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चीन को नियंत्रित करने की राह पर भारत, अमेरिका?

भारत और अमेरिका के विदेश और रक्षा मंत्रियों की '2+2' प्रारूप में बैठक नई दिल्ली में 10 नवंबर, 2023 को हुई।
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10 नवंबर को नई दिल्ली में अमेरिकी-भारत 2+2 विदेश और रक्षा मंत्रियों की बैठक से यही संदेश मिल रहा है।

यदि संयुक्त राज्य अमेरिका एक घटती हुई शक्ति है और इंडो-पेसिफिक में चीन का उदय नहीं रुकने वाला है; यदि रूस खुद को एक वैश्विक शक्ति मानता है और अमेरिका के प्रभुत्व वाली नियम-आधारित व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए प्रतिबद्ध है; यदि यूक्रेन युद्ध में अमेरिका और नाटो की हार एक नियति बन गई है; यदि कनाडा को (सिख अलगाववादी) हरदीप निज्जर की हत्या में कथित भारतीय भागीदारी के मामले में परेशान और गुस्सा होने के लिए अमेरिका द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है; यदि गज़ा में इजराइल का खूनी खेल वास्तव में नरसंहार है – तो ठीक ही है कि, भारत के नीति निर्माताओं ने इसके बारे में अभी तक कुछ भी नहीं सुना है। 10 नवंबर को नई दिल्ली में अमेरिकी-भारत 2+2 विदेश और रक्षा मंत्रियों की बैठक से तो यही संदेश निकल कर आ रहा है।

बड़ी तस्वीर यह है कि हाल ही में सितंबर में ग्लोबल साउथ के नेतृत्व की जिम्मेदारी का दुस्साहसपूर्वक दावा करने के बाद, दो महीने से अधिक का वक़्त बीत चुका है, भारत अभी अमेरिका के मजबूत सहयोगी के रूप में अमेरिकी खेमे में जाता नज़र आ रहा है, यहां तक कि पेंटागन की मदद से "वैश्विक रक्षा केंद्र" बनने की आकांक्षा भी जता रहा है।

2+2 बैठक की कुछ बातें निम्नलिखित हैं:

  • "समुद्र के भीतरी इलाके सहित समुद्री चुनौतियों" से संबंधित प्रौद्योगिकी को आपस में साझा करना;
  • ज़मीनी गतिशीलता वाली प्रणालियों का मिलकर विकास और उत्पादन करना;
  • भारत, अमेरिकी विमानों के रखरखाव और अमेरिकी नौसैनिक जहाजों की यात्रा के दौरान मरम्मत का काम करेगा;
  • भारत में अमेरिकी विमानों और मानवरहित हवाई वाहनों के रखरखाव, मरम्मत और ओवरहॉलिंग में अमेरिकी निवेश होगा;
  • आपूर्ति व्यवस्था की सुरक्षा को अंतिम रूप देना, जो रक्षा औद्योगिक पारिस्थितिकी तंत्र के एकीकरण और आपूर्ति श्रृंखला लचीलेपन को मजबूत करेगा;

बहुराष्ट्रीय संयुक्त समुद्री बलों के बहरीन के मुख्यालय में भारत की पूर्ण सदस्यता के लिए दोनों सशस्त्र बलों के बीच नए संपर्क के तरीकों का निर्माण किया जाएगा;

लॉजिस्टिक्स और एक्सचेंज मेमोरेंडम समझौते के दायरे को बढ़ाना, और भारतीय ठिकानों तक अमेरिकी नौसैनिक जहाजों की पहुंच बढ़ाने के लिए तरीकों की पहचान करना।

इसमें कोई शक़ नहीं कि, यह तो अभी शुरुआत है, जबकि भारतीय नीतियों में यह असाधारण बदलाव काफी हद तक बंद दरवाजों के पीछे रहेगा। अमेरिका को पूरा भरोसा है कि भारत एक विशेष गठबंधन में प्रवेश करने को तैयार है, कुछ ऐसा जो नई दिल्ली ने किसी भी बड़ी शक्ति के साथ कभी नहीं चाहा। बाइडेन प्रशासन ने भारत को ऐसा कौन सा प्रस्ताव दिया है जिसे भारत अस्वीकार नहीं कर सका?

