ख़बरों के आगे-पीछे: उपचुनाव का गणित और भाजपा की घबराहट
उपचुनावों से घबरा रही है भाजपा
देश भर में 30 विधानसभा सीटें खाली होने के करीब डेढ़ महीने बाद तक चुनाव आयोग ने उपचुनाव कराने की घोषणा नहीं की है। आखिर इसी चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के साथ ही सात राज्यों की 13 सीटों पर उपचुनाव का ऐलान कर दिया था। तब सबको हैरानी हुई थी कि आखिर अभी तीन महीने तक चली चुनाव प्रक्रिया समाप्त हुई है तो अभी तुरंत क्यों चुनाव कराए जा रहे हैं। पश्चिम बंगाल की चार सीटों पर उपचुनाव की घोषणा हुई थी तो राज्य सरकार ने आयोग से शिकायत करते हुए कहा था कि उसके यहां छह और सीटें खाली हुई हैं तो सारे चुनाव एक साथ ही क्यों नहीं कराए जा रहे हैं? लेकिन आयोग ने इस पर ध्यान नहीं दिया।
सात राज्यों की 13 विधानसभा सीटों में से एनडीए सिर्फ दो सीट जीत सका। जाहिर है कि भाजपा उपचुनावों को लेकर घबरा रही है, क्योंकि इस बार ज्यादा सीटों पर उपचुनाव होना है। भाजपा उपचुनाव से इसलिए घबरा रही है क्योंकि अक्टूबर में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। अगर उससे पहले उपचुनाव होते हैं और नतीजे मनमाफिक नहीं आते हैं तो विधानसभा चुनाव में माहौल बिगड़ेगा। शायद इसीलिए भाजपा चाहती है कि चार राज्यों के विधानसभा चुनाव के साथ ही इन सीटों पर उपचुनाव भी हो। सूत्रों के मुताबिक चुनाव आयोग भी इस संभावना पर विचार कर रहा है। भाजपा की घबराहट के कारण ही इस बार लग रहा है कि महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनाव एक साथ होंगे।
अब मनमानी नहीं कर पाएंगे ओम बिड़ला
लोकसभा स्पीकर के रूप में ओम बिडला के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत अच्छी नहीं रही और लगता है कि उन्हें भी पहली बार अहसास हुआ होगा कि विपक्ष क्या होता है। इस बार ऐसा लग रहा कि विपक्ष ने पहले से तैयारी की हुई थी कि वह स्पीकर को निशाना बनाएगा। असल में लोकसभा में इस बार विपक्षी सांसदों की संख्या बहुत ज्यादा है। इसीलिए पहले दिन से लग रहा था कि विपक्ष अपनी ताकत का प्रदर्शन करेगा। इसलिए स्पीकर ने भी पहले दिन से सख्त रुख अख्तियार किया। स्पीकर का रुख वैसा ही दिख रहा है, जैसा राज्यसभा में सभापति जगदीप धनखड़ का है। इसीलिए टकराव बढ़ा। विपक्षी सांसदों ने पिछले सत्र मे राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान स्पीकर पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तंज किया। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने तो यहां तक कहा कि स्पीकर ने जब उनसे हाथ मिलाया तो सीधे खड़े रहे, जबकि प्रधानमंत्री मोदी से झुक कर हाथ मिलाया। उसी दिन तय हो गया था कि विपक्ष स्पीकर के साथ कैसे पेश आएगा। इसकी एक बानगी बुधवार को लोकसभा में दिखी, जब तृणमूल कांग्रेस के अभिषेक बनर्जी ने स्पीकर पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए चेतावनी के अंदाज में कहा कि सदन में पक्षपात नहीं चलेगा। उन्होंने कहा कि वे आठ साल पहले की नोटबंदी का जिक्र कर रहे हैं तो वह स्पीकर को चुभ रहा है लेकिन भाजपा के सांसद 60 साल पहले के नेहरू और 50 साल पहले की इमरजेंसी का मुद्दा उठाते हैं तो वे चुप रह जाते हैं।
कुछ नहीं बदलेगा एनडीए में
