तो आईये पर्यावरण के लिए कुछ जवाबदेही हम भी तय करें...
पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखने के लिए हम क्या करें, इस सवाल को सामने रखने से पहले यदि हम अपने से यह प्रश्न करें कि हमारी भूमिका पर्यावरण को दूषित करने में किस हद तक है तो शायद हम इस सच्चाई को समझ सकें कि हम या हमारा बाज़ार किस कदर अपने पर्यावरण के दुश्मन बनते जा रहे हैं। कम से कम पर्यावरण दिवस के मौके पर तो खुद से विचार मन्थन होना ही चाहिए। और इसी मन्थन से एक बिन्दु जो पिछले कुछ सालों से उभर कर सामने आ रहा है उसने पर्यावरण के लिए एक गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है।
यदि हम कहें कि एक लड़की या महिला का मासिक धर्म और पर्यावरण का आपस में गहरा नाता है तो शायद सुनने में कुछ अटपटा सा लगे। आप सोचेंगे कि मासिक धर्म का होना तो बायोलॉजिकल प्रोसेस है इसमें पर्यावरण क्यूँ और कैसे शामिल हो गया। अब यदि कहा जाये कि करीब 43.2 करोड़ उपयोग किये गए सेनेटरी नैपकिन हर महीने फेंक दिए जाते हैं जो नोन बायोडिग्रेबल (स्वभाविक तरीके से नष्ट न होने वाला) होने की वजह से सीवर, मैदानों और जल स्रोतों में जमा हो रहे हैं। तो समझा जा सकता है कि जाने-अनजाने हम अपने माहवारी के समय किस हद तक पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते हैं। सोखने की क्षमता बढ़ाने के लिए इन प्लास्टिक मिश्रित नेपकीन में सेल्यूलोज, रेयान, डायोक्सिन जैसे हानिकारक तत्वों के साथ ब्लीचिंग का भी प्रयोग किया जाता है जिसमें से ऐसे कैमिकल्स निकलते हैं जो न केवल महिलाओं के स्वास्थ्य में विपरीत असर डाल रहे हैं बल्कि पर्यावरण के लिए भी बेहद खतरनाक साबित हो रहे हैं। इनको जलाया जाना भी पर्यावरण में जहर ही घोल रहा है। इन नेपकीन के जलने पर धुएँ के रूप में जो कैमिकल्स निकलते हैं वह मौत के निमन्त्रण से कम नहीं। पर्यावरण को बचाने की मुहिम में जुटे लोग मानते हैं कि यदि अभी भी समय रहते इन प्लास्टिक मिश्रित सेनेटरी पैड्स के उचित निस्तारण के बारे में नहीं सोचा गया तो आगे वाले समय में इनका इतना कचरा इकट्ठा हो जाएगा कि उसे नष्ट करने में सैकड़ों साल लग जायेंगे।
इसमें दो राय नहीं कि जितनी तेजी से इन नॉन बायोडिग्रेडबल सेनेटरी नैपकीन का खतरा हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बढ़ता जा रहा है उससे दोगुना तेजी से इनका बाज़ार बढ़ रहा है। आज मार्किट में कई तरह के सेनेटरी पैड्स मौजूद हैं जिनको बनाने में खतरनाक कैमिकल्स का इस्तेमाल हो रहा है। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों से पर्यावरण समर्थक इको फ्रेंडली नेपकीन बनाने और इस्तेमाल करने पर जोर दे रहे हैं जैसे दुबारा प्रयोग में लाये जाने वाले कपड़े से बने पैड, बायोडिग्रेडबल पैड व मैनस्टुअल कप आदि। बाजार में मौजूद सेनेटरी नेपकीन के कचरे से पर्यावरण को होने वाले भारी नुकसान को देखते हुए ही पिछले साल "ग्रीन डिस्पो " नाम की एक ऐसी मशीन बाजार में आई है जो सेनेटरी नेपकीन जैसे अपशिष्टों के निपटारे में बहुत मददगार साबित हो रही है। इससे पर्यावरण को भी भारी नुकसान से बचाया जा सकता है। इस आठ सौ डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाली मशीन नुमा भट्ठी ग्रीनडिस्पो में अपशिष्ट तुरंत नष्ट हो जाता है। यह मशीन हैदराबाद के इंटरनेशनल एडवांस्ड रिसर्च सेंटर फॉर पाउडर मेटलर्जी एंड न्यू मैटेरियल्स (एआरसीआई), नागपुर स्थित नेशनल राष्ट्रीय पर्यावरणीय अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) और सिकंद्राबाद की कंपनी सोबाल ऐरोथर्मिक्स ने मिलकर बनाई है। दि क्लीन इंडिया जनरल के मुताबिक भारत में सालाना 43.4 करोड़ सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल होता है जिससे सालाना 9000 टन कचरा पैदा हो रहा है। जनरल के मुताबिक, इस नैपकिन में प्लास्टिक मिला होता है, इसलिए इसे डिकंपोज होने में 500-800 साल लगते हैं। जरनल के मुताबिक ये नैपकिन सेहत के साथ पर्यावरण के लिए भी नुकसानदेह है।
अब दोबारा आते हैं उसी अहम सवाल पर कि हम कितना पर्यावरण के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। आसानी से माहवारी का रक्त सोख लेने वाले बाजारी नेपकीन की बजाय यदि हमें कपड़ा इस्तेमाल करने की सलाह दी जाए तो क्या हम सहर्ष स्वीकार कर लेंगे, इसका जवाब है "नहीं" पर इस "नहीं" की जगह हमें इसका कोई हल तो खोजना ही होगा। कभी तो इस बिंदु पर आकर हमें सोचना होगा। यह सच है कि समाज के साथ साथ सरकार को भी इस ओर गंभीरता से सोचना व बढ़ना होगा केवल पर्यावरण समर्थकों और संरक्षकों के हिस्से पर्यावरण की सुरक्षा सौंप देना भर काफी नहीं। अपने अपने हिस्से की जवाबदेही हमें खुद ही तय करनी होगी तो क्यूँ न इको फ्रेंडली सेनेटरी नेपकीन को अपना हमसफर बनाकर पर्यावरण को बचाने में थोड़ी भूमिका हैं भी अदा कर लें।
(ये लेखिका के निजी विचार हैं।)
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