जयंती विशेष: महर्षि वाल्मीकि से बहुत कुछ सीख सकता है समाज
हमारे देश के महान व्यक्तित्व और उनके विचार हमें बेहतर इंसान और बेहतर समाज बनाने के लिए बहुत कुछ सिखाते हैं चाहे वे गौतम बुद्ध हों, महात्मा ज्योतिबा फुले हों, साबित्री बाई फुले हों या डॉ. भीमराव अंबेडकर या ऐसी अन्य अनेक विभूतियां।
हमारे देश के ऋषि-महर्षि भी हमें बेहतर बनने की प्रेरणा देते हैं। महर्षि वाल्मीकि के व्यकितत्व और कृतित्व से भी हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।
हमारे मन में महर्षि वाल्मीकि की जो सबसे पहले छवि नजर आती है - वह है रामायण लिखते हुए। उनके हाथ में कलम होती है - यह कलम हमें शिक्षित होने के लिए प्रेरित करती है।
महर्षि वाल्मीकि को आदि कवि कहा जाता है। वह संस्कृत में लिखित रामायण के लिए प्रसिद्ध हैं। पहला छंद उनके मन में मैथुनरत क्राैंच नर पक्षी को निषाद द्वारा मार दिए जाने पर मादा पक्षी के विलाप से निकला अंतर्मन की आह से प्रस्फुटित हुआ जो इस प्रकार था:
मा निषाद प्रतिष्ठांत्वमगम: शाश्वती: समा:।
यतक्रौंचमिथुनादिकम अवधि: काममोहितम्।।
इस पर सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत ने भी दो पंक्तियां इस प्रकार लिखीं:
वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान
निकल कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान!
अपनी रामायण रचना के दौरान भी संदर्भ या प्रसंग के अनुसार वे ऐसी सूक्तियां या नैतिक वाक्य देते रहते हैं जो हमारे लिए प्रेरणास्पद होते हैं जैसे:
जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।
महर्षि वाल्मीकि रामायण में विभिन्न प्रसंगों में ऐसे सूक्त वाक्य कह जाते हैं जो हमारे-आपके लिए हमारे समाज के लिए प्रेरणास्पद बन जाते हैं। कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं:
किसी भी मनुष्य की इच्छाशक्ति यदि उसके साथ हो तो वह कोई भी काम बड़े आसानी से कर सकता है। इच्छा शक्ति और दृढ़ संकल्प मनुष्य को रंक से राजा बना देती है।
इस दुनिया में दुर्लभ कुछ भी नहीं है यदि उत्साह का साथ न छोड़ा जाए।
माता-पिता की सेवा और उनकी आज्ञा का पालन जैसा कोई दूसरा धर्म नहीं है।
प्रियजनों से मोहवश अत्यधिक प्रेम करने से यश चला जाता है।
दुख और विपदा ऐसे दो मेहमान हैं जो बिना निमंत्रण के ही आते हैं।
अहंकार मनुष्य का बहुत बड़ा दुश्मन है। वह सोने के हार को भी मिट्टी का बना देता है।
प्रण को तोड़ने से पुण्य नष्ट हो जाते हैं।
असत्य के समान पातक पुंज नहीं है। समस्त सत्य कर्मों का आधार सत्य ही है।
किसी के प्रति दूषित भावना रखने से अपना मन स्वयं मैला हो जाता है।
जीवन में सदैव सुख ही मिले यह बहुत दुर्लभ है।
अति संघर्ष से चंदन में भी आग प्रकट हो जाती है। उसी प्रकार बहुत अवज्ञा किए जाने पर ज्ञानी के हृदय में भी क्रोध उपज जाता है।
संत दूसरों को दुख से बचाने के लिए कष्ट सहते रहते हैं पर दुष्ट लोग दूसरों को दुख में डालने के लिए।
नीच की नम्रता अत्यंत दुखदायी होती है अंकुश, धनुष, सांप और बिल्ली झुक कर वार करते हैं।
संसार में ऐसे लोग बहुत थोड़े ही होते हैं जो कठोर किंतु हित की बात करने वाले होते हैं।
दुखी लोग कौन-सा पाप नहीं करते।
सेवा के लिए उपयोग किया बल हमेशा टिका रहता है और वह अमर भी होता है।