लोकसभा चुनाव के नतीजे आने और तीसरी बार नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा की सहयोगी पार्टियों को लग रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के रवैये में बदलाव आएगा। लेकिन हकीकत यह है कि कोई बदलाव नहीं आया है और न आने वाला है। एनडीए के घटक दलों को सरकार में जगह दे दी गई। उनको हल्के-फुल्के मंत्रालय भी दे दिए गए हैं। इससे ज्यादा उनको उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए। सहयोगी पार्टियों ने दबी जुबान में यह मांग उठाई थी कि पुराने एनडीए की तरह एक ढांचा बनाया जाए, जिसमें किसी सहयोगी पार्टी के नेता को संयोजक की जिम्मेदारी दी जाए, जैसे अटल बिहारी वाजपेयी के समय जॉर्ज फर्नांडीज, चंद्रबाबू नायडू और बाद में आडवाणी के समय शरद यादव एनडीए के संयोजक रहे थे। पिछले दो चुनावों में तो भाजपा को अपने दम पर पूर्ण बहुमत मिल गया तो एनडीए का ढांचा बनाने की जरुरत नहीं पड़ी। इस बार जब भाजपा 240 सीट पर अटक गई तो सहयोगियों को लगा कि शायद इस बार भाजपा पर दबाव बनाया जा सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नरेंद्र मोदी पहले की तरह की सरकार चला रहे हैं। यह एनडीए की नहीं, बल्कि भाजपा की ही सरकार दिख रही है।
पुराने एनडीए को पुनर्जीवित करने के अलावा सहयोगी पार्टियों की एक मांग यह भी थी कि सरकार चलाने के लिए एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाया जाए, लेकिन भाजपा इसके लिए भी तैयार नहीं है। सरकार पहले जैसे चल रही थी वैसे ही चलती रहेगी।
कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस की दिक़्क़त
कांग्रेस सिद्धांत रूप से एक व्यक्ति एक पद का नियम बनाए हुए है। लेकिन कुछ मामलों में उसने इसका अपवाद भी बनाया हुआ है। जैसे कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे राज्यसभा में नेता विपक्ष भी है। खरगे के लिए यह अपवाद इसलिए बनाया गया है ताकि उन्हें दिल्ली में बड़ा बंगला मिल सके। लेकिन कर्नाटक और तेलंगाना में भी यह अपवाद बना हुआ है। कर्नाटक में करीब सवा साल से डीके शिवकुमार प्रदेश अध्यक्ष और राज्य के उप मुख्यमंत्री भी हैं। इसी तरह तेलंगाना में आठ महीने से रेवंत रेड्डी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और राज्य के मुख्यमंत्री भी हैं। दोनों राज्यों में पार्टी को नए अध्यक्ष बनाने हैं लेकिन किसी नाम पर सहमति नहीं बन रही है। पहले कहा जा रहा था कि डीके शिवकुमार लोकसभा चुनाव के बाद अध्यक्ष पद छोड़ देंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के खिलाफ माहौल बना हुआ है और उनके बीच चर्चा चल रही है कि अगर वे मुख्यमंत्री पद नहीं छोड़ते हैं तो शिवकुमार भी अध्यक्ष पद नहीं छोड़ेंगे। दूसरी ओर सिद्धरमैया खेमा कह रहा है कि शिवकुमार को अध्यक्ष रखने का कोई फायदा कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में नहीं मिला। इसलिए उन्हें हटा देना चाहिए। उधर तेलंगाना मे मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी चाहते हैं कि उनके करीबी बलराम नायक को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाए तो दूसरी ओर पार्टी का दूसरा खेमा महेश गौड़ का नाम चलाए हुए है। इस खींचतान में कोई सहमति नही बन पा रही है और आठ महीने से रेवंत रेड्डी दोहरी जिम्मेदारी निभा रहे हैं।
भाजपा पर संघ की निगरानी
आरएसएस के कर्ताधर्ता औपचारिक तौर पर मानेंगे नहीं लेकिन लेकिन हकीकत यही है कि लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के कामकाज पर संघ की निगरानी बढ़ गई है। संघ के पदाधिकारी या उसके विचारक भाजपा के कामकाज पर नजर रख रहे हैं और जरूरी होने पर नसीहत भी दे रहे हैं। पहले भी ऐसा होता था लेकिन तब भाजपा के नेता संघ की नसीहतों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते थे। लोकसभा चुनाव के बाद यह बदलाव आया है कि अब भाजपा के नेता संघ की चेतावनियों पर ध्यान रहे हैं और उसके हिसाब से अपने को बदल भी रहे हैं। ताजा मिसाल अमित मालवीय की है, जिन्होंने बजट के बाद आम लोगों का मजाक उड़ाने वाला एक पोस्ट सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर डाला। उन्होंने लिखा, ''आज सब लोग इंडेक्सेशन के विशेषज्ञ बन जाएंगे।’’ इंडेक्सेशन संपत्ति की बिक्री से जुड़ा एक नियम था, जिसे इस बार खत्म कर दिया गया है। अमित मालवीय के इस पोस्ट पर संघ के विचारक रतन शारदा ने ट्विट किया कि बजट के प्रावधानों को आसान भाषा में लोगों समझाने की बजाय लोगों की खिल्ली उड़ाना ठीक नहीं है। उनका इशारा भाजपा नेताओं के अहंकार की ओर था। अमित मालवीय ने इशारे को समझा और अगले दिन उनकी पोस्ट डिलीट हो गई। रतन शारदा ने फिर ट्विट करके कहा कि उम्मीद करनी चाहिए कि बेहतर विचार को स्वीकार किया जाएगा। गौरतलब है कि रतन शारदा ने ही लोकसभा चुनाव के बाद संघ के मुखपत्र 'आर्गेनाइजर’ में सरकार और भाजपा की कमियां बताई थीं।
नवीन पटनायक की बेहतरीन पहल
ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री और बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक ने 24 साल बाद चुनाव हार कर सत्ता से बाहर होने के बाद कई अच्छी पहल कीं, जिनसे लोकतंत्र की खूबसूरती दिखी। वे मुख्यमंत्री मोहन चरण मांझी के शपथ समारोह में पहुंचे और मंच पर बैठे। वे जब विधानसभा में गए तो उन्हें एक सीट से हराने वाले विधायक के सामने रूके और उसे बधाई दी। उन्होंने सदन में नेता प्रतिपक्ष का पद स्वीकार किया। इसके बाद अब उन्होंने एक शैडो कैबिनेट बनाई है। ब्रिटेन में शुरुआत से प्रचलित लोकतांत्रिक परंपरा के मुताबिक उन्होंने अपनी पार्टी के विधायकों का छाया मंत्रिमंडल बनाया है। शैडो कैबिनेट या छाया मंत्रिमंडल का मतलब है कि जिस तरह मंत्रियों को विभागों की जिम्मेदारी दी जाती है वैसे ही छाया मंत्रिमंडल के सदस्यों को भी अलग-अलग विभागों की जिम्मेदारी दी जाती है और वे उस विभाग के कामकाज पर बारीकी से नजर रखते हैं। जैसे नवीन पटनायक ने अपने पूर्व वित्त मंत्री को वित्त विभाग का शैडो मंत्री बनाया है। इसका मतलब है कि वे वित्त मंत्रालय के कामकाज पर नजर रखेंगे। इसी तरह उन्होने अलग-अलग विभागों का जिम्मा कुछ विधायकों को दिया है। वे संबंधित विभाग के कामकाज पर नजर रखेंगे और उनमें किसी भी किस्म की गड़बड़ी को विधानसभा में और बाहर भी उठाएंगे। शैडो कैबिनेट बनाने की नवीन पटनायक की पहल से लगता है कि भाजपा का शासन लगातार उनकी निगरानी में रहेगा।
नीतीश के अधिकारी के यहां ईडी का छापा
आमतौर पर केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों में ही हो रही है। लेकिन प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने बिहार में छापा मारा है। यह हैरानी की बात है कि सहयोगी पार्टी की सरकार वाले राज्य में ईडी का छापा पड़े। एक आंकड़े के मुताबिक केंद्रीय एजेंसियों की 95 फीसदी कार्रवाई विपक्षी नेताओं या उनके करीबियों के खिलाफ हुई है। 10 साल पहले यह अनुपात 65 फीसदी का था। बहरहाल, ईडी ने पिछले दिनों बिहार सरकार के ऊर्जा सचिव संजीव हंस के यहां छापा मारा। उनके साथ-साथ राष्ट्रीय जनता दल के विधायक रहे गुलाब यादव के यहां भी छापा पड़ा। गुलाब यादव इस बार लोकसभा चुनाव का टिकट नहीं मिलने पर पाला बदल कर बसपा के टिकट पर झंझारपुर सीट से लड़े थे। इन दोनों के यहां छापे के बाद कई तरह की कहानियां कही जा रही हैं। बताया जा रहा है कि आईएएस अधिकारी के यहां एक रिसॉर्ट, मर्सिडीज गाड़ी और 95 करोड़ रुपए का पता चला है। किसी महिला का एंगल होने की खबर है, जिसने शिकायत की थी। जो भी हो, बड़ा सवाल तो यह है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी अधिकारी के यहां कैसे छापा पड़ा? संजीव हंस अब भी बिहार सरकार में सचिव हैं। वे पहले रामविलास पासवान के प्रधान सचिव भी रह चुके हैं। इसीलिए यह भी कहा जा रहा है कि ईडी को उनकी जांच से कुछ ऐसी चीजें मिल सकती हैं, जिससे जनता दल (यू) और सरकार पर दबाव बन सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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