से देखा जाए तो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में सही देखभाल, महिलाओं, बच्चों और किशोरों की ज़रूरतों को पूरा कर सकती है। साथ ही प्रसव पूर्व, जन्म के समय और प्रसवोत्तर देखभाल, टीकाकरण, पोषण और परिवार नियोजन जैसी महत्वपूर्ण सेवाओं तक समान पहुंच को सुनिश्चित किया जा सकता है। हालांकि, इसमें भी कई पेंच नज़र आते हैं, जैसे प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए की जा रही कम फंडिंग, प्रशिक्षित स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों की कमी और चिकित्सा उत्पादों के लिए कमज़ोर आपूर्ति श्रृंखलाएं इस आसान से उपाय को भी बहुत मुश्किल बना रहे हैं। ऐसे में सरकार को इस ओर और ध्यान देने की ज़रूरत है।
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