मन कभी भी इच्छित वस्तु प्राप्त होने पर भी संतुष्ट नहीं होता जैसे किसी फूटे हुए बर्तन में कितना भी पानी भर दिया जाए वह कभी नहीं भरता।
उपरोक्त जैसे अन्य अनेक प्रेरणास्पद वाक्य विभिन्न प्रसंगों में रामायण में आते हैं।
बताते चलें कि रामायण के राम मर्यादा पुरूषोत्तम हो सकते हैं। माता-पिता के आज्ञाकारी हो सकते हैं पर वे उसमें 'भगवान' नहीं हैं। राजपुत्र हैं। चौदह वर्ष के वनवास के बाद वापस अयोध्या आकर राजधर्म का पालन करते हैं। इसी सिलसिले में सीता को त्याग देते हैं और शंबूक नाम के तपस्यारत ऋषि का वध कर देते हैं। उनके चरित्र में मानव प्रवृति दृष्टिगोचर होती है।
परन्तु गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरित मानस' अलग कृति है जिसमें राम को भगवान बताया गया है। इसी के कारण 'जय श्रीराम' का नारा इतना लोकप्रिय हुआ है। अयोध्या में उनका राम मंदिर बनवाया गया है।
गौरतलब है कि रामायण एक पौराणिक ग्रंथ है। इसकी ऐतिहासिकता तलाशने का यहां कोई औचित्य नहीं है।
हालांकि आलोचक इस पर कई सवाल उठाते रहे हैं जैसे वाल्मीकि रामायण कब कहां और किस चीज पर लिखी गई थी। और इतने समय तक सुरक्षित कैसे थी? यह रामायण कहां प्राप्त हुई थी?
जब वाल्मीकि जी रामायण लिख सकते हैं तो उनके वंशजों को झाड़ू किसने पकड़ाई और मैला ढोने को मजबूर किसने किया?
क्या वाल्मीकि पहले रत्नाकर नाम के डाकू थे? आदि-इत्यादि।
फिलहाल इन प्रश्नों की पड़ताल करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है। और न यह पता करना कि महर्षि वाल्मीकि ब्राह्मण थे या दलित?
इस लेख का उद्देश्य महर्षि वाल्मीकि द्वारा रामायण में लिखे उन हितोपदेशों पर प्रकाश डालना है जो हमें सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं।
हमारे प्राचीन महाकाव्य और महान ग्रंथ हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शा कर हमें सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं।
आज के समय में यह सही है कि दलित समाज के लोग ही महर्षि वाल्मीकि का जन्मदिन प्रकोटत्सव रूप में मनाते हैं। उनकी झांकियां निकालते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। पर उनके द्वारा बताई सार्थक बातों को जीवन में नहीं उतारते। इस तरह महर्षि का जन्मदिन एक खानापूर्ति भर बनकर रह जाता है। परंपरा का निर्वाह भर रह जाता है।
आज के दिन हमारे राजनेता भी इन कार्यक्रमों में शामिल होते हैं और अपने भाषण में लोगों को महर्षि वाल्मीकि के पदचिन्हों पर चलने उनके उपदेशों पर चलने की प्रेरणा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।
कहीं-कहीं पर महर्षि वाल्मीकि के जन्मोत्सव का सार्थक आयोजन भी देखने को मिलते हैं। कुछ वाल्मीकि समाज के लोग परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त युवाओं को पुरस्कार प्रदान कर उन्हें प्रोत्साहित करते हैं। यह अनुकरणीय पहल है इसकी सराहना की जानी चाहिए।
असल में महर्षि वाल्मीकि के जन्मोत्सव के आयोजन का उद्देश्य ही यह होना चाहिए कि हम उनके वचनों से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को और अपने समाज को और बेहतर बनाने की पहल करें। पर सवाल यही है कि क्या हम महर्षि वाल्मीकि के जन्मदिन पर इस तरह का दृढ़ संकल्प लेंगे?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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