स्पष्ट रूप से, भारत की सैन्य नीतियों में इतने बड़े बदलाव को विदेश नीति के मूलभूत सिद्धांतों के साथ सह-संबंधित करने की जरूरत है। दिलचस्प बात यह है कि, इसे "द्विदलीय सर्वसम्मति" कहें या कुछ भी, भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी को स्पष्ट रूप से इस बदलाव की कोई परवाह नहीं है। ये कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह बदलाव वास्तव में चीन का मुकाबला करने के लिए एक नए भारत-अमेरिका गठबंधन के बारे में है - और यह एक नीतिगत मोर्चा है जहां दोनों के बीच तय करना मुश्किल है।

निश्चित रूप से, रूस और चीन दोनों इस बात को समझते हैं कि भारतीय विदेश नीति परिवर्तनशील है। लेकिन वे ध्यान न देने का दिखावा करते हैं और आशा करते हैं कि यह एक विपथन है। किसी भी कीमत पर, न तो रूस और न ही चीन भारत को उसके रास्ते पर जाने से रोक सकता है। समकालीन सुरक्षा माहौल में भारतीय नीतियों का लाभ उठाने की उनकी क्षमता नाटकीय रूप से कम हो गई है - विशेष रूप से मास्को की।

मुद्दे की जड़ यह है कि भारत विश्व व्यवस्था में बढ़ती बहुध्रुवीयता से खुश नहीं है। भारत "नियम-आधारित व्यवस्था" का लाभार्थी है और द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था के साथ कहीं अधिक सहज महसूस करता है, जहां बहुध्रुवीयता, यदि है भी, तो एक सीमांत घटना बनी हुई है, जबकि अमेरिका की प्रमुखता आने वाले दशकों तक बनी रहेगी।

इस तरह की समझ को, भारत के मामले में चीन की आधिपत्यवादी प्रवृत्ति को रोकने की दिशा में अपना मार्ग खोलने के साथ-साथ अपनी व्यापक राष्ट्रीय शक्ति को बेहतर ढंग से विकसित करने में फायदेमंद माना जाता है। यह एक महत्वाकांक्षी एजेंडा है जो जोखिम भरा भी है, क्योंकि वाशिंगटन में राष्ट्रपतियों के आने और जाने के साथ नीतियां बदलती रहती हैं और इस बदलाव में अमेरिकी हितों को फिर से परिभाषित किया जाता है और प्राथमिकताएं बदल जाती हैं।

हालांकि, आज, अमेरिका के साथ जुड़ने की भारतीयों की इच्छा पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है। 2+2 बैठक में चीन के उदय के प्रति शत्रुता स्पष्ट थी। भारत ने किसी भी बचे-खुचे दावे को त्याग दिया है और चीन के साथ खुले तौर पर प्रतिकूल रिश्ते की ओर बढ़ रहा है। क्वाड एक महत्वपूर्ण लोकोमोटिव बन गया है। निश्चित रूप से, चीनी प्रतिक्रिया की उम्मीद की जा सकती है – यह कब या किस रूप में आएगी, यह तो समय ही बताएगा।

यह केवल इसलिए संभव है क्योंकि दिल्ली को यथोचित आश्वासन मिलता रहता है कि चीन के साथ बढ़ते जुड़ाव के बावजूद बाइडेन प्रशासन के तहत वाशिंगटन का इंडो-पैसिफिक फोकस बरकरार है। बेशक, एक ऐसा बिंदु उत्पन्न हो रहा है क्योंकि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग पांच वर्षों में अमेरिका की अपनी पहली यात्रा करेंगे और राष्ट्रपति बाइडेन के साथ एक शिखर बैठक की सावधानीपूर्वक तैयारी की गई है, जिससे दोनों पक्षों को उम्मीद है कि यह नतीजाकुन बैठक होगी जो चीन-अमेरिकी संबंध को अधिक पूर्वानुमानित बनाती है।

2+2 बैठक में जो तीन इलाकाई मुद्दे प्रमुखता से उठे वे थे अफ़गानिस्तान, यूक्रेन और फ़िलिस्तीन-इजरायल संघर्ष। संयुक्त वक्तव्य में अफ़गानिस्तान पर उप-शीर्षक के साथ एक अलग पैराग्राफ लिखा गया, जिसमें स्पष्ट रूप से तालिबान शासकों पर "किसी भी समूह या व्यक्ति को, किसी भी देश की सुरक्षा को खतरे में डालने के लिए, अफ़गानिस्तानी इलाके का इस्तेमाल करने से रोकने की प्रतिबद्धता" का पालन नहीं करने का आरोप लगाया गया है।

संयुक्त बयान स्पष्ट रूप से यूएनएससी प्रस्ताव संख्या 2593 (2021) की याद दिलाता है, जो विशेष रूप से मांग करता है कि अफ़गान इलाके का इस्तेमाल किसी भी देश को धमकी देने या हमला करने या आतंकवादियों को आश्रय देने या प्रशिक्षित करने, या आतंकवादी हमलों की योजना बनाने या वित्त-पोषण करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।

दिल्ली, तालिबान शासकों के साथ रचनात्मक रूप से जुड़ने के अपने प्रयासों से आमूलचूल प्रस्थान कर रही है। इसका एक कारण इस आशय की खुफिया सूचनाएं हो सकती हैं कि अफ़गानिस्तान एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी समूहों के लिए घूमने वाला दरवाजा बन रहा है।

दूसरी संभावना यह हो सकती है कि अमेरिका और भारत, तालिबान की चीन के साथ बढ़ती निकटता और अफ़गानिस्तान के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का केंद्र बनने की आशंका को लेकर नाराजगी की भावना साझा करते हैं। वाखान कॉरिडोर के माध्यम से अफ़गानिस्तान को जोड़ने वाली सड़क बनाने की बीजिंग की योजना भू-रणनीति में एक गेम चेंजर है जिसके नतीजे देखने लायक होंगे। शिनजियांग की सुरक्षा से संबंधित कोई भी चीज़ दिल्ली के लिए निरंतर रुचि का विषय हो सकती है।

2+2 बैठक का संयुक्त बयान अफ़गानिस्तान पर नए सिरे से अमेरिकी-भारत विचार का संकेत देता है। यह कहां तक सक्रिय कदम के रूप में सक्षम होगा यह एक विवादास्पद मुद्दा है। विशेष रूप से, अमेरिका और उसके सहयोगी अफ़गानिस्तान में रूसी प्रभाव को कम करने के लिए शीत युद्ध के बाद की अपनी रणनीति को दोगुना करने के लिए यूक्रेन-संघर्ष में रूस की व्यस्तता का भी फायदा उठा रहे हैं। मॉस्को को महसूस हो रहा है कि वह अपने बगल की जमीन खो रहा है।

जब यूक्रेन और फ़िलिस्तीन-इजराइल संघर्ष की बात आती है, तो जो बात सबसे पहले सामने आती है वह यह कि अमेरिका और भारतीय पक्ष इन महत्वपूर्ण इलाकाई संघर्षों पर अपनी-अपनी स्थिति में सामंजस्य बिठाने में सफल रहे हैं। वास्तव में, दिल्ली अपनी रणनीतिक दुविधा को त्यागकर अमेरिकी समझ की ओर बढ़ रही है। संयुक्त वक्तव्य में क्या कहा गया है और क्या नहीं कहा गया है, यह स्पष्ट रूप से सामने आता है। इस प्रकार, यूक्रेन में, रूस के आकस्मिक युद्ध के "परिणाम मुख्य रूप से ग्लोबल साउथ को प्रभावित कर रहे हैं।" इसके अलावा, मॉस्को यूक्रेन युद्ध के 2+2 फॉर्मूले के साथ रहना सीख सकता है।

जहां तक पश्चिम एशियाई हालात का संबंध है, संयुक्त बयान में "आतंकवाद" के खिलाफ इजरायल की लड़ाई को जोरदार समर्थन दिया गया है। लेकिन यहां, फिर से, भारत ने हमास की आलोचना करने से इनकार कर दिया है। न ही भारत हमास के खिलाफ इजराइल के युद्ध का समर्थन कर रहा है, ऐसे में इसकी सफलता की संभावनाओं का पहले से अनुमान लगाना तो दूर की बात है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संयुक्त बयान में इजराइल के तथाकथित "आत्मरक्षा के अधिकार" के किसी भी संदर्भ को छोड़ दिया गया है, एक मंत्र जो लगातार बाइडेन के जबन पर रहता है।

भारत संभवतः गज़ा युद्ध को "आत्मरक्षा" की कार्रवाई नहीं कह सकता है, जब इजराइल ने असहाय नागरिकों के खिलाफ इतना क्रूर सैन्य अभियान चलाया हुआ है और गज़ा शहर को तहस-नहस कर दिया है - जो ड्रेसडेन शहर पर संयुक्त ब्रिटिश-अमेरिकी हवाई बमबारी हमले की याद दिलाता है, तब सैक्सोनी की राजधानी में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 9-10 मार्च 1945 की भयानक रात में 25000 से अधिक जर्मन लोगों की मौत हो गई थी।

शायद, मौत की घाटी के ज़रिए से इन सभी राजनयिक आवाजाही को क्षेत्रीय राजधानियों में हमास नेतृत्व से जुड़े मजबूत बैक-चैनल सौदे की पृष्ठभूमि के खिलाफ बेहतर ढंग से समझा जा सकता है जिसमें बाइडेन प्रशासन के ऊंचे दांव लगे होंगे क्योंकि वह इसमें खुद एक भागीदार है।

एम॰के॰ भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

साभार: इंडियन पंचलाइन

अंग्रेजी में प्रकाशित इस रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

India, US on Pathway to Contain China?